Galti ka ehsaas in Hindi Short Stories by Rakesh Kaul books and stories PDF | ग़लती का एहसास

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ग़लती का एहसास

ग़लती का एहसास

 

बस के झटके के साथ रुकने से एकाएक मेरे विचारों का सिलसिला टूट गया | आख़िरी स्टॉप होने की वजह से सारी सवारियाँ उतर रही थीं | मुझे तो एक स्टॉप पहले ही उतरना था लेकिन अपने ही ख्यालों में खोए रहने की वजह से एहसास ही नहीं हुआ कि कब मेरा स्टॉप निकल गया | बस से उतर कर एक रिक्शा कर लिया | बस स्टॉप से घर करीब ही था | पाँच-दस मिनट में घर पहुँच गई | फ्लैट का ताला खोल कर भीतर दाख़िल हुई | बेडरूम पूरी तरह से अस्त-व्यस्त पड़ा था | सुबह जाने की आपाधापी में कपड़े बिस्तर पर ही छोड़ गई थी | साथ में धुले हुए कपड़े भी बेतरतीब फैले हुए थे | बेमन से गंदे कपड़ों को धुलने के लिए मशीन में डाला और साफ़ कपड़ों को तह करके  अलमारी में रखा फिर कपड़े बदल कर एक प्याला चाय लेकर बैठ गई |

चार-पाँच दिनों से घर में अकेली हूँ | स्कूल की छुट्टियाँ होने की वजह से राहुल अपनी नानी के घर गया हुआ है और आज की रात वह वहीं रहेगा | दिन भर ऑफिस की चिक-चिक से सिर भारी हो रहा है, लेकिन घर में प्यार के दो बोल बोलने वाला कोई नहीं है | घर और बाहर के सारे मसले मुझे ख़ुद ही निपटने हैं | आज सुबह से ही तबियत कुछ भारी लग रही है | दिन भर जो भी काम करती कुछ न कुछ गलती हो ही जाती है | आख़िरकार शाम को बड़े बाबू की झाड़ भी सुननी पड़ गई | बहुत झुँझलाते हुए वे मुझ पर बरस पड़े थे, “सरिता, तुम्हारा दिमाग़ आजकल कहाँ रहता है | हर नोटिंग में कुछ न कुछ गलती कर रही हो | इस फाइल में तो तुमने हद ही कर दी है – कहीं और की काटी हुई इबारत यहाँ चिपका दी | जानती हो यह फाइल डायरेक्टर साहब तक जानी है | अगर यह फाइल आगे चली जाती तो मुझे उनके सामने कितना शर्मिन्दा होना पड़ता | इसे जल्द से जल्द ठीक करके लाओ |” पिछले दो बरसों में यह पहला मौका था जब बड़े बाबू ने मुझसे इतने तल्ख़ अंदाज़ में बात की थी | उनके इस बर्ताव से मुझे काफ़ी तकलीफ़ हुई थी, लेकिन अपनी गलती होने की वजह से मुझे ज़हर का कड़वा घूँट पीकर उनसे माफ़ी माँगनी पड़ी | हालाँकि मुझे घर के लिए देर हो रही थी लेकिन देर तक आफ़िस में रुक कर फाइल ठीक करके ही मैं घर वापिस लौटी |

आज चार अक्तूबर की तारीख़ है – हमारी शादी की सालगिरह | दो बरस पहले तक हम यह दिन कितनी खुशी से मनाते थे | इस दिन हम दोनों अपने-अपने ऑफिस से छुट्टी ले लेते थे | सुबह से ही मौज-मस्ती की शुरुआत हो जाती थी | इस दिन हम जल्दी ही कहीं बाहर निकल जाते थे – कभी सिनेमा, तो कभी चिड़ियाघर तो कभी ऐसे ही लंबी ड्राइव पर | रात का खाना तो हम बाहर किसी होटल या ढाबे पर ही खाते थे | आज मैं जब पीछे मुड़ कर देखती हूँ तो ऐसा लगता है जैसे मेरी हँसती-खेलती गृहस्थी को किसी की नज़र लग गई हो | देखते ही देखते इन दो बरसों में मेरी ज़िंदगी कहाँ से कहाँ आ गई है |

