Hakikat ka Ehsaas in Hindi Short Stories by Rakesh Kaul books and stories PDF | हकीक़त का एहसास

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हकीक़त का एहसास

हकीक़त का एहसास

मैं एक ऐसे शख्स की रूह हूँ जिसका हाल में ही इंतक़ाल हुआ है | शायद आपको मेरी बातों पर यक़ीन करना मुश्किल होगा, लेकिन आज यह एक हकीक़त है | कल शाम तक मैं आपकी ही तरह एक ज़िंदा इंसान था, लेकिन कल रात ही मैंने अस्पताल में आख़िरी साँसें लीं | पिछले एक हफ़्ते से मैं कोविड वायरस से परेशान था | शक्कर की शिकायत होने की वजह से इन्फ़ेक्शन का असर ख़ासा ज़्यादा था | दवाई लेने के बावजूद भी कई दिनों से तेज़ बुखार और साँस लेने में तकलीफ़ बनी हुई थी | हालात में कोई बेहतरी न देख पत्नी नंदा को आखिरकार मुझे अस्पताल में दाख़िल कराने का फैसला लेना पड़ा | उसका डर भी वाजिब था | हर तरफ़ से कोई न कोई मनहूस ख़बरें सुनने को मिल रही थीं और उस वक़्त हमारे डॉक्टर की भी यही राय थी | मरीज़ की हालत बिगड़ने की सूरत में मरीज़ को घर में सँभालना मुश्किल हो जाता है | घर में पत्नी नंदा के अलावा हमारी एक बरस की बिटिया सबा भी है | नंदा के लिए वह बहुत ही मुश्किल वक़्त था | एक तरफ़ मुझे अस्पताल में भर्ती कराना था और दूसरी तरफ़ ख़ुद को और नन्ही सी बिटिया को भी बीमारी से बचाए रखना था | ऊपर से मदद के लिए घर में न तो कोई रिश्तेदार था और न ही आसपास कोई हमदर्द पड़ोसी | जो भी करना था, उसे ख़ुद ही करना था | मुश्किल वक़्त इंसान को ज़्यादा मज़बूत और हिम्मती बना देता है, जिससे कि वह हर किस्म के हालात का मुक़ाबला कर सके | नंदा ने भी जी कड़ा करके किसी तरह मुझे कार में डालकर और ख़ुद ही ड्राइव करते हुए अस्पताल ले गई | यह उसका बहुत ही जोखिम भरा कदम था, लेकिन इसके अलावा उसके पास और कोई चारा भी तो नहीं बचा था | किस्मत से अस्पताल में उसी वक़्त एक पलंग ख़ाली हुआ था | लिहाज़ा मुझे फ़ौरन आई.सी.यू. में भर्ती कर लिया गया | उस वक़्त वार्डों में मरीज़ के अलावा किसी और को जाने की इजाज़त नहीं थी |

मेरे वहाँ रहने के दौरान नंदा रोज़ सुबह-शाम खाना लेकर आती थी और बाहर से ही अस्पताल के स्टाफ को सौंप कर लौट जाती थी | कोविड महामारी के इस मुश्किल दौर में इंसान का इंसान पर से भरोसा उठ चुका है | कहीं भी इंसानियत का नामों-निशां नहीं बचा है | हर कोई ख़ुद को और अपने बीवी बच्चों को बचाने की जद्दो-जहत में लगा हुआ है और दूसरों के जीने-मरने से तो जैसे उसका कोई वास्ता ही नहीं रह गया हो | अस्पताल, दवाई बेचने वाले और समाज के खुदगर्ज़ लोग इस मौक़े का भरपूर फ़ायदा उठा रहे हैं | ऐसी सूरते-हाल में ज़रुरी दवाओं का इंतजाम करना भी एक चुनौती से कम नहीं है | ज़रूरतमंद लोग दवाइयों के लिए मुँह-माँगी कीमत देने के लिए तैयार हैं, लेकिन फिर भी कोई गारंटी नहीं है कि मिलने वाली दवाई असली ही होगी | उन दिनों मैं तो अस्पताल के पलंग पर लेटा रहता था, लेकिन बाहर नंदा हर तरफ़ अकेली ही दौड़-भाग कर रही थी और साथ ही साथ मेरा, अपनी नन्ही सी बिटिया सबा का और ख़ुद अपना भी ख्याल रख रही थी | मैं ख़ुद भी हैरान था कि वह अकेली इतना सब कुछ अकेले कैसे कर पा रही थी | इस तजुर्बे ने उसके लिए मेरी सोच को ही बदल कर रख दिया था | इससे पहले तक तो मैं उसे एक बेहद नाज़ुक और जज़्बाती लड़की ही समझता था, जिसे ज़्यादातर कामों के लिए अपने शौहर के सहारे की ज़रुरत रहती थी | लेकिन इन दुश्वारियों में उसने जो अदम्य हिम्मत दिखाई थी वह उसकी ज़बरदस्त अंदरूनी ताक़त की परिचायक थी, जिससे मैं आज तक बिलकुल अंजान था |  

