संदूक खोलते ही, हवेली की दीवारों से एक चीख निकली।
रुख़साना की नहीं…
अन्वेषा की।
वो अब उस कक्ष के भीतर कहीं मौजूद थी—नज़र नहीं आ रही थी, पर उसकी दर्दभरी आवाज़ गूंज रही थी।
वो आवाज अन्वेषा की थी
"अपूर्व...!"
"मैं... बदल रही हूँ..."
संदूक के अंदर था—
एक खून से सना दुपट्टा
मिट्टी में लिपटी डायरी
और एक आईना, जो टूटा हुआ था—लेकिन उसमें रुख़साना नहीं... अन्वेषा की झलक दिख रही थी।
अपूर्व ने आईना उठाया।
आईने में उसकी अपनी परछाईं नहीं थी।
केवल अन्वेषा का चेहरा...
और पीछे कोई और... एक बूढी महिला... उसकी माँ।
*अपूर्व धीमी आवाज में बोला -
“माँ?”
पर उसकी माँ की आँखें वैसी नहीं थीं।
वो आँखें जल रही थीं।
और उनके पीछे खडा था कोई तीसरा चेहरा—एक पुराना सेवक, जो पहले कभी नहीं दिखा था।
फरजाना ने कहा था—"ये हवेली सिर्फ आत्माओं की नहीं, विश्वासघात की भी कब्रगाह है।"
और तभी अचानक, आईना टूटकर ज़मीन पर गिरा—
और उसी के साथ हवेली की ज़मीन भी काँपने लगी।
एक दीवार फटी... और वहाँ से अन्वेषा की बाँह बाहर निकली—उसने अपूर्व का हाथ थामा।
"मुझे बाहर निकालो..." उसकी आवाज़ हड्डियों में घुल रही थी।
अपूर्व ने ज़ोर लगाया, लेकिन कोई शक्ति पीछे खींच रही थी।
“छोड़ो उसे!!”
वो चीखा।
लेकिन तभी एक आवाज आई—“रुख़साना को मुक्त किए बिना, कोई वापस नहीं जाएगा।”
और तभी...
पीछे से फिर से वही आवाज़ आई—
"अपूर्व..."
इस बार माँ की आवाज़ नहीं थी।
ये आवाज़... रुख़साना की थी।
अब अपूर्व उस दीवार में फँसा था—भविष्य और अतीत के बीच,
अन्वेषा और रुख़साना के बीच,
माँ और फरजाना की नियति के बीच।
और हवेली अब सिर्फ़ पुकार नहीं रही थी—
वो फैसला सुनाने को तैयार थी।
अपूर्व दीवार के भीतर खिंचता चला गया।
अंधेरा गाढा था—जैसे समय ने अपनी आंखें बंद कर ली हों।
लेकिन तभी एक तीव्र सफेद रोशनी फूटी और उसकी आँखें चौंधिया गईं। जब वो थोडा स्थिर हुआ, तो खुद को एक पुराने ज़माने की हवेली के बड़े दरबार में खडा पाया—पर ये हवेली वैसी नहीं थी जैसी वो जानता था। ये हवेली अब जीवित थी। सजी हुई, गुलाबों की खुशबू से भरी, और दरबार के बीचोंबीच बैठा था—
आग़ाज़ जावेद ख़ान।
काले शेरवानी में, तीखी आँखें, और एक चुप्प सी मुस्कान।
और वहाँ... घूँघट में बैठी थी रुख़साना—एक चमकीले लहंगे में, जिसके किनारों पर मोतियों की झालर लटक रही थी।
“शब-ए-तवायफ शुरू हो चुकी है, ख़ान साहब।”
एक बूढा सेवक बोला।
अपूर्व का दिल काँप गया।
वो बुदबुदाया - तवायफ?
तभी नाच शुरू हुआ—धीमी ताल पर, रुख़साना ने अपने पाँव आगे बढाये । उसकी चाल में नज़ाकत थी, लेकिन चेहरे पर एक वीरान शांति।
अपूर्व उस भीड में अकेला था, पर उसे कोई देख नहीं रहा था।
वो वक़्त के आईने में फँसा एक गवाह बन चुका था।
रुख़साना नाच रही थी... पर आँखें सिर्फ आग़ाज़ को देख रही थीं।
आगाज़ उठ खडा हुआ, और धीरे-धीरे रुख़साना के पास आया।
उसने कहा - “आज की रात सिर्फ़ नृत्य की नहीं... सौदे की है,”
“क्या मतलब, ख़ान साहब?” रुख़साना की आवाज़ धीमी थी।
“तुम अब से मेरी हो। मेरी तवायफ नहीं... मेरी रखैल।”
उसने एक काग़ज़ निकाला—उस पर दस्तख़त के निशान थे।
अपूर्व की सांसें थम गईं।
रुख़साना कांप उठी।
“मैंने तो समझा था... आप मुझसे मोहब्बत करते हैं।”
“मोहब्बत?”
आग़ाज़ हँसा—एक ठंडी, कटाक्ष भरी हँसी।
“मोहब्बत मेरे ख़ानदान के ख़ून में नहीं, रुख़साना। और तुझ जैसी—”
उसने वाक्य अधूरा छोड़ दिया।
रुख़साना की आँखों में आँसू नहीं थे—पर कुछ टूट गया था।
उस पल अपूर्व चीख पड़ा—“नहीं! ये सच नहीं हो सकता! आग़ाज़ ऐसा नहीं हो सकता!”
पर समय उसकी चीख नहीं सुनता।
अब दृश्य बदल चुका था—रुख़साना हवेली के एक कोने में बैठी थी, अकेली, काली चुनरी ओढे हुए।
और वहाँ आया एक नौजवान—नासिर।
उसके चेहरे पर ईमान था... और आँखों में बग़ावत।
उसने कहा - “चलो यहाँ से, रुख़साना। तुम कोई सामान नहीं हो।” उसने हाथ बढ़ाया।
रुख़साना ने धीरे से उसका हाथ थामा।
और यहीं... अपूर्व ने देखा—उन दोनों की रूहों का असली बंधन।
लेकिन... तभी एक ज़ोरदार धमाका हुआ।
दरवाज़े पर आग़ाज़ खडा था।
पीछे दो पहलवान ।
आगाज खान चीखा - “ग़द्दार!”
“मेरे नाम की तवायफ अब बग़ावत करेगी?”
नासिर ने रुख़साना के सामने खडे होकर कहा—“अगर तुम मर्द हो, तो सिर्फ़ मुझे मारो।”
और तभी दोनों पहलवानों ने नासिर को पकड लिया ।
अपूर्व ने देखा—नासिर को वो घसीटते हुए वहां से ले गए ।
रुख़साना की चीख हवेली की दीवारों में आज तक गूँज रही है।
रुख़साना को कभी आग़ाज़ से मोहब्बत नहीं थी।
वो उसकी तवायफ थी, जिसे जबरन उसकी जागीर बना दिया गया था।
मोहब्बत तो नासिर से थी।
और उसी मोहब्बत को आग़ाज़ की अहंकार ने मार दिया।
अब अपूर्व रो रहा था—घुटनों पर।
“तो मैं... एक ज़ालिम का पुनर्जन्म हूँ?”
उसके कानों में फिर एक आवाज गूँजी—“हर पुनर्जन्म एक मौका होता है—पर सुधार के लिए, नहीं दोहराने के लिए।”
तभी पीछे से एक परछाईं आई।
अन्वेषा।
लेकिन अब वो रुख़साना जैसी दिख रही थी—उसके चेहरे पर वही पीड़ा, वही कहानी।
“क्या तू अब भी सिर्फ़ सवाल करेगा, अपूर्व?”
उसने पूछा।
“या वक़्त है उस आत्मा को आज़ादी देने का, जो सिर्फ़ मोहब्बत माँगती थी... और मिली उसे सज़ा।”