Spring still come in Hindi Short Stories by Rakesh Kaul books and stories PDF | बहारें फिर भी आती हैं

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बहारें फिर भी आती हैं

बहारें फिर भी आती हैं

आज सुबह थोड़ी देर से नींद खुली थी | आनंद तो अभी भी गहरी नींद में सो रहे थे | पलंग से उठकर मैं मुस्काते हुए गुसलखाने में दाख़िल हुई | आज से चार दिन पहले हमारी शादी हुई थी और कल शाम को ही हम हनीमून के लिए अल्मोड़ा पहुँचे थे | सुबह के ज़रुरी काम निपटा कर मैं हाथ में चाय का कप लेकर बालकनी में बैठी बाहर का नज़ारा देख रही थी | बाहर का दृश्य बहुत ही खूबसूरत नज़र आ रहा था | सामने ऊँचे-ऊँचे पहाड़, चारों ओर फैली हुई हरियाली और हौले-हौले बहती ठंडी हवा मौसम को और भी रूमानी बना रही थी | बहुत देर तक मैं बुत बनी ख़ामोशी से कुदरत की इस बेपनाह खूबसूरती को निहारती रही | बेख़ुदी के इस आलम में अनायास ही ज़ेहन अतीत के सफ़े पलटने लगा |  

पिछले बरस आज के ही दिन मैं बहुत ख़ुश थी और हूँ भी क्यों न, आख़िर उस दिन का मुझे एक लम्बे अरसे से इंतज़ार था जब मेरे ख्व़ाब हकीकत में तब्दील होने वाले थे | उस दिन मनोज के मम्मी-पापा हम दोनों की सगाई के लिए घर आने वाले थे । अत्याधिक खुशी की वजह से रात आँखों में ही गुज़र गई | रात भर भावी ज़िंदगी के हसीं ख्व़ाब आँखों के सामने घूमते रहे | सवेरे तड़के ही मेरी आँख खुल गई थी | बहुत देर तक मैं छत पर खड़ी चारों ओर फैली हरियाली निहारती रही । पत्तों पर ठहरी हुई पानी की बूँदें सूरज की रोशनी में मोती की तरह चमक रही थीं । रात भर हुई बारिश की वजह से सुबह की बहती हुई हवा हल्की सी ठंडक का एहसास करा रही थी । वह सुहावना मौसम मुझे आने वाले वक़्त के लिए शुभ संकेत जान पड़ रहे थे |

पिछले कई दिनों से माँ-बाबूजी सगाई की तैयारियों में मशगूल थे | एक बहुत बड़े परिवार  में मेरी सगाई हो रही थी जबकि हमारा तो एक मध्यमवर्गीय परिवार था | मनोज के पापा रिटायर्ड आई.ए.एस. अफ़सर थे | इस वजह से माँ को यह फिक्र खाए जा रही थी कि अपनी तरफ से अथक कोशिशों के बावजूद भी इंतज़ाम में कहीं कुछ कमी न रह जाए या उन्हें हमारी कोई बात बुरी न लग जाए | उस दिन सुबह से ही वे चक्करघिन्नी की तरह काम में लगी हुई थीं | मेहमानों की ख़ातिर-तवज्जो के लिए खान-पान का इंतज़ाम, घर के अन्दर और आस-पास की साफ़-सफाई, सभी के कपड़ों पर इस्त्री करना वगैरह सैकड़ों काम उनके ज़िम्मे थे | बेटी के उज्ज्वल भविष्य के लिए उन्होंने हनुमान जी से भी मन्नत माँग रखी थी कि सगाई का कार्यक्रम निर्विघ्न संपन्न हो जाए |