राजू और मैं एक ही स्कूल में पढ़ते थे | आहिस्ता-आहिस्ता हम कब एक दूसरे को पसंद करने लगे पता भी नहीं चला | स्कूल से निकलने के बाद हमारा दाख़िला अलग-अलग कॉलेजों में कराया गया, लेकिन हमारा मिलना-जुलना बदस्तूर जारी रहा | ऐसे ताल्लुक़ात कहीं छिपते हैं भला | बहुत जल्द ही यह बात आग की तरह दोनों परिवारों में फैल गई | हमारे अलग-अलग मज़हबों की वजह से दोनों घरवाले इस रिश्ते के सख्त ख़िलाफ़ थे | मेरे घर से निकलने पर भी पाबंदी लगा दी गई | राजू को भी तरह-तरह की धमकियाँ दी गई, लेकिन ये सब दुश्वारियाँ हमारी मुहब्बत को कम न कर सकीं | उल्टे, ये मुश्किलातें हमारे जज़्बे को और भी मज़बूत बना रही थीं | हमें इस बात का इल्म था कि अपनी मर्जी से शादी करने की सूरत में हमें अपने परिवारों से किसी भी किस्म की मदद की उम्मीद नहीं करनी चाहिए | ऐसे हालात में यह बहुत अहम था कि ऐसा कुछ कदम उठाने से पहले हम अपने पैरों पर खड़े हो जाएँ इसलिए हमने इन परेशानियों का असर अपनी पढ़ाई पर नहीं पड़ने दिया और ग्रेजुएशन पूरा करते ही हम नौकरी की तलाश में जुट गए | शुरुआत में हमने शहर में ही छोटी-मोटी नौकरी करनी शुरू की, जिससे कि हमारे रोज़ाना के छोटे-मोटे खर्चे निकल जाते थे | साथ में एक अच्छी नौकरी के लिए हमारी कोशिशें जारी रहीं | करीब डेढ़-दो बरस की जद्दो-जेहत के बाद राजू को एक सरकारी महकमे में अकाउंटेंट के पद पर नौकरी मिल गई | हालाँकि तनख्वाह मामूली थी लेकिन इससे एक साधारण ज़िंदगी आसानी से जी जा सकती थी | साथ ही कई तरह की सहूलियतें भी थीं – रहने के लिए सरकारी क्वार्टर, परिवारजनों के इलाज़ के लिए मेडिकल सुविधा वगैरह और रिटायरमेंट के बाद पेंशन और सबसे अहम बात थी - स्थायित्व | यहाँ नौकरी छूटने का कोई डर नहीं था |  

राजू के नौकरी मिलने के छह महीने बाद हमने कोर्ट मैरिज कर ली | उम्मीद के अनुरूप शादी में दोनों परिवारों में से कोई भी शख्स शरीक नहीं हुआ था | शादी के बाद के शुरूआती दिन बहुत ही ख़ुशगवार थे | ऑफिस से लौटकर हम अपना ज़्यादातर वक़्त साथ ही गुज़ारते थे | बहुत बेफिक्री और सुकून भरे दिन थे वे | हम दोनों हर वक़्त एक दूसरे में ही खोए रहते | कम आमदनी के बावजूद भी ज़िंदगी में बहुत सुकून था | सुबह से कब शाम और फिर शाम से सुबह हो जाती, एहसास  ही नहीं होता | राजू भी घर के हर छोटे-बड़े कामों में मेरा हाथ बँटाते थे | उस वक़्त तो मुझे खाना पकाने की भी समझ नहीं थी जबकि दूसरी ओर राजू न केवल अच्छे खाने के शौक़ीन थे, बल्कि उन्हें खाना पकाने में भी महारत हासिल थी | खाना चाहे वेज हो या नानवेज, राजू उसे बड़े चाव से बनाते | पाक कला की बारीकियाँ मैंने उनसे ही सीखीं | इसी तरह हँसते-हँसाते तीन बरस कैसे बीत गए पता ही नहीं चला | शादी के करीब तीन बरस के बाद राहुल हमारी ज़िंदगी में आया | ऐसा लगा जैसे कि ईश्वर ने मेरा दामन तमाम खुशियों से भर दिया हो | नन्हे बेटे की किलकारियों और मासूम शरारतों को देखकर जो दिली ख़ुशी मिलती उसके सामने दुनिया की बड़ी से बड़ी नेमतें भी फीकी हैं |

लेकिन ज़िंदगी की हर ख़ुशी अपने साथ ज़िम्मेदारियाँ भी साथ लाती है | राहुल की पैदाइश के बाद मेरे ऊपर जिम्मेदारियों का बोझ कई गुना बढ़ गया था | राहुल रात भर जगाए रखता जबकि दिन भर घर-गृहस्थी के काम तो करने ही होते थे | पूरे चौबीस घंटे घर की ड्यूटी लगी रहती थी – न रात में सुकून मिलता और न ही दिन में चैन नसीब होता | इस बीच राजू को पहली तरक्की मिल गई थी | तरक्की के साथ उन पर दफ़्तर की ज़िम्मेदारियों का बोझ भी काफ़ी बढ़ गया था | पहले के बनिस्बत वे अब दफ्तर में कहीं ज़्यादा मसरूफ़ रहने लगे थे | बीच-बीच में उन्हें सरकारी काम से दौरों पर भी जाना होता था | अब वे अक्सर शाम को देर से थके-हारे घर लौटते थे | खाना खाते ही बिस्तर पर जाकर सो जाते | मुझे उनसे उम्मीद रहती कि वे पहले की तरह घर-गृहस्थी के कामों में मेरा हाथ बटाएँ या मैं उनके करीब बैठ कर दिन भर के दुःख-सुख बाँटू लेकिन उनका टका सा जवाब होता कि ऑफिस से आकर उनसे घर-गृहस्थी का कोई काम नहीं हो पाएगा | देखते ही देखते मेरी मैटरनिटी छुट्टी ख़त्म होने को आई | मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसे हालात में मैं अकेली घर और ऑफिस दोनों की ज़िम्मेदारियाँ कैसे सँभाल पाऊँगी | ऊपर से राजू को यह मंज़ूर नहीं था कि राहुल को पालना घर में रखा जाए | हार कर मुझे अपनी नौकरी से इस्तीफ़ा देना ही पड़ा, जिसका मुझे हमेशा मलाल रहा है | मुझे महसूस होता रहा कि अगर उन दिनों राजू ने मेरा साथ दिया होता तो मुझे नौकरी यूँ न गँवानी पड़ती | कई दफ़ा मन में यह ख्याल आता कि औरत से यह उम्मीद की जाती है कि वह नौकरी के साथ घर-गृहस्थी की सारी जिम्मेदारियाँ बदस्तूर निभाए जबकि मर्द तो सिर्फ़ दफ्तर जाकर थकान से इतना चूर हो जाता है कि उससे किसी भी किस्म की मदद की उम्मीद नहीं की जा सकती है | अगर उसने कभी थोड़ा-बहुत घर का काम कर दिया तो यह उसका बीवी पर एहसान होता है, न कि उसकी ज़िम्मेदारी | इन सबके बावजूद भी जब परिवार के लिए कुर्बानी देने की बात आती है तो वह हमेशा औरत के हिस्से ही आती है | क्या उसके कोई शौक़ और जज़्बात नहीं होते हैं | क्या उसे अपने तरीक़े से ज़िंदगी जीने का कोई हक़ नहीं |

आहिस्ता-आहिस्ता यह कुंठा मेरे दिल में बढ़ती जा रही थी, जो अक्सर किसी न किसी शक्ल में फूट कर बाहर आ जाती थी | हमारे बीच होने वाले मामूली वाद-विवाद अक्सर झगड़े में तब्दील हो जाते | कई दफ़ा तो मैं बिलावजह राजू पर बिफ़र उठती थी | शुरुआत में तो राजू मुझे किसी न किसी तरह मना कर शांत कर लेते या फिर झगड़े से बचने के लिए घंटों घर के बाहर बाहर टहलते रहते लेकिन वे भी आख़िर कब तक सहते | एक दिन उनका सब्र जवाब दे गया | इसका असर यह हुआ कि अब वे मेरे आरोपों के जवाब में प्रत्यारोप लगाने लगे | आहिस्ता-आहिस्ता हमारे बीच होने वाली नोंक-झोंक अब कहीं ज्यादा उग्र झगड़ों में तब्दील होने लगी थी, जिसकी आवाज़ अक्सर घर की चाहरदीवारी लाँघ कर बाहर चली जाती थी | कई मर्तबा तो उनकी ज़बान काफ़ी तीखी हो जाती जो दिल को भीतर तक छलनी कर जाती थी | एक दिन तो हद ही हो गई जब उन्होंने ऐसी ही झगड़े के दौरान मेरी परवरिश पर ही संगीन सवाल खड़े कर दिए | उनका आरोप था कि मेरे बुरे बर्ताव और बद्ज़बानी की असल वजह मेरे माँ-बाबूजी के द्वारा दिया गए ग़लत संस्कार थे | उन्हें इस बात का भी पछतावा था कि क्यों उन्होंने अपने वाल्देन से बगावत करके मुझ से शादी की | अगर माँ-बाप की पसंद की लड़की से शादी की होती तो उनकी ज़िंदगी यूँ जहन्नुम न बन जाती |

उनके ये अल्फाज़ दिल पर नश्तर की तरह लगे थे | इतना सब सुनने के बाद मेरा उस घर में एक मिनट भी रुकना नामुमकिन हो गया था | उस वक़्त ज़िंदगी में पहली बार मैं ख़ुद को इतना बेबस और बेसहारा महसूस कर रही थी | चारों तरफ़ अँधेरा ही अँधेरा दिखाई दे रहा था | एक बार दिमाग़ में ख्याल आया कि ऐसी ज़िल्लत भरी ज़िंदगी से तो अच्छा है अपनी जान ही दे दूँ लेकिन दूसरे ही लम्हे भीतर से आवाज़ आई, “अब तू अकेली नहीं हैं | तू राहुल को किसके भरोसे छोड़ कर जा रही है | तू तो मर कर आज़ाद हो जाएगी लेकिन तेरे पीछे राहुल की न जाने कैसी दुर्दशा होगी | इससे तो बेहतर है माँ-बाबूजी के घर वापिस जाना | हो सकता कि वहाँ उनकी खरी-खोटी सुननी पड़े, लेकिन वह भी यहाँ के माहौल में रहने से कहीं बेहतर होगा |” इंसान अच्छे वक़्त में चाहे माँ-बाप की कद्र करे या न करे लेकिन बुरे वक़्त में उसे सिर्फ़ माँ-बाप का ही सहारा नज़र आता है | यह एक सच्चाई है कि दुनिया में केवल माँ-बाप ही औलाद की हर हाल में निस्वार्थ भाव से मदद करते हैं, चाहे औलाद कितनी भी नालायक और ख़ुदगर्ज़ क्यों न हो और ऐसा ही हुआ - थोड़ी देर डाँटने के बाद माँ-बाबूजी का दिल पिघल गया और इस तरह मुझे मायके में आसरा मिल गया | यह मेरी ज़िंदगी की नई लेकिन मुश्किल पारी की शुरुआत थी |