अस्पताल में चल रहे इलाज के बावजूद भी मेरी तबियत बेहतर होने के बजाए आहिस्ता-आहिस्ता बिगड़ती ही जा रही थी | बदकिस्मती से मेरी जद्दो-जहत ज़्यादा दिन न चल सकी | उस वक़्त रात के करीब दो बजे रहे थे | अचानक मेरी साँसें उखड़ने लगीं | डॉक्टरों की पूरी कोशिशों के बावजूद भी वे मुझे बचा नहीं पाए | ताज्जुब की बात यह थी कि अपने इंतक़ाल के बाद भी मैं आईसीयू में होने वाली हर गतिविधियों को साफ़-साफ़ देख और सुन पा रहा था और अचानक ही मैं ख़ुद को पूरी तरह से सेहतमंद महसूस कर रहा था – न कोई बुख़ार, न बेचैनी और न ही साँस लेने में तकलीफ़, जिससे कि मैं इतने दिनों से जूझ रहा था | उस वक़्त मैं ख़ुद को अपने पलंग से थोड़ी दूर खड़ा महसूस कर रहा था, जिस पर मेरा बेजान जिस्म पड़ा हुआ था | वहाँ मेरी मौजूदगी से बेख़बर डॉक्टर और नर्सें मेरे जिस्म का आख़िरी मुआयना करने में मशगूल थे | मुआयने के फ़ौरन बाद डॉक्टर ने ऐलान किया, “मुझे अफ़सोस है कि मरीज़ का इंतक़ाल हो चुका है | मेहरबानी करके इनकी बीवी को फ़ौरन इसकी इत्तिला दे दीजिए |” ऐसा कहते हुए डॉक्टर ने चादर खींचकर मेरे जिस्म को मुँह तक ढँक दिया था |

डॉक्टर के मुँह से ये अल्फाज़ सुनते ही मुझे बरबस ही नंदा का ख्याल हो आया, जो शायद उस वक़्त इस हादसे से बेख़बर गहरी नींद में सो रही होगी | उस बेचारी के ऊपर तो जैसे परेशानियों का पहाड़ टूट पड़ा है | पता नहीं वह मेरे ख़त्म होने की ख़बर को कैसे बर्दाश्त कर पाएगी | ज़ेहन में यह ख्याल आते ही मैं एकाएक घर की ओर लपका और दूसरे ही लम्हे मैं अपने घर के बेडरूम के भीतर मौजूद था | आहिस्ता-आहिस्ता मुझे यह एहसास हो चला था कि अब मैं एक रूह बन चुका था, जो अपनी मर्ज़ी के मुताबिक कभी भी और कहीं भी आसानी से आ-जा सकता था | उस वक़्त मैं कमरे में होने वाली हर घटना का चश्मदीद गवाह था | मैं उन्हें साफ़-साफ़ देख-सुन और महसूस कर सकता था, लेकिन उनमें शरीक़ नहीं हो सकता था, क्योंकि अब मेरा कोई जिस्मानी वजूद नहीं बचा था |

