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दूसरे दिन प्रभात होने पर सारा तथा बाकी के तीन लोग आगे की यात्रा की सज्जता करने लगे। यात्रा के लिए निकलने वाले ही थे कि होटल मेनेजर ने सूचना दी, “रात्री को भी भूस्खलन हुआ था इसलिए अभी भी मार्ग बंद है। और आज भी बंद ही रहेगा।” सभी रुक गए।
‘एक और दिन इनके साथ व्यतीत करना पड़ेगा। कहीं इन लोगों के साथ आकर मैंने कोई भूल तो नहीं कि?’
सारा ने स्वयं से पूछा।
‘जो हो चुका है उसे बदल नहीं सकती हो तुम, सारा।’
‘तो अब क्या?’
‘समय की प्रतीक्षा करो, समय पर विश्वास करो। समय पर सब छोड़ दो’
सारा ने आगे सोचना छोड़ दिया। सारा ने उन तीनों से अंतर बनाये रखा। दिन व्यतीत हो गया।
तीसरे दिन सूचना मिली कि मार्ग खुल गया है। चारों चल पड़े, उस पहाड़ियों के मध्य बसी येला की शिल्प कार्यशाला की तरफ।
मार्ग में सारा ने कुछ विशेष बात नहीं की। वह बस पहाड़ों के सौन्दर्य को निहारती रही। बाकी तीनों ने खूब बातें की। सारा ने उसे सुना और सावध हो गई।
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“हमारे साथ कुछ अतिथि हैं जो आपकी शिल्प शाला देखना चाहते हैं।” सपन ने येला की शिल्पशाला में प्रवेश करते हुए कहा।
“शिल्पशाला अभी कुछ दिनों के लिए सभी के लिए बंद है।” उर्मिला ने कहा।
“क्यों?”
“यह येला का निर्णय भी है और आदेश भी।”
“किन्तु मैं तो यहाँ आता जाता रहता हूँ। तुम जानती हो ना?”
“यह आदेश सभी के लिए है, आप के लिए भी।”
“किन्तु मेरे अतिथि दूर से आए हैं। क्या उसे निराश होना पड़ेगा?”
“स्वाभाविक है।”
सपन ने निहारिका तथा सारा की तरफ देखा। निहारिका ने कुछ संकेत किया।
“अब यहाँ तक आए हैं तो कुछ सहायता कर दो हमारी।”
“कैसी सहायता?”
“पीछे के भाग में जो शिल्प है उस शिल्प का दर्शन करा दो। वह तो शिल्पशाला से बाहर है।”
“वह सतलुज नदीवाला?”
“वही। यदि ऐसा उत्तम शिल्प भी देख लेंगे तो मेरे अतिथि निराश नहीं होंगे।”
उर्मिला सपन के उस प्रस्ताव पर विचार करने लगी। कुछ समय पश्चात उसने कहा, “केवल वही शिल्प क्यों?”
“क्यों कि भीतर प्रवेश बंद है। वह शिल्प बाहर है, वह उत्तम है।”
उर्मिला कोई उत्तर दे उससे पूर्व किसी ने उर्मिला को संकेत दिया। उर्मिला ने उसे समझा।
“नहीं दे सकती मैं कोई अनुमति उस शिल्प को देखने की।”
“क्यों? कोई आपत्ति है क्या?”
“हाँ, है आपत्ति।” सभी ने उस स्वर की तरफ देखा। वह स्वर शैल का था। शैल को देखते ही सारा, सपन तथा निहारिका चौंक गए।
शैल ने सभी पर एक दृष्टि डाली। सारा उस दृष्टि को देखकर भयभीत हो गई। सारा उस दृष्टि का अर्थ भली भांति समझती थी।
“सारा, आप यहाँ क्या कर रही हो?”
“मैं तो इन लोगों के साथ ..।”
“तुम तो गंगटोक में किसी परिवार वाले से मिलने आई थी? हैं ना?”
“वह मुझसे मिलने आई है।” वकार ने उत्तर दिया।
“तुम्हारा घर तो गंगटोक में माल रोड के पीछे वाले महोले में है।”
“मैं तो उसे इन पहाइयों में ले आया था। यहाँ आने पर सपन सर तथा निहारिका जी ने कहा कि शिल्पशाला भी देखनी चाहिए।”
“असत्य कह रहे हो तुम। उसी शिल्प को विशेष रूप से देखने आए हो आप सब। क्या मैं ठीक कह रहा हूँ ना निहारिका जी?”
“यह विचार मेरा नहीं था। यह तो यहाँ आने के बाद वकार ने सुझाया था।”
“उस रात्री को सारा के कक्ष में सारा से मिलने आप और सपन ही गए थे ना?”
“तो आप सब जानते हैं।” निहारिका ने कहा।
“भारत की पुलिस की आँखें, कान तथा नाक की तीव्रता का आपको अनुमान ही नहीं है, निहारिका जी।”
शैल के शब्द सुनकर निहारिका और सपन मौन हो गए।
“आप यहाँ से चले जाओ। और पुन: कभी यहाँ आने का साहस भी नहीं करना।” निहारिका, सपन वकार तथा सारा वहाँ से जाने लगे।
“सारा जी। आप उनके साथ नहीं जाएंगे। आपको रुकना होगा।”
“क्यों? मैं तो उनके साथ ही आई थी।”
“स्मरण रहे कि आप भारतीय पुलिस के नेतृत्व में कार्यरत हो।”
“किन्तु मैं तो आधिकारिक अनुमति लेकर आई हूँ।”
“वह अनुमति मैंने ही दिलवाई थी, सारा जी।”
“और अब आप ही मुझे रोक रहे हो?”
“हाँ। क्यों कि जिस आधार पर अपने अनुमति मांगी थी वह आधार ही मिथ्या है।”
“यदि जानते थे कि आधार मिथ्या है तो अनुमति क्यों दी?”
“यदि अनुमति नहीं देते तो आपका यह रूप कैसे देख पाता?”
“तो अब क्या होगा सारा जी का?” निहारिका ने प्रश्न किया।
“आप अभी गई नहीं? आप हमारे कार्य क्षेत्र में प्रवेश करने की चेष्टा कर रही हो। इसका परिणाम जानती हो आप?”
“सारा हमारे साथ आई है।”
“किन्तु जाएगी मेरे साथ ही।”
“इंस्पेक्टर आप ..।”
“आप अपनी सीमा में रहें यही उचित होगा।”
“अन्यथा?”
“आपको बंदी बनाने में मुझे विलंब नहीं होगा।”
निहारिका समझ गई कि यहाँ से निकल जाने में ही भलाई है। तीनों चले गए।
शैल ने सारा के मुख पर एक दृष्टि डाली। सारा के मुख पर अभी भी ग्लानि के भाव थे। शैल ने कुछ नहीं कहा, एक कुर्सी पर बैठ गया, सारा को देखता रहा। सारा शीश झुकाए बैठी रही। शैल का मौन उसे विचलित कर रहा था, किन्तु वह विवश थी। बैठी रही।
समय का एक विशाल टुकड़ा व्यतीत हो गया। शैल सारा के धैर्य की परीक्षा ले रहा था और क्षण क्षण सारा विफल हो रही थी। अंतत: सारा ने धैर्य खोया।
‘जो भी परिणाम होगा, भुगत लूँगी। किन्तु इस तरह बैठे रहना अब असह्य हो गया है। इस क्षण को तोड़ना होगा। इस क्षण के भार से मुक्त होना होगा।’ सारा ने निश्चय कर लिया। वह उठी। शैल के समीप गई।
“मेरे अपराध के लिए मुझे जो भी दंड देना चाहो दे दो। मैं उसके लिए सज्ज हूँ।”
शैल ने कोई प्रतिभाव नहीं दिया।
“मैं मेरा अपराध स्वीकार करती हूँ। मुझे दंड दीजिए। मुझ पर क्रोध कीजिए। मुझे डाँटिए।”
“मैं ऐसा क्यों करूँ?”
“आपके मौन से बड़ा दण्ड कोई नहीं है। कृपा कर कुछ बोलिए। नहीं तो मैं घुटकर मार जाऊँगी।”
शैल अभी भी मौन रहा। उसने आँखें बंद कर ली। सारा अपराध के भार तले भावुक हो गई, रो पड़ी। शैल ने उसे रोते हुए देखा। रोने दिया।
जब रोकर सारा शांत हो गई तब येला ने उसे पानी दिया, रुमाल दिया। सारा ने स्वयं को स्वस्थ किया। येला उसे किसी कक्ष में ले गई। उसे भोजन दिया।
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