थोड़ी कोशिशों के बाद मुझे अपनी पुरानी कम्पनी में फिर से नौकरी मिल गई जिससे कि हम दोनों माँ-बेटों का किसी तरह गुज़ारा हो जाता था | मायके के क़रीब ही मैंने एक छोटा सा फ्लैट किराए पर ले लिया था | राहुल स्कूल से आकर सीधे अपने नाना-नानी के घर चला जाता था और शाम को मैं ऑफिस से आकर उसे घर वापिस ले आती थी | हमारे पारिवारिक कलह का सीधा असर राहुल पर हो रहा था | पहले हमेशा उधम और शोरगुल मचाने वाला बच्चा अब काफ़ी सहमा-सहमा सा रहता था | स्कूल से आने के बाद से उसका ज़्यादातर वक्त घर के भीतर ही गुज़रता था | उसका मोहल्ले के बच्चों के साथ पार्क में जाकर खेलना क़रीब-क़रीब बंद सा हो गया था | स्कूल में भी टीचर शिकायत करती थीं कि राहुल अब पहले की तरह दर्जे में सक्रिय नहीं दिखता है | उसकी दर्जे में पोज़िशन भी काफ़ी नीचे आ गई थी | उसके मासूम चेहरे को देखकर तरस आता है कि किस तरह माँ-बाप के बीच के झगड़े की वजह से उसका मासूम बचपन कहीं खोता जा रहा था | कई दफ़ा मैं उसकी पसंद के पकवान बना कर खिलाती, बाज़ार से अलग-अलग किस्म के खिलौने लाकर देती जिससे किसी तरह से उसके चेहरे पर मुस्कराहट ला सकूँ लेकिन मेरी ये सारी कोशिशें नाकाम साबित हो रही थीं |

मेरे राजू से अलग होने के बाद से हालाँकि ऊपर से सब कुछ ठीक-ठाक जान पड़ता था लेकिन माँ-बाबूजी और ख़ासकर भईया मेरे प्रति राजू के बर्ताव से बेहद ख़फा थे | उन सबका कहना था कि राजू के हाथों इतनी बेइज्ज़ती सहने के बाद तो मुझे ऐसे शख्स के साथ सारे रिश्ते-नाते तोड़ लेने चाहिए | हमारे रिश्तों में इतनी कड़वाहट आ जाने के बावजूद मैं अभी भी उनसे दिल से जुड़ी हुई थी और मुझे उम्मीद थी कि एक न एक दिन उन्हें अपनी गलती का एहसास ज़रुर होगा और वे मुझे वापिस लेने आएँगे लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा था | जैसे-जैसे वक़्त बीतता जा रहा था मेरी उम्मीदें भी आहिस्ता-आहिस्ता बुझती जा रही थीं | उधर घरवालों का मुझ पर राजू से तलाक़ लेने का दबाव बढ़ता जा रहा था | आखिरकार उन सबके दबाव के आगे मुझे हथियार डालने ही पड़े |