उस वक़्त नंदा आने वाले बवंडर से बेख़बर बेटी के साथ पलंग पर गहरी नींद में सो रही थी | अचानक तकिये के पास रखा उसका फोन अब बजने लगा था | वह अस्पताल का ही फ़ोन था | नींद से हड़बड़ाते हुए उठकर उसने जैसे-तैसे फ़ोन उठाया | फ़ोन पर मेरे जाने की ख़बर सुनते ही नंदा का दुःख के मारे बुरा हाल था | उसका रोना सुनकर हमारी नन्ही सी बेटी भी जाग गई थी | माँ को ऐसी हालत में देखकर वह बेचारी भी बहुत परेशान दिख रही थी | उस मासूम को एहसास भी नहीं था कि उसकी ज़िंदगी में क़िस्मत ने कितना क्रूर मज़ाक किया था | नंदा बेटी को सीने से कसकर लगा कर लगातार रोए जा रही थी | इतनी बुरी ख़बर सुनने के बावजूद भी वह किसी तरह ख़ुद को संयत करने की कोशिश कर रही थी | शायद मेरी बिगड़ती हुई सेहत को देखते हुए उसे इस अनहोनी का पहले से अंदेशा था | किसी भी औरत के लिए उसके शौहर की बेवक्त मौत सबसे मुश्किल वक़्त होता है, जब उसे हर तरफ़ अन्धेरा ही अन्धेरा दिखाई देता है | नंदा के दिल के दर्द को मैं बख़ूबी महसूस कर पा रहा था | मेरी इच्छा हो रही थी कि मैं उसे सीने से लगाकर किसी तरह ढाँढस बँधाऊँ, लेकिन अब यह मेरे बस में नहीं था | न वह मुझे देख सकती थी और न ही सुन सकती थी | मैं बेबस सा खड़ा हुआ नंदा का करुण विलाप सुनता रहा | उसका रोना सुनकर सोसाईटी के कुछ लोग घर के बाहर जमा हो गए थे | इन्फेक्शन के डर से सभी के मुँह पर मास्क लगे थे | उनमें से कुछ हमदर्द लोग नंदा की मदद के लिए उसके साथ अस्पताल तक गए | एक लम्बे इंतज़ार के बाद अस्पताल ने मेरे मुर्दा जिस्म को पॉलीथीन में पूरी तरह से लपेटकर नंदा को सौंप दिया था, जिससे कि इन्फेक्शन फैलने का ख़तरा न रहे | अस्पताल से मेरा शव मिलने के बाद दूसरी बड़ी मुश्किल थी मेरे अंतिम संस्कार की | उस वक़्त मरघट पर बहुत ही बुरा मंज़र था | जिधर नज़र डालो, वहाँ चिताएँ ही चिताएँ जल रही थीं | नए शवों की लंबी वेटिंग चल रही थी | बड़ी मुश्किल से आठ-दस हज़ार की घूस देकर किसी तरह मेरे शव का अंतिम संस्कार किया जा सका |

ये सभी काम नंदा को करीब-करीब अकेले ही निपटाने पड़े | बीमारी के डर से न कोई रिश्तेदार और न ही कोई यार दोस्त इस मौके पर मातमपुर्सी के लिए घर आ सका था | ऐसे सूरते-हाल में अंतिम संस्कार के बाद होने वाले पूजा-पाठ कराने का भी कोई तुक नहीं था | लिहाज़ा, दूसरे दिन से घर में केवल नंदा और बेटी सबा ही रह गए थे | न कोई आने वाला और न ही कोई जाने वाला | हालाँकि मैं वहाँ लगातार मौजूद था, लेकिन मै चाहकर भी इस मुश्किल घड़ी में नंदा के साथ खड़ा नहीं हो सकता था | उस वक़्त घर में हर तरफ़ एक मनहूस सी ख़ामोशी पसरी हुई थी | अब न तो कोई अस्पताल की भाग-दौड़ थी और न ही दवाइयों के लिए जद्दो-जहत | नंदा ने सुबह से मुँह में अन्न का एक दाना नहीं डाला था | सुबह से दोपहर और दोपहर से शाम होने को आई थी | वह बेचारी दिन भर भूखी-प्यासी, उदास और निढाल सी पलंग पर पड़ी रही | बीच-बीच में वह मेज़ पर रखी हुई हम दोनों की तस्वीर देखकर रोने लगती थी फिर थोड़ी देर बाद ख़ुद ही आँसू पोंछकर चौके में जाकर बेटी के खाने का इंतज़ाम करने लगती थी | इस वक़्त उसके आँसू पोंछने वाला वहाँ कोई भी नहीं था | शायद उसके नसीब में शौहर की मौत का मातम मना पाना भी नहीं लिखा था | अगर वह दुःख में ही डूबी रहती तो छोटी सी बेटी की सुध कौन लेता | कौन उसके खाने-पीने और दूसरी ज़रूरतों का ख्याल रखता | मैं बार-बार उसके क़रीब जाकर उसके सिर पर प्यार से हाथ फेर कर उसे ढाँढस बँधाने की नाकाम कोशिशें कर रहा था | काश ! कितना अच्छा होता कि अगर वह घर में मेरी मौजूदगी का एहसास कर पाती | मैं किसी किस्म की मदद करने लायक तो नहीं था, लेकिन कम से कम वह अपने दिल में भरे हुए जज़्बातों को मुझसे साझा तो कर पाती | इससे उसके दिल का दर्द शायद कुछ कम हो पाता |

वक़्त एक बहुत ही कारगर मरहम की तरह काम करता है, जो हर तरह की ख़लिश, चाहे वह कितनी भी गहरी क्यों न हो, आहिस्ता-आहिस्ता कम करता जाता है | नंदा के साथ भी यही हो रहा था | दिन बीतने के साथ हाल की बुरी यादों की कड़वाहट अब धीरे-धीरे कम होने लगी थी | साथ ही उसको ज़िंदगी की कठोर असलियत से भी रूबरू होना पड़ रहा था – हर रोज़ किसी न किसी चीज़ की खरीदारी के मुत्तलिक भुगतान के तकाज़े के फ़ोन आने लगे थे | कभी मकान का किराया, तो कभी दूध, पेपर या बिजली के बिलों का भुगतान और कभी पेट्रोल या मोबाईल की चार्जिंग के लिए पैसों का भुगतान | उसे यह कड़वा एहसास होने लगा था कि मरहूम शौहर की यादें, चाहे वे कितनी भी मधुर क्यों न हों, उनके सहारे आगे की ज़िंदगी जी नहीं जा सकती है | ज़िंदगी जीने के लिए आमदनी का कोई न कोई तो ज़रिया होना निहायत ही ज़रुरी है | आख़िर, उसे अपने साथ अपनी नन्ही सी बेटी का भी तो ख्याल रखना है, जो इस वक़्त पूरी तरह से उस पर ही निर्भर थी | परिवार की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ जाकर शादी करने की वजह से हमारे दोनों परिवारों से कोई रिश्ते नहीं बचे थे | इस वजह से उसे मायके और ससुराल वालों से कोई ख़ास उम्मीदें नहीं थीं | अपना बैंक खाता साझा होने की वजह से उसे फ़ौरी तौर पर रक़म निकालने में कोई ख़ास परेशानी तो नहीं हो रही थी, लेकिन खाते में पड़ी रक़म से ज़्यादा से ज्यादा छह महीने तक काम चल सकता था | इस रक़म के ख़त्म होने से पहले ही आमदनी के एक नए ज़रिए को खोजना निहायत ही ज़रुरी था |   

नंदा एक पढ़ी-लिखी औरत है | उसने एमबीए कर रखा है और शादी के वक़्त वह एक प्राइवेट कंपनी में मैनेजर फाइनेंस के ओहदे पर काम भी कर रही थी | क़रीब दो बरस तक उसकी नौकरी अच्छी चली, लेकिन सबा की पैदाइश के वक़्त कंपनी ने उसे मैटरनिटी छुट्टी देने से साफ़ इंकार कर दिया था इसलिए हारकर उसे नौकरी से इस्तीफा देना पड़ा था | सबा के आने के बाद से उस पर परिवार की ज़िम्मेदारियों का बोझ इस कद्र बढ़ गया था कि वह नौकरी पर दुबारा जाने की बात सोच भी नहीं पा रही थी | अगर उसकी ज़िंदगी में यह हादसा नहीं हुआ होता तो वह आज भी घर-परिवार पर ध्यान देना ही पसंद करती | आज सबा भी इतनी बड़ी नहीं हुई है कि वह ख़ुद अपना ख्याल रख सके | अभी भी उसे हर वक़्त माँ की मुहब्बत भरी देखभाल की ज़रुरत रहती है लेकिन ज़िंदगी के इस मोड़ पर नौकरी करना उसके ख़ुद के वजूद के लिए निहायत ही ज़रुरी बन चुका था | परिवार की मौजूदा और भविष्य की ज़रूरतों को देखते हुए नंदा ने अपने रोज़गार के लिए नए सिरे से कोशिशें करनी शुरू कर दी थीं | इस मुतल्लिक पहले कदम के रूप में उसने अपने सभी रिश्तेदारों और जान-पहचान वालों से बात करके मदद की गुहार की और साथ ही अख़बार और सोशल मीडिया पर आ रही नौकरियों के लिए भी अर्ज़ियाँ देना शुरू कर दी थी |

उसकी इस जद्दो-जहत में मेरे ऑफिस का ही एक साथी अमर उसकी काफ़ी मदद कर रहा था | अमर और मैंने क़रीब-क़रीब एक साथ ही इस कंपनी में नौकरी ज्वाइन की थी और इस वक़्त हम दोनों बराबरी के ओहदों पर थे | अमर स्वभाव से ही एक रिज़र्व किस्म का इंसान है और दूसरे साथियों से वह सिर्फ़ काम के मुतल्लिक ही बात करना पसंद करता है | इस वजह से हम दोनों के बीच हमेशा सिर्फ़ एक पेशेवर रिश्ता ही रहा था लेकिन मेरे जाने के बाद से वह अब अक्सर घर आने-जाने लगा था | ज़रुरत पड़ने पर वह नंदा के लिए बाहर के कई काम कर देता था, जिससे कि उसे बेवजह इस ख़तरनाक माहौल में बाहर न जाना पड़े | हर वक़्त संजीदा चेहरा बनाए रखने वाला अमर आजकल नंदा से बहुत मुस्करा-मुस्करा कर बात करता है | उसका यह बर्ताव मेरे लिए परेशानी का सबब बनता जा रहा था | आज भी हमारे समाज में शौहर की मौत के बाद उसकी बीवी पर हर कोई आदमी बुरी नज़र डालने की हिम्मत करने लगता है – कोई ज़बरदस्ती करके, तो कोई चिकनी-चुपड़ी बातें करके | मैं ऐसे लोगों की फितरत अच्छी तरह से समझता हूँ | कहीं अमर भी मदद के नाम पर नंदा पर डोरे डालने की कोशिश तो नहीं कर रहा था ? लेकिन एक अच्छी बात यह थी कि नंदा के बर्ताव में मुझे ऐसी कोई झलक नहीं मिल रही थी | वह हर मिलने-जुलने वाले से एक ख़ास दूरी बना कर ही बात करती थी |

देखते ही देखते मेरे इंतकाल को पाँच महीने पूरा होने को आ रहे थे | बैंक खाता भी अब आहिस्ता-आहिस्ता खाली हो चला था | पैसों की किल्लत देखते हुए नंदा घर के खर्चे में अब काफ़ी किफ़ायत बरत रही थी | अभी तक हमने घर में ऐसी तंगी कभी महसूस नहीं की थी | हालात ने उसे थोड़ा चिड़चिड़ा बना दिया था | कभी-कभी वह नाहक ही नन्ही सबा पर नाराज़ हो जाती थी, तो कभी उसकी झुंझलाहट मुझ पर उतरने लगती थी, “शेखर यूँ तो बहुत अच्छे शौहर थे, लेकिन उनकी सबसे बड़ी खामी थी, उनकी फिज़ूलखर्ची | जो भी उन्होंने कमाया, वह फ़ौरन उड़ा दिया | उन्होंने कभी भी बुरे वक़्त के लिए बचत नहीं की और इसी वजह से आज मैं इस हाल में हूँ |  अगर उन्होंने वक़्त रहते अपना जीवन बीमा करवा लिया होता तो आज मुझे यूँ पाई-पाई के लिए मोहताज नहीं होना पड़ता | वे ख़ुद तो दुनिया के झंझट से आज़ाद हो गए हैं, लेकिन मुझ पर हर किस्म की ज़िम्मेदारियाँ छोड़ गए हैं |”

इस मायूसी भरे हालात में भी नंदा की तरफ़ से नौकरी के लिए अथक कोशिशें जारी थीं | सुबह होते ही वह फ़ोन पर एक्टिव हो जाती थी | जहाँ से भी उसे हल्की सी कोई उम्मीद दिखाई देती, वहाँ वह अपनी कोशिशों में कोई कमी न उठा रखती | कोविड की वजह से इस वक़्त क़रीब-क़रीब सभी कंपनियाँ मंदी के दौर से गुज़र रही थी | जमे-जमाए स्टाफ को भी कम्पनियाँ एक महीने का नोटिस देकर बाहर का रास्ता दिखा रही थीं | ऐसी सूरते-हाल में एक ऐसी औरत के लिए नौकरी खोजना, जो पिछले दो बरसों से घर की चाहरदीवारी के भीतर ही रही हो, क़रीब-क़रीब नामुमकिन सी बात थी | किस्मत से मैं एक फार्मा कंपनी में काम कर रहा था, जो दूसरी कंपनियों के मुक़ाबले अभी भी काफ़ी ज़्यादा मुनाफ़ा कमा रही थी | मेरी कम्पनी ने इस मुत्तलिक नंदा की तरफ़ एक हमदर्दी भरा रुख अपनाया था | आखिरकार, क़रीब तीन-चार महीनों की अथक दौड़-धूप के बाद नंदा को हमारी ही कंपनी में नौकरी मिल गई थी | साथ ही कोविड को देखते हुए कम्पनी ने उसे फिलहाल घर से ही काम करनी की सहूलियत भी दे दी थी | यह नंदा के लिए एक बहुत बड़ी मदद थी, जिसकी वजह से वह नौकरी के साथ-साथ सबा और घर की भी देखभाल कर सकती थी | हालाँकि कंपनी की तरफ़ से पेशकश की गई तनख्वाह उम्मीद से थोड़ी कम थी, लेकिन इस वक़्त यह नौकरी नंदा की अंधेरी ज़िंदगी में एक उम्मीद की रौशनी लेकर आई थी | इस मुक़ाम पर न चाहते हुए भी मुझे यह मानना पड़ेगा कि नंदा की इस कामयाबी के पीछे अमर की अथक कोशिशों की ख़ासी अहमियत थी | वह नंदा को लेकर कई दफ़ा कम्पनी के आला अफसरों से मिला था और ज़ाती तौर पर भी उसके लिए पुरज़ोर गुज़ारिश की थी | नंदा को भी इस बात का एहसास था कि अमर की कोशिशों के बग़ैर यह कतई मुमकिन नहीं था |

नौकरी लगने के साथ ही घर के हालात आहिस्ता-आहिस्ता पटरी पर वापिस आने लगे थे | कई महीनों बाद नंदा के चेहरे पर मुस्कान की हल्की सी चमक एक बार फिर से दिखाई देने लगी थी | शौहर के न रहने के ज़ख्म अभी भी उसके दिल में ताज़ा थे | ख़ासकर, तन्हाई में पुरानी यादें उसे बहुत तकलीफ़ देती थीं | ज़िंदगी की एक बड़ी खूबसूरती यह है कि यह हर हाल में चलती ही रहती है और उसके साथ हर एक को चलते ही रहना पड़ता है | वक़्त के साथ पुरानी यादें, चाहे वे कितनी भी हसीं या कड़वी क्यों न हों, आहिस्ता-आहिस्ता धूमिल पड़ती जाती हैं और इंसान भविष्य की ओर कदम बढ़ाता जाता है | फिर नई नौकरी की मसरूफ़ियत और घर-परिवार की देखभाल में नंदा को ख़ुद पर नज़र डालने का वक़्त भी नहीं मिल पाता था | कब सुबह से शाम और शाम से रात हो जाती थी, उसे एहसास ही नहीं होता था | छुट्टी के दिन हफ़्ते भर के ढेर सारे काम इकठ्ठे हो जाते थे कि उनमें ही पूरा दिन निकल जाता था | ऐसे हालात में उसे हफ़्तों हो जाते थे घर से बाहर निकले | इस भागम-भाग भरी ज़िंदगी में दिन, हफ़्ते और महीने तेज़ी से बीते जा रहे थे | देखते ही देखते मेरे इंतक़ाल को एक बरस होने को आया था | सबा भी अब थोड़ी बड़ी दिखने लगी थी, शायद अगले बरस वह स्कूल भी जाने लगे | कोविड महामारी का असर अब काफ़ी कम हो चुका था और ज़िंदगी की रौनक़ अब वापस लौटने लगी थी हालाँकि नंदा की नौकरी अभी भी घर से ही चल रही थी | ज़िंदगी की इस बदलती रफ़्तार को मैं बड़ी ख़ामोशी से देख रहा था | इस मुक़ाम पर मुझे यह एहसास हो चला था कि अब मेरे घर में बने रहने का कोई मकसद नहीं रह गया है लेकिन नंदा के लिए मेरी बेपनाह मुहब्बत अभी भी मुझे घर से रुख्सत होने की इजाज़त नहीं दे रही थी | आख़िर आठ-नौ बरस पुराना नाता था हमारा | उससे शादी करने के लिए मैंने क्या-क्या दुश्वारियाँ नहीं झेली थीं | यहाँ तक कि माँ-बाबूजी के ख़िलाफ़ बग़ावत भी करनी पड़ी, जिसकी वजह से हमारे साथ उनके रिश्ते हमेशा के लिए दफ्न हो गए थे लेकिन नंदा ने हर मुश्किल वक़्त में मेरा बख़ूबी साथ निभाया था | मुहब्बत न केवल हमें एक दूसरे के प्रति वफ़ादारी और हर मुक़ाम पर साथ देना सिखाती है बल्कि साथ ही हमें एक दूसरे पर एक पोशीदा हक़ भी देती है, जिसे अल्फाज़ों में बयाँ कर पाना आसान नहीं है | इसी वजह से मैं आज भी दिल के किसी कोने में नंदा पर अपने हक़ का एहसास महसूस करता हूँ | मुझे यह बात किसी भी सूरत में बर्दाश्त नहीं हो सकती है कि मेरे बाद नंदा किसी और की हो जाए | इस बात का ख्याल आते ही मैं बेचैन हो उठता हूँ और शायद इसी अंदरूनी डर की वजह से ही मैं हर वक़्त नंदा के आस-पास मौजूद रहना चाहता हूँ |  

मेरे भीतर चल रही कश्मकश से बेख़बर नंदा अपनी नई ज़िंदगी में मशगूल थी | अपने ऊपर दफ़्तर और घर की दोगुनी ज़िम्मेदारियों को भी वह बख़ूबी निभा पा रही थी | वह हमेशा से ही एक ज़िम्मेदार इंसान रही है | ऐसा लगता था कि उसके अफ़सर उसके काम से ख़ासे ख़ुश थे | अपने इंतक़ाल के बाद से मैं उसकी ज़िंदगी में आ रहे बदलावों को बहुत बारीक़ी से देख रहा था | ख़ासकर नौकरी लगने के बाद से उसकी चेहरे की मुस्कराहट जो कहीं गुम हो गई थी, अब वापिस लौटने लगी थी | उसकी मुस्कराहट के साथ-साथ सबा भी अब ज़्यादा शैतान दिखने लगी थी | नंदा में एक और बड़ी तब्दीली जो मैं महसूस कर रहा था, वह था उसका अमर के प्रति भरोसा | मेरे इंतकाल के बाद अमर जिस तरह से नंदा के मुश्किल वक़्त में उसके साथ खड़ा रहा और ख़ासकर, नई नौकरी खोजने में उसकी भरपूर मदद की, उससे नंदा अमर पर काफ़ी भरोसा करने लगी है | किसी किस्म की ज़रुरत होने पर वह सबसे पहले अमर की ही सलाह लेती है और अमर भी वक़्त-बेवक़्त उसकी मदद के लिