रुखसाना ने अन्वेषा की तरफ इशारा किया और बोली -
“अगर तुम्हें उसे बचाना है, तो एक सौगंध खानी होगी।”
“कैसी सौगंध?” अपूर्व की साँसें थम गईं।
“तुम उस दरवाज़े को खोलोगे, जिसके पीछे मुझे दफ़न किया गया।
तुम मेरी मौत की पूरी सच्चाई दुनिया को बताओगे।
तुम वो इतिहास उजागर करोगे, जो हवेली में आज भी दफन हैं…
और जब तक वो पूरा सच सामने नहीं आता…
तुम यहाँ से बाहर नहीं जा पाओगे… न तुम… न वो।”
अपूर्व बुदबुदाया,
“मैं वादा करता हूँ…”
“मैं सब करूंगा… बस अन्वेषा को कुछ मत होने देना।”
रुखसाना की आँखें कुछ पल के लिए नरम हुईं।
अपूर्व फिर बोला - “उसने तुम्हारा प्यार नहीं छीना… उसे मत सज़ा दो…”
रुखसाना ने अपूर्व की ओर देखा—और पहली बार… मुस्कराई।
एक टूटती हुई, बुझती हुई मुस्कान।
“प्यार... सज़ा नहीं देता… लेकिन न्याय… इंतज़ार नहीं करता।”
अचानक उसकी छवि हवा में विलीन हो गई।
अंधकार फिर से गहराने लगा।
मंडल की रेखाएँ बुझने लगीं।
और उसी क्षण—
अन्वेषा की आँखें खुलीं।
वो बोली - “अपूर्व…?”
उसकी आवाज़ बहुत धीमी थी।
“मैं यहाँ हूँ,”
अपूर्व ने उसे कसकर पकड़ लिया।
वो बहुत थकी हुई थी, लेकिन ज़िंदा थी।
उसने अपूर्व को देखा और सिर्फ एक शब्द कहा—
“रुखसाना…”
अपूर्व ने सिर हिलाया।
“अब मैं समझ चुका हूँ… ये हवेली सिर्फ अतीत नहीं…
ये एक अधूरी अदालत है।”
वो दोनों उस अंधेरे तहख़ाने से बाहर निकले।
लेकिन जैसे ही उन्होंने ऊपर की सीढ़ी पर कदम रखा—
दरवाज़े के पास कोई खड़ा था।
एक औरत—सफेद साड़ी में, चेहरे पर घूँघट।
वो अन्वेषा नहीं थी… न रुखसाना।
अपूर्व ने धीरे से पूछा,
“कौन…?”
और तभी… हवा में एक धीमा स्वर गूंजा—
“बेटा… मैं तुम्हारी माँ हूँ…”
अपूर्व ने जैसे ही उस दिशा में देखा, जहाँ से आवाज़ आई थी—
“अपूर्व...”
वो आवाज़ उसकी माँ की थी। कोमल, जानी-पहचानी... और अब असंभव।
उसके कदम थम गए। सामने, धुंध के पार... उसकी माँ खड़ी थी।
उसी साडी में, जिसमें अपूर्व ने उन्हें आखिरी बार देखा था। चेहरे पर वही स्नेह, वही अपनापन, वही शांति...
“माँ?” अपूर्व की आवाज़ फटी हुई सी निकली।
वो धीरे-धीरे उनके पास गया, आँखें पसीने और आँसुओं से धुंधला रही थीं।
“तुम यहाँ... कैसे?”
उसने हाथ बढ़ाया... पर—
अचानक धुंआ उठा और उसकी माँ की छवि पिघलने लगी, जैसे वो किसी जलते हुए पर्दे में टंगी हो।
और उसी पल—
उसके पीछे एक नई छवि उभरी।
शरीर झुका हुआ, बाल बिखरे, चेहरा अधखिला... पर आँखें—बेहद जानकार।
“फरजाना...”
अपूर्व की सांस रुक गई।
वो वहीं खडी थी—जहाँ अभी उसकी माँ थी।
फरज़ाना ने एक काग़ज़ का टुकडा उसकी ओर बढाया । उस पर एक पुराना, धुंधला नक़्शा था—हवेली का। और उस नक़्शे में एक गोला बना हुआ था उस तहख़ाने के एक ऐसे हिस्से पर, जिसका कोई दरवाज़ा नहीं था।
फरजाना ने रहस्यमय आवाज में कहा, "उसे वहाँ ले जाया गया है, जहाँ रुखसाना की आत्मा को हमेशा के लिए क़ैद किया गया था। लेकिन वो आत्मा अब अकेली नहीं है।"
अपूर्व चीखा - "क्या मतलब?"
फरज़ाना मुस्कुराई—एक ख़ौफ़नाक, बुझी हुई मुस्कान।
"तुम्हारी माँ वहीं है, अपूर्व।"
उसके शरीर में जैसे बर्फ़ उतर गई।
वो बोला - "नहीं... मेरी माँ की तो..."
"मौत हुई थी?" फरज़ाना बीच में ही बोल पडी । "मौत... या गुमशुदगी? इस हवेली में दो ही चीज़ें होती हैं—या तो लोग खो जाते हैं, या खुद को खो देते हैं। तुम्हारी माँ ने दोनों किया। क्योंकि वो जान गई थी सच्चाई..."
अपूर्व ने पूछा - "कौन-सी सच्चाई?"
फरज़ाना अब उसकी आँखों में झाँक रही थी।
"कि इस हवेली को सिर्फ़ रुखसाना की आत्मा नहीं भटकाती। ये हवेली एक शापित प्रेम और एक झूठे इंसाफ़ की कब्रगाह है। और वो झूठ तुम्हारी रगों में बहता है, अपूर्व।"
फरजाना की आवाज अब और तेज हो गई थी - "क्योंकि तुम सिर्फ़ आगाज़ नहीं हो—तुम वो वारिस हो, जिसने उस सज़ा को उत्तराधिकार में पाया है।"
अपूर्व की साँसें तेज़ हो गईं।
"अगर मैं आगाज़ हूँ... तो मैं उस गुनाह का प्रायश्चित क्यों नहीं कर सकता?"
फरज़ाना ने सिर झुकाया।
"प्रायश्चित तब होता है जब माफ़ी माँगने वाला ज़िंदा हो... और माफ़ करने वाला मर चुका हो। पर यहाँ दोनों आधे-आधे हैं—आधी आत्मा, आधा शरीर, आधा इतिहास। ये हवेली कोई न्याय नहीं चाहती, अपूर्व... ये सिर्फ़ पुनरावृत्ति चाहती है।"
अपूर्व अब फर्श पर बैठ गया—बिलकुल टूट चुका था।
“मैं क्या करूँ?” उसने फुसफुसाते हुए पूछा।
फरजाना अब पास आकर झुकी।
“जो रुख़साना के साथ हुआ, उसे सही करो। तहख़ाने की दीवारें अब भी उसकी चीख़ें रोक कर रखे हुए हैं। उसे मुक्ति चाहिए... और मुझे भी।”
अपूर्व ने पूछा - “पर मैं कैसे भरोसा करूँ कि ये सब सच है?”
फरजाना अब बिलकुल पास आ गई।
उसने धीरे से कहा—
“क्योंकि... अब अन्वेषा मेरी तरह बदल रही है।
और अगर तूने देर कर दी...
तो वो भी सिर्फ छवि बनकर रह जाएगी।”
हवेली अब धीरे-धीरे फिर से गूंज रही थी।
कहीं से पायल की आवाज़... कहीं दरारों से उठती फुसफुसाहटें...
दीवारें हिल रही थीं।
और अन्वेषा कहीं दूर... धीरे-धीरे अदृश्य हो रही थी।
अब अपूर्व के पास वक्त नहीं था।
या तो वो इतिहास की उस दीवार को तोड़े...
या फिर वो भी बाकी परछाइयों की तरह... खामोश रह जाए।
वो चीखा -
“अन्वेषा!!”
अपूर्व की चीख हवेली की भीगती दीवारों में समा गई।
वो एक झटके में उठा और उस दिशा में दौडा, जहाँ अन्वेषा की छाया आखिरी बार दिखी थी। फरजाना अब वहाँ नहीं थी। उसके शब्द, उसकी भयावह मुस्कान और वो पुराना नक्शा… सब हवा में घुल चुके थे, जैसे कभी थे ही नहीं।
लेकिन हवेली अब ख़ामोश नहीं थी।
हर दीवार, हर कोना... जैसे जाग चुका था।
दरवाज़ा जिस तहख़ाने की ओर खुलता था, वो अब नहीं था। वहाँ सिर्फ़ एक सादी दीवार थी, लेकिन नक्शे पर गोला उसी जगह बना था।
अपूर्व ने कांपते हाथों से दीवार को छूआ—
ठंडी... गीली... और अचानक, कुछ धडकता हुआ।
“धक… धक… धक…”
जैसे दीवार के पीछे कोई दिल धडक रहा हो।
अपूर्व ने पीछे हटकर उस पर ज़ोर से मुक्का मारा।
फिर एक और।
दीवार की पपडी उखडने लगी... और एक पुरानी ईंट सरकती हुई बाहर आई।
अपूर्व फिर से चीखा -
“अन्वेषा...!”
उसका नाम अब अपूर्व की साँस में, खून में बदल चुका था।
दीवार धीरे-धीरे खुली, पर उसके पीछे कोई सीढिया नहीं थीं। वहाँ था—
एक कमरा।
या शायद एक "समय का कक्ष"।
दीवारों पर लटके थे धुँधले चित्र—पुरुष और स्त्रियाँ, पर उनके चेहरे अधूरे थे। एक चित्र में एक लडकी को ज़ंजीरों में कैद दिखाया गया था—वो रुख़साना थी। और ठीक उसके पीछे एक और चेहरा... जिसका चेहरा अन्वेषा से मिलता था।
अपूर्व की साँस रुकने को आई। वो बुदबुदाया - “नहीं... ये नहीं हो सकता...”
लेकिन तभी कमरे के बीच में, एक पुराना पलंग हिला।
उसके नीचे से आवाजें आई —
"सच्चाई अधूरी है..."
"मुक्ति अधूरी है..."
"तू भी अधूरा है..."
अपूर्व ने पलंग खींचा और नीचे देखा—
वहां एक लकडी का संदूक था ।
उस पर एक नाम उकेरा था—Aghaaz Javed Khan.