पिछले क़रीब सवा साल से हमारा तलाक़ का मुकदमा कचहरी में चल रहा है | शुरूआती पेशियों में हमारा केस काउंसिलर के पास भेज दिया गया था | वहाँ उन्होंने हमें काफ़ी समझाने की कोशिश की, बच्चे के भविष्य का भी हवाला दिया लेकिन हम दोनों में से कोई भी राज़ीनामे के लिए तैयार नहीं हुआ | शायद ज़मीनी हकीक़त को समझने के बजाए हम ने इसे अपनी नाक का सवाल बना लिया था | काउंसिलर की रिपोर्ट के आधार पर जज साहब ने हमें समझाइश के साथ छह महीने का वक़्त दिया जिससे कि हम इस मसले से जुड़े सभी पहलुओं पर ठंडे दिमाग़ से सोच-समझकर सही फ़ैसला ले सकें | लेकिन पिछले छह महीनों में हम दोनों के बीच कोई बातचीत नहीं हुई है | आज इस छह महीने की मोहलत का आखिरी दिन था और कल इस केस की अगली पेशी है | इस बात की पूरी उम्मीद है कि कल की पेशी में हम दोनों के तलाक़ पर कानूनी मोहर लग जाएगी | जिस रिश्ते को बनाने में हमने इतनी दुश्वारियाँ झेली, समाज की हर मुख़ालवत का मिल कर सामना किया, कल उसी रिश्ते को हम दोनों अपनी मर्ज़ी से तोड़ देंगे | पहले दो से एक होने के लिए इतनी जद्दोजेहत की और बाद में एक से दो होने के लिए इतनी लंबी मुकदमेबाजी | कल से हम दोनों के रास्ते जुदा हो जाएँगे – दोनों अपनी आगे की ज़िंदगी के मुत्तलिक फैसले लेने के लिए पूरी तरह से आज़ाद होंगे | शायद कुछ दिनों बाद राजू की ज़िंदगी में कोई दूसरी औरत आ जाएगी | इस ख्याल मात्र से आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली | ये आँसू इस बात का परिचायक थे कि रिश्तों में इतनी तल्ख़ी आ जाने के बावजूद भी दिल के किसी कोने में आज भी राजू के लिए मोहब्बत मौजूद थी | यह सब सोचते-सोचते कब आँख लग गई पता नहीं चला |

सुबह जब आँख खुली तो देखा कि कमरे और रसोई में रोशनी जल रही थी | शायद जल्दी आँख लग जाने की वजह से मैं रोशनी बंद करना भूल गई थी | सिर अभी भी भारी हो रहा था | आज कचहरी की पेशी के लिए मैंने ऑफिस से छुट्टी ले रखी थी | ग्यारह बजे तक राहुल को मायके से लेकर कचहरी पहुँचना है | आज का दिन मेरी ज़िंदगी के लिए बहुत अहम होने वाला है | एक तरफ़ तो दिल में रिश्ता टूटने का दर्द था वहीं दूसरी ओर इस बात का भी डर सता रहा था कि कहीं राहुल की कस्टडी भी राजू को न मिल जाए | ऐसा हुआ तो मैं पूरी तरह से तन्हा हो जाऊँगी | ये सब कैसे बर्दाश्त कर पाऊँगी | हमारे बीच कई बरसों से चल रहे इस अलगाव का सबसे बुरा असर नन्हे राहुल पर पड़ा है | उसका बचपन न जाने कहाँ गुम हो गया है | वह हमेशा डरा-सहमा और गुमसुम सा दिखाई देता है - न कोई शैतानी और न उछल-कूद | पढ़ाई-लिखाई और खेल-कूद में वह दर्जे में सबसे फिसड्डी छात्र है | दिमाग़ में चल रही इसी उथल-पुथल के साथ मैं अपने बेतरतीब बालों को जूड़े की शक्ल में समेटते हुए ग़ुसलखाने में दाख़िल हुई | किसी तरह जल्दी तैयार होकर मायके के लिए निकल पड़ी | दिमाग़ी तनाव के कारण आज सुबह का नाश्ता भी नहीं किया था |

राहुल को लेकर मैं नियत वक़्त से आधा घंटे पहले ही कचहरी पहुँच गई थी | कोर्ट के बाहर रखी बेंच पर राहुल के साथ बैठ कर इंतज़ार करने लगी | दिल की धड़कने बढ़ी हुई थीं | राजू अभी तक वहाँ नहीं पहुँचे थे | थोड़ी देर बाद राहुल दूर से आते हुए  दिखाई दिए । पहले के बनिस्बत वह अब काफ़ी कमज़ोर जान पड़ रहे थे | बेतरीब बढ़ी हुई दाढ़ी और लम्बे बिखरे हुए बाल अब ज़्यादा पके जान पड़ते थे | उनके चेहरे और चाल में अब पहले की तरह रवानगी नहीं झलकती थी | पिता को आता देखकर राहुल “पापा-पापा” कहता हुआ दौड़कर उनसे लिपट गया | मुझे वहाँ देखकर चेहरे पर फीकी सी मुस्कराहट लाते ही उन्होंने पूछा, “कैसी हो तुम ?” मैंने किसी तरह अपने आँसुओं को ज़ब्त करते हुए भर्राई आवाज़ में जवाब दिया, “कैसी होऊँगी ऐसे हालात में ? आप तो अब सुख से होंगे |” इससे पहले कि राजू कोई जवाब दे पाते हमें भीतर से बुलावा आ गया |

हम तीनों अन्दर जाकर एक बेंच पर बैठ गए | जज साहब एक फ़ाईल पढ़ने में मशगूल थे | थोड़ी देर बाद उन्होंने सिर उठा कर दरियाफ़्त किया कि क्या राजू और सरिता डिसूज़ा कोर्ट में मौजूद हैं | हमने अपनी बेंच से उठकर तस्लीम किया कि हम वहाँ मौजूद हैं | जज साहब ने हमारी जानिब नज़र डालते हुए पूछा, “उम्मीद है कि आपने पिछले छह महीनों में तलाक़ से जुड़े सभी पहलुओं पर अच्छी तरह सोच-विचार कर लिया होगा | क्या आपके फ़ैसले में कोई तब्दीली हुई है या आप दोनों अभी भी अपने फ़ैसले पर कायम हैं ?” जवाब में हम दोनों ने तलाक़ के लिए हामी भर दी | हमारी बात सुनकर जज साहब ने फैसला सुनाने के अंदाज़ में फ़रमाया, “आप दोनों को सुनने के बाद यह कोर्ट इस नतीजे पर पहुँचा है कि इस विवाह के रिश्ते को और आगे चलाना मुमकिन नहीं हैं इसलिए आप दोनों के तलाक़ की अर्जी को मंज़ूर किया जाता है |” फिर उन्होंने राहुल की ओर देखकर पूछा, “क्या यह आप दोनों का बच्चा है ?” हम दोनों से इकरार में जवाब पाकर उन्होंने राहुल से मुख़ातिब होते हुए प्यार से पूछा, “बेटा, आपके मम्मी-पापा अब साथ नहीं रहना चाहते हैं | आप इन दोनों में से किसके साथ रहना चाहेंगे – मम्मी के साथ या पापा के साथ ?” हम दोनों बेसब्री से राहुल के फ़ैसले का इंतज़ार कर रहे थे लेकिन राहुल चुपचाप बुत बना खड़ा रहा | बहुत देर इंतज़ार करने के बाद भी जब राहुल की तरफ़ से कोई जवाब नहीं आया तो जज साहब ने एक बार फिर से अपना सवाल दोहराया | राहुल अभी भी ख़ामोश खड़ा था | उसको ऐसी स्थिति में देखकर मैंने भी प्यार से राहुल को समझाते हुए कहा, “बेटा, जज साहब आपसे पूछ रहे हैं कि आप मम्मा के साथ रहना चाहते हैं या पापा के साथ ? उनको जवाब दीजिए |” मेरी बात सुनकर राहुल रुआँसी आवाज़ में बोला, “मैं इन दोनों के साथ रहना चाहता हूँ, किसी एक के साथ नहीं |” जज साहब ने उसे समझाते हुए कहा, “लेकिन आपके मम्मी-पापा अब एक साथ नहीं रहना चाहते हैं इसलिए अब आप मम्मी-पापा दोनों के साथ नहीं रह सकते हैं | आप इन दोनों में से जिससे ज़्यादा प्यार करते हो उसके साथ रह सकते हैं |” जज साहब की बात सुनकर राहुल का रोना एकदम से फूट पड़ा | उसकी आँखों से बहती आँसुओं की धारा अब उसके बस में नहीं थी | भर्राई आवाज़ में उसके मुँह से निकले एक-एक लफ्ज़ नश्तर की तरह दिल में उतरते चले गए, “जब मम्मी-पापा दोनों को मेरी कोई फ़िक्र नहीं है तो मुझे इन दोनों के साथ नहीं रहना है | इनकी लड़ाइयों से मैं बहुत परेशान हो गया हूँ | आप मुझे ऐसी जगह भेज दीजिए जहाँ लावारिस बच्चे रखे जाते हैं |” राहुल अपने छोटे-छोटे हाथों से बार-बार आँसू पोंछे जा रहा था |

राहुल की बात सुनकर हम दोनों सन्न रह गए थे | हमें अंदाजा नहीं था कि हमारे छोटे से बेटे के मन में कितना ग़ुबार भरा हुआ था | हम दोनों के बीच चल रही कलह ने इस छोटे से बच्चे की ज़िंदगी इस कद्र तबाह कर दी है कि वह माँ-बाप के होते हुए भी एक लावारिस की तरह रहने के लिए तैयार है | मैंने कातर निगाहों से राजू की जानिब देखा, वह भी डबडबाई आँखों से मेरी ओर देख रहे थे | शायद हमारी ख़ामोश निगाहें एक दूसरे से पूछ रही थीं, “यह क्या हो गया ? क्या हम इसी दिन के लिए अपने प्यारे बेटे को इस दुनिया में लेकर आए थे ? क्या यह सब देखकर भी हम राहुल के प्रति अपनी ज़िम्मेवारियों से अंजान बने रहेंगे और अपने झूठे अहम के आगे राहुल की ज़िंदगी बर्बाद होते देखते रहेंगे ? अगर आज भी हमने कुछ नहीं किया तो ख़ुद अपनी नज़रों से गिर जाएँगे | इंसान सारी दुनिया से तो लड़ सकता है लेकिन ख़ुद की नज़रों से गिरकर जी नहीं सकता है |” ज़ेहन में यह ख्याल आते ही मैंने जज साहब से गुज़ारिश की, “कोर्ट द्वारा आख़िरी फैसला लेने से पहले हम पति-पत्नी थोड़ी देर के लिए आपस में सलाह-मशविरा करना चाहते हैं | हमें इसकी इजाज़त दी जाए |” जज साहब ने फ़ौरन इसके लिए अपनी रज़ामंदी दे दी |

कोर्ट से बाहर आते ही मैंने डबडबाई आँखों से राजू के सामने हाथ जोड़ते हुए कहा, “राहुल की बातों ने आज मुझे भीतर तक झकझोर कर रख दिया है | हमारे बीच चल रही इस कलह का सबसे ज़्यादा खामियाज़ा हमारा मासूम बेटा भुगत रहा है | अगर बेटा ही अपना न रहा तो ऐसी ज़िंदगी ले कर मैं क्या करूँगी | आज मैं हार गई हूँ | मेरा सारा गुरूर चकनाचूर हो चुका है | बेटे की भलाई की ख़ातिर मैं हर किस्म का समझौता करने के लिए तैयार हूँ | नहीं चाहिए मुझे ऐसा तलाक़ जो हमारे परिवार को तहस-नहस करके रख दे | क्या हम अपनी ज़िंदगी की एक बार फिर से शुरुआत नहीं कर सकते हैं ? हमारी नई ज़िंदगी में केवल “हम” रहेंगे, “मैं” नहीं |” मेरी बात सुनकर राजू भी पिघल गया था | उसे आज मैं पहली मर्तबा रोते हुए देख रही थी | गला रूँध जाने की वजह से उसके अल्फाज बाहर नहीं निकल पा रहे थे लेकिन आँखों से बहते आँसू उसके दिल के जज़्बातों को बख़ूबी बयाँ कर रहे थे | हम तीनों गले मिल कर बहुत देर तक रोते रहे | हमारे दिलों में जमे गिले-शिकवे पिघल कर आँसुओं की शक्ल में बह रहे थे | एक लम्बे अरसे के बाद हम तीनों एक बार फिर से एक हो रहे थे, फिर कभी अलग न होने के लिए .....