नियत वक़्त पर मनोज अपने मम्मी-पापा के साथ घर पहुँचे गए थे | हालाँकि मनोज और मैं पिछले तीन बरसों से एक दूसरे से मुहब्बत करते थे लेकिन यह पहला मौका था जब उसके मम्मी-पापा हमारे घर तशरीफ़ ला रहे थे | मैं भी उनसे पहली दफ़ा मिल रही थी | पहली ही मुलाक़ात में वे दोनों बहुत ही हँसमुख और खुशमिजाज़ नज़र आ रहे थे | वे दोनों मुझसे बहुत मुहब्बत से मिले | उन सबको मैं बहुत पसंद आई थी | उसकी मम्मी बार-बार मेरी ख़ूबसूरती की तारीफें करते नहीं अघा रही थीं | उनका कहना था कि अपने एकलौते बेटे के रिश्ते के लिए उनकी केवल एक ही तमन्ना थी – एक सुन्दर और प्यारी सी बहू और ईश्वर की कृपा से उनकी वह ख्वाइश पूरी हो गई थी | माँ-बाबूजी से बातचीत में मनोज के मम्मी-पापा ने साफ़ कर दिया था कि उनका आडम्बरों में यक़ीन नहीं था | लिहाज़ा शादी समारोह बहुत ही सादगी से होना चाहिए और उनकी तरफ से दहेज़ की किसी किस्म की कोई माँग नहीं थी | बस वे शादी ज़रा जल्दी चाहते थे | शुरुआती बातचीत और चाय-नाश्ते के बाद उन्होंने एक सादगी भरे माहौल में सगाई की रस्म अदा की | मेरे सारे सपने अब हकीक़त बन चुके थे | इतने अच्छे ख़ानदान में रिश्ता होने से मेरे तो पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे |

मेरा रिश्ता हो जाने से माँ-बाबूजी भी बहुत ख़ुश थे | सगाई हो जाने के बाद मनोज अब  कुछ ज़्यादा ही बेतकल्लुफ़ हो गए थे | वे अक्सर घर पर आने-जाने लगे थे और फिर हम कहीं न कहीं घूमने चले जाते थे – कभी सिनेमा, कभी रेस्त्राँ और कभी यूँ ही पार्क या नदी किनारे बैठे रहना | अगर बाहर जाने का मन नहीं होता था तो हम घर की छत पर जाकर तन्हाई में घंटों बैठे बतियाते रहते | सगाई के बाद से मैं ख़ुद में भी काफ़ी बदलाव महसूस कर रही थी | अब मुझे मनोज में बॉयफ्रेंड की जगह अपने शौहर का अक्स दिखने लगा था और मैं भी एक बीवी की तरह उन पर थोड़ा-थोड़ा हक़ जमाने लगी थी | अब उनकी हर कारगुज़ारियों पर मेरी पैनी नज़र रहती थी । हर शाम को मैं उनसे पूछताछ करती कि उन्होंने दिन भर क्या किया, कहाँ-कहाँ गए, किस-किस से मिले, कितना खर्च किया वगैरह-वगैरह । अब उनकी हर फिज़ूलखर्ची और बेमतलब इधर-उधर भटकना मुझे नागवार गुज़रता था और इनको लेकर कभी-कभी हमारे बीच तू-तू मैं-मैं भी होने लगी थी । आहिस्ता-आहिस्ता मैं ख़ुद को उनके परिवार का हिस्सा मानने लगी थी । सोने से पहले मनोज की मम्मी को फोन लगाकर उनकी ख़ैरियत पता करना मेरी रोज़ की दिनचर्या में शामिल हो चुका था । अब मुझे उस दिन का बेसब्री से इंतज़ार था जब मैं दुल्हन के रूप में मनोज के परिवार में दाखिल होऊँगी ।

इधर घर में शादी की तैयारियाँ ज़ोर-शोर से चल रही थीं । पिताजी ने तो दफ़्तर की मसरुफियत के चलते अपनी सारी जिम्मेवारियाँ माँ के ऊपर डाल दी थीं | उसको तो दम मारने की भी फ़ुर्सत नहीं थी | वो बेचारी हर किस्म की ज़िम्मेदारियों का बोझ अपने कंधों पर ढोए जा रही थी – चाहे घर का रंग-रौगन कराना हो, सभी के लिए कपड़े–लत्तों की खरीदारी हो, मैरिज गार्डन की बुकिंग हो या केटरर, फोटोग्राफर, पंडित, डेकोरेशन वगैरह  के ढेरों इंतज़ाम | मेरे लिए वह सारी खरीदारी अमूमन वीकेंड छुट्टियों पर ही करती थीं जिससे कि मैं भी उनके साथ जा सकूँ | वक़्त इतनी तेज़ी से बीत रहा था कि एहसास ही नहीं होता था कब सुबह होती थी और कब रात हो जाती थी | नई नौकरी होने की वजह से मैं भी ज़्यादा छुट्टियाँ नहीं ले पा रही थी | आख़िर शादी और उसके बाद के सैर-सपाटे के लिए भी तो कुछ छुट्टियाँ बचा कर रखनी थी |

इस बीच छुट्टी का एक ऐसा दिन भी आया जो बाक़ी दिनों के मुकाबले काफ़ी हल्का था | चूँकि माँ-बाबूजी को रिश्तेदारों से मिलने जाना था लिहाज़ा उस दिन खरीदारी की गुँजाइश नहीं थी | मैंने रात को ही पक्का इरादा कर लिया था कि अगले दिन सुबह मैं देर से उठूँगी और सारा दिन घर में ही आराम फरमाउँगी लेकिन किस्मत में कुछ और ही लिखा था | सुबह आठ बजे ही मनोज का फ़ोन घनघना उठा | जनाब ने किसी अच्छे रेस्त्राँ में दोपहर का खाना साथ खाने का प्रोग्राम बना लिया था | कुछ संकोचवश मैं उन्हें मना नहीं कर सकी | शायद इसके पीछे की एक बड़ी वजह ख़ुद मेरी भी उनसे मिलने की चाहत थी | माँ-बाबूजी तो सुबह क़रीब ग्यारह बजे ही अपने काम से निकल गए थे | उनके जाने के बाद मैं भी तैयार होकर क़रीब साढ़े बारह बजे स्कूटर से होटल के लिए रवाना हुई थी |

छुट्टी का दिन होने की वजह से सड़क पर ट्रैफिक काफ़ी कम था | आने वाली विपदा से बेख़बर मैं अपनी ही रौ में चली जा रही थी | मेरी आँखें तो सड़क पर थीं लेकिन दिलो-दिमाग़ कहीं और उलझा हुआ था | ज़ेहन में बार-बार मनोज का ख्याल आ रहा था | मुझे पूरा यक़ीन था कि अब तक वह रेस्त्राँ पहुँच चुके होंगे और मुझे वहाँ न पाकर मन ही मन बड़बड़ा रहे होंगे | मैं चौक चौराहे से आगे बढ़ी ही थी कि अचानक मुझे पीछे से एक ज़ोरदार टक्कर लगी | टक्कर के आघात से मैं उछल कर सड़क के किनारे लगी हुई रेलिंग से टकराकर लुड़कती हुई सड़क पर आ गई | उसी वक़्त पीछे से आ रही एक कार मुझे कुचलती हुई ऊपर से गुज़र गई | दुर्घटना का आघात इतना भीषण था कि मुझे सँभलने का मौका ही नहीं मिला और मैं उसी वक़्त अपने होश गँवा बैठी थी | उसके बाद क्या हुआ, कैसे हुआ मुझे कुछ भी ख़बर नहीं थी |

जब मेरी आँख खुली तो मैंने ख़ुद को अस्पताल के पलंग पर पड़ा पाया | उस वक़्त पूरे जिस्म में भयानक दर्द हो रहा था | बदन पर हर तरफ पट्टियाँ ही पट्टियाँ लिपटी हुई थीं | बाएँ हाथ में ग्लूकोस की बोतल लगी हुई थी और मेरे इधर-उधर तमाम मशीनें लगी हुई थीं | होश में आते ही मेरी आँखों के सामने कुछ देर पहले हुए हादसे का मंज़र घूम गया | मुझे होश में आया देख नर्स ने आवाज़ देकर डॉक्टर साहब को पुकारा जो उस वक़्त किसी और मरीज़ को देखने में मसरूफ थे | डॉक्टर ने क़रीब आकर मेरी जाँच की और मुझसे ख़ैरियत पूछी | उस हालात में मैं कुछ भी बोलने की हालत में नहीं थी | लिहाज़ा जवाब में किसी तरह पलकें झपका कर मैंने अपनी खैरियत बयाँ की थी | डॉक्टर ने इशारे से मुझे आराम करने की सलाह दी और दिलासा दिलाया कि सब कुछ ठीक हो जाएगा | थोड़ी देर बाद माँ-बाबूजी, जो शायद बाहर ही इंतज़ार कर रहे थे, मुझसे मिलने भीतर आए | माँ को देखते ही मेरा तो रोना ही छूट गया | आँखों से बहते आँसू रुकने का नामे ही नहीं ले रहे थे | अपनी प्यारी बेटी को इस अफ़सोसनाक हालत में देखकर उन दोनों का भी मेरे जैसा ही बुरा हाल था | गला रुँध जाने की वजह से माँ चाह कर भी कुछ बोल नहीं पा रही थी | उनसे जानकर मुझे हैरत हुई कि मैं पिछले चौबीस घंटों से बेहोश हूँ जबकि मुझे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे मेरा एक्सीडेंट अभी कुछ देर पहले ही हुआ हो | एक्सीडेंट के बाद किसी भलेमानुस ने अपनी कार में लाकर मुझे अस्पताल में भर्ती कराया था और उसी ने मेरी डायरी से फोन नंबर खोजकर घरवालों को इत्तिला की थी | माँ-बाबूजी के आने के बाद ही वह वापिस गया था | माँ-बाबूजी बमुश्किल दो-तीन मिनट ही वहाँ रुक पाए थे कि नर्स ने आकर उन्हें बाहर जाने का इशारा किया | शाम को मनोज भी मुझसे मिलने आए थे | मुझे इस हालत में देखकर वे काफ़ी दु:खी दिखाई दे रहे थे | उस दिन उन्होंने ज़्यादा बात नहीं की थी | आई.सी.यू में होने की वजह से वे चाह कर भी वहाँ ज़्यादा देर रुक नहीं सकते थे |

दूसरे दिन सुबह तड़के ही माँ मुझसे मिलने आई थीं | ज़ाहिर था कि वे अस्पताल में आई.सी.यू के बाहर ही कहीं सोई होंगी | उस वक़्त उन्हें कुछ ज़्यादा देर तक मेरे पास रुकने का मौका मिल गया | उनसे मुझे मालूम हुआ कि मेरा एक्सीडेंट बहुत ही भीषण था | यह तो कुछ ईश्वर की कृपा थी और कुछ माँ-बाबूजी का आशीर्वाद कि मैं उस हादसे में ज़िंदा बच पाई थी | जिस हालत में मैं अस्पताल में लाई गई थी उसमें डॉक्टरों को भी ज़्यादा उम्मीद नहीं थी | उनके मुताबिक़ अगले चौबीस घंटे काफ़ी नाज़ुक थे | बेटी की ज़िंदगी के लिए माँ रात भर हनुमान चालीसा का पाठ करती रहीं | शायद यह एक माँ की बेपनाह मुहब्बत ही थी जो मुझे मौत के मुँह से बाहर खींचकर ले आई थीं | एक बड़े इत्मिनान की बात यह थी कि इतनी ज़ोरदार टक्कर के बाद भी मेरा सिर एकदम महफूज़ था | थोड़ी-बहुत बाहरी सूजन के बावजूद भी वहाँ किसी किस्म के अंदरूनी चोट के निशाँ नहीं मिले थे | एक्सीडेंट के कारण मेरे बाज़ू और पैरों में कई हड्डियाँ फ्रैक्चर हो गई थीं | ख़ासकर दाएँ हाथ की हड्डियाँ बुरी तरह से चकनाचूर हो गई थी | साथ में कई जगह बड़े ज़ख्म भी पाए गए थे | हड्डियों में हुए मल्टीपल फ्रैक्चर के इलाज के लिए मेरा उसी दिन एक बड़ा ऑपरेशन होना था | ऑपरेशन का नाम सुनकर तो मैं बुरी तरह से घबरा गई थी | ज़िंदगी में पहली दफ़ा मैं ऐसे मुश्किल हालात का सामना कर रही थी | उस वक़्त माँ लगातार मेरा हौसला बढ़ाती रहीं | उनको हमेशा से हनुमान जी की शक्ति पर अटूट विश्वास रहा है | उन्होंने मुझे भरोसा दिलाया कि मेरी सलामती के लिए वे मेरे ऑपरेशन थियेटर से बाहर आने तक लगातार हनुमान चालीसा का पाठ करती रहेंगी और उनके आशीर्वाद से सब कुछ ठीक ही होगा | इस मुश्किल घड़ी में मुझे मनोज का बेसब्री से इंतज़ार था | उस वक़्त उसका साथ मेरे लिए बहुत ही अहम था | उसके इंतज़ार में मेरी नज़रें बार-बार दरवाज़े की ओर उठतीं और फिर मायूस होकर वापिस आ जातीं | इस बीच नर्सें बार-बार आकर मुझे ऑपरेशन के लिए तैयार करती जाती थीं | मनोज को अपने करीब न पाकर मैं काफ़ी मायूस महसूस कर रही थी | नियत वक़्त पर मुझे ऑपरेशन थियेटर के भीतर ले जाया गया | उस वक़्त माँ-बाबूजी का फीकी मुस्कराहट के साथ मुझे विदा करना आज भी मुझे अच्छी तरह से याद है | उस वक़्त मुझे ज़रा भी एहसास नहीं था कि वह मेरी आने वाली जद्दो-जेहत भरी ज़िंदगी की शुरुआत थी | ईश्वर की कृपा से मेरा वह ऑपरेशन कामयाब रहा था लेकिन साथ ही डॉक्टरों ने माँ-बाबूजी को आगाह भी किया था, “हादसे का सबसे बुरा असर मरीज़ के दाएँ हाथ पर हुआ है और चोट की वजह से वहाँ खून नहीं पहुँच पा रहा है | हम उसे ठीक करने की अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश कर रहे हैं | अगर बदकिस्मती से हमारी कोशिशें नाकामयाब रहती हैं तो बदतरीन सूरत में मरीज़ का हाथ काटने की नौबत आ सकती है | आप आहिस्ता-आहिस्ता मरीज़ को इसके लिए दिमाग़ी तौर पर तैयार करें | वह माँ-बाबूजी और मेरे लिए एक बड़े इम्तिहान की घड़ी थी | ऐसे हालात में मनोज की ग़ैरमौजूदगी मुझे बहुत खल रही थी | माँ-बाबूजी के बाद एक वही शख्स था जिस पर मैं सबसे ज़्यादा भरोसा कर सकती थी | उसका मुझसे मिलने के लिए न आने की वजह से ज़ेहन में नाना किस्म की आशंकाएँ पैदा हो रही थीं | मैंने कई बार माँ से मनोज के बारे में पूछना चाहा लेकिन हर दफ़ा वे मेरे सवालों को टाल जाती थीं | वे मुहब्बत से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहतीं, “बेटा, इस वक़्त मेरे लिए तुझसे बढ़कर दुनिया में कुछ भी नहीं है और मैं तेरे अलावा कुछ और सोच भी नहीं पा रही हूँ | तू ही मेरी ज़िंदगी है | मेरी तो ईश्वर से बस एक ही प्रार्थना है कि तू जल्दी से ठीक होकर घर आ जाए | बाक़ी सब हम बाद में देखेंगे |”

थोड़े दिनों में यह साफ़ हो गया कि डॉक्टरों के पास मेरा हाथ काटने के अलावा कोई और चारा नहीं बचा था | शुरुआत में मैं बहुत ही ज़्यादा नर्वस हो गई थी | हर तरफ अँधेरा ही अँधेरा नज़र आ रहा था | मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि इस तरह अपाहिज होकर मैं कैसे जी पाऊँगी | हर छोटे से छोटे काम के लिए मुझे दूसरों का मोहताज होना पड़ेगा | उस मुश्किल घड़ी में माँ-बाबूजी के साथ-साथ डॉक्टरों ने मेरी बहुत हौसलाअफज़ाई की और उनकी मदद से ही मैं उस अवसाद से बाहर निकल सकी थी | आहिस्ता-आहिस्ता  मुझे इस हकीक़त का एहसास होने लगा था कि इंसान की असल ताक़त तो उसके दिमाग़ में मौजूद रहती है | डॉक्टर और दवाइयाँ तो केवल जिस्म का इलाज करते हैं लेकिन दिमाग़ी मज़बूती के बगैर मरीज़ बीमारी के ऊपर जीत नहीं हासिल कर सकता है | मैंने पक्का इरादा कर लिया था कि मैं अब रोऊँगी नहीं और किसी भी सूरत में मुझे हालात से हार नहीं माननी है | ज़िंदगी की सबसे मुश्किल जंग मुझे हर कीमत पर जीतनी थी | साथ ही आगे की ज़िंदगी भी अपने बूते पर जीने का मैंने दृढ़ संकल्प कर लिया था | अपने दूसरे ऑपरेशन के लिए जाते वक़्त मेरी मन:स्थिति पहले के मुकाबले कहीं ज़्यादा बेहतर थी | ऑपरेशन के बाद जब मुझे होश आया तो अपने कटे हुए हाथ को देखकर कुछ देर के लिए तो मुझे ज़ोरदार आघात लगा था | आँखों से आँसू बहने लगे थे | दिल एक बार फिर से निराशा में डूबने लगा था लेकिन थोड़े ही देर में मैंने ख़ुद को बमुश्किल सम्भाला | मुझे अब ख़ुद को दिमाग़ी तौर पर कहीं ज़्यादा मज़बूत बनाना था जिससे कि मैं अपनी जिस्मानी कमी के बावजूद भविष्य की चुनौतियाँ का डट कर मुकाबला कर सकूँ |

अस्पताल में क़रीब सवा महीने गुज़ारने के बाद मैं घर वापिस आई थी | डॉक्टरों के मुताबिक़ मुझे पूरी तरह उबरने में कम से कम दो महीने का वक़्त और लगना था | यह नई ज़िंदगी मेरे लिए एक पुनर्जन्म के समान थी | जिस तरह से एक तूफ़ान अपने पीछे बर्बादी के अनेकों निशाँ छोड़ जाता है उसी तरह से यह हादसा मेरी ज़िंदगी में कई ज़ख्म छोड़ गया था – कुछ बाहर से दिखाई देते तो कुछ भीतर ज़ेहन में छिपे हुए थे | उन दिनों मुझे माँ-बाबूजी से यह मालूम हुआ कि अस्पताल में मेरे इलाज के शुरुआती दिनों में मनोज एक बार और मुझे देखने आए थे | उस वक़्त मैं सो रही थी इसलिए मुझे देखकर लौट गए | उसके बाद उन्होंने एक-दो बार टेलीफोन पर ही सेहत के बारे में जानकारी ली थी | जिस दिन से उन्हें मेरे हाथ कटने के बारे में ख़बर मिली थी उस दिन से उनके फ़ोन आना बंद हो गए थे | ज़ाहिर था कि अब मैं पहले जैसी खूबसूरत और आकर्षक नहीं रह गई थी | एक अपाहिज लड़की से ब्याह करके वे ज़िंदगी भर की मुसीबत मोल नहीं लेना चाहते थे | मनोज के इस बदले हुए रूख से मुझे बहुत तकलीफ़ पहुँची थी | पिछले कुछ महीनों में मैं जज़्बाती तौर पर उनके और उनके परिवार के बहुत नज़दीक आ चुकी थी | उनको मैं अब अपने वजूद का अहम हिस्सा मानने लगी थी | ऐसा कोई दिन नहीं जाता था जब हम दोनों न मिलते हों | अपनी ज़िंदगी की हर छोटी से छोटी बातें, अपनी हर खुशी और हर ग़म मैं उनसे साझा किया करती थी | मेरी भावी ज़िंदगी की हर कल्पना में वे शामिल हुआ करते थे | मुझे उन पर पूरा भरोसा था कि एक अच्छे दोस्त की तरह वे ज़िंदगी के हर अच्छे-बुरे वक़्त में मेरे साथ खड़े रहेंगे और यही भावना एक दाम्पत्य रिश्ते का मज़बूत आधार होती है | जब वह आधार ही ख़त्म हो गया हो तो ऐसे बेईमान रिश्ते का क्या मतलब | ऐसा कहा जाता है कि आप ग़ैरों से तो लड़ सकते हो लेकिन अपनों से मिली बेरुख़ी इंसान को बहुत गहरे ज़ख्म देती है जो शायद ऊपर से तो नज़र नहीं आते हैं लेकिन भीतर ही भीतर इंसान को खाए जाते हैं |

इस कड़वी हकीक़त के बावजूद बुरे वक़्त का एक खूबसूरत पहलू यह भी है कि वह इंसान को भीतर से और शक्तिशाली बना देता है जिससे कि वह दुश्वारियों का हिम्मत से मुकाबला कर सके | मेरे साथ हुए हादसे ने भी मुझे जज़्बाती तौर पर पहले के मुताबिक़ कहीं ज़्यादा मज़बूत बना दिया था | जिस्मानी और जज़्बाती तौर पर काफ़ी कुछ गँवाने के बावजूद भी मेरा आत्म-विश्वास अभी भी कायम था | मुझे इस बात का एहसास हो चुका था कि आप अतीत के कैदी बनकर भविष्य की ओर कदम नहीं बढ़ा सकते हो | इसलिए मैंने मनोज की तरफ से मिले दर्द को दरकिनार करते हुए ज़िंदगी में आगे बढ़ने का फैसला किया | मुझे पूरा यक़ीन था कि मैं जल्द ही अपने पैरों पर ज़रुर खड़ी हो पाऊँगी | इस सकारात्मक नज़रिए और आत्मविश्वास की वजह से आहिस्ता-आहिस्ता मेरी सेहत बेहतर होती गई और आख़िरकार एक वक़्त ऐसा भी आया जब मैं बिना किसी की मदद के चलने-फिरने लगी थी | शुरुआत में दाएँ हाथ की कमी बहुत खलती थी | हर काम काफ़ी मुश्किल जान पड़ता था | लेकिन वक़्त बीतने के साथ कुछ न कुछ रास्ते निकलते गए | मैंने अपने सभी काम बाएँ हाथ से करने की आदत डाल ली थी | काम करने में थोड़ा ज़्यादा वक़्त ज़रुर लगता था लेकिन अब मैं किसी और की मोहताज नहीं थी | मेरा खोया हुआ हौसला अब मुझे वापिस मिल गया था | यह पहला मौका था जब मुझे यह एहसास हो चला था कि अब मेरी मंज़िल दूर नहीं है | हौले-हौले ज़िंदगी अपने ढर्रे पर वापिस लौट रही थी |

सेहत की बेहतरी के साथ शायद मेरा मुकद्दर भी करवट ले रहा था | मेरी कम्पनी ने मुझे फिर से नौकरी ज्वाईन करने की इजाज़त दे दी थी | नौकरी ज्वाईन करने के बाद तो मेरी ज़िंदगी ही बदल गई थी | अब मैं फिर पहले की तरह रोज़ सुबह जल्दी तैयार होकर के लिए निकलने लगी थी | स्कूटर न चला पाने के कारण मैं अब बस से ही दफ़्तर आती-जाती थी | दफ़्तर में सभी साथी बहुत अच्छे से मिले थे | वे सब मेरा बहुत ख्याल रखते थे | काम के बीच साथियों से होने वाली गुफ़्तगू और हँसी-मज़ाक की वजह से मैं अब काफ़ी हल्का महसूस करने लगी थी | इसी दौरान मेरा आनंद से परिचय हुआ | वह हाल ही में चेन्नई ब्रांच से ट्रान्सफर होकर यहाँ आया था | आनंद बहुत ही हँसमुख और खुशमिजाज़ था | बहुत ही कम समय में उसकी दफ्तर में सबसे जान-पहचान हो गई थी | मुझे याद है जब उसने ख़ुद ही आगे बढ़कर अपना परिचय दिया था | वह मुझसे क़रीब दो-तीन बरस जूनियर था लेकिन हम बहुत जल्दी ही अच्छे दोस्त बन गए थे | सुबह और शाम की चाय हम अक्सर साथ लेते थे | आहिस्ता-आहिस्ता वह अपनी ज़िंदगी के ज़ाती पहलू भी मेरे साथ साझा करने लगा था | उसका मुस्कुराता हुआ चेहरा देखकर कोई अंदाजा भी नहीं लगा सकता था कि उसके ज़ेहन में इतना दर्द छुपा है | कुछ महीने पहले ही उसके माता-पिता की एक सड़क हादसे में दर्दनाक मौत हो गई थी | अपने माँ-पिताजी दोनों को एक झटके में गँवा देने से वह कुछ दिनों के लिए गहरी निराशा में डूब गया था | एक लम्बे इलाज और काफ़ी कोशिशों के बाद ही वह इससे उबर पाया था | शायद हम दोनों में एक किस्म का दर्द का रिश्ता कायम हो चुका था | आनंद मेरी ज़िंदगी में एक ठंडी हवा के झोंके की तरह आया था | उसकी बातों में न जाने कैसी कशिश थी कि कुछ ही दिनों में ऐसा लगने लगा था मानो हमारा बरसों पुराना साथ है | उसके साथ ने मेरे भीतर मौजूद ज़ख्मों पर एक जादुई मलहम की तरह काम किया था | एक अच्छे दोस्त की तरह वह रोज़ दफ़्तर जाते वक़्त मुझे घर से लेते हुए जाता और वापसी में भी हम साथ ही आते | एक दिन दफ़्तर से वापिस आते वक़्त उसने अचानक अपनी कार सड़क के किनारे खड़ी कर दी | मैं समझ न पाई कि आख़िर माजरा क्या है | आनंद ने अपने चिर-परिचित मज़ाकिया अंदाज़ में मुझसे पूछा, “क्या तुम मेरी शरीके-हयात बनना पसंद करोगी ?” उसके अचानक इस अजीबो-ग़रीब तरीक़े से प्रपोज़ करने से मैं हतप्रभ रह गई थी | मेरे ज़ेहन में अपनी जिस्मानी कमी का एहसास और उस पर मनोज की बेरुख़ी का बर्ताव अभी तक कायम था | मैं दुबारा इस प्रकार से अपमानित होना नहीं चाहती थी | किसी तरह अपनी हिम्मत बटोरते हुए मैंने जवाब दिया, “आनंद, तुम होश में तो हो ? क्या तुम्हें मेरी हालत दिखाई नहीं दे रही है ? ज़िंदगी के इतने अहम फैसले जल्दबाज़ी में नहीं लिए जाते हैं | हम दोनों बहुत अच्छे दोस्त ज़रुर हैं लेकिन मैं नहीं चाहती कि हमारे रिश्तों का आधार सहानुभूति हो | अपनी अपंगता की वजह से मैं तुम पर ताउम्र बोझ बन कर नहीं रहना चाहती |” मेरी बात सुनकर आनंद का चेहरा काफ़ी संजीदा दिखने लगा था | मेरी बात ख़ामोशी से सुनने के बाद उसने बहुत ही संयत आवाज़ में जवाब दिया, “प्रिया, मेरी यह पेशकश कोई जल्दबाज़ी या सहानुभूति में लिया गया फैसला नहीं है बल्कि बहुत सोच-विचार करने के बाद ही मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ | पिछले कुछ महीनों में हम एक दूसरे के अच्छे दोस्त बन चुके हैं | तुम्हारे साथ में मुझे सुकून का एहसास होता है | इस दौरान मुझे अपने भीतर से यह महसूस हुआ है कि यही वह लड़की है जिसकी मुझे तलाश है | मैं आज ईमानदारी से कुबूल करता हूँ कि मैं तुमसे दिली मुहब्बत करने लगा हूँ | मैं प्रिया से इसलिए नहीं मुहब्बत करता हूँ कि वह जिस्मानी तौर पर बहुत खूबसूरत है बल्कि इसलिए कि वह अंदरूनी तौर पर भी बहुत ही सरल, मुहब्बती और ग़ैरतमंद इंसान है | मुझे प्रिया उसकी हर ख़ूबी और हर कमी के साथ कुबूल है | मेरी खुशकिस्मती होगी अगर तुम मुझे अपने लायक समझोगी |” आनंद के अल्फाज़ों ने मुझे निरुत्तर कर दिया था | मुझे भी यह एहसास हो चला था कि आनंद ही वह शख्स है जिसने प्रिया को पहचाना था, उसके जज़्बातों को महसूस किया था | मेरी आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली थी | इस अश्रुधारा के साथ ही मैंने मुस्कुराते हुए आनंद का हाथ हौले से दबाते हुए अपनी ख़ामोश रज़ामंदी ज़ाहिर कर दी थी |”

अचानक अपनी पीठ पर आनंद का स्पर्श महसूस करते ही मेरे ख़्यालों का सिलसिला टूट गया और मैं पिछले एक बरस का सफ़र पूरा करके अपने खूबसूरत वर्तमान में दाख़िल हो गई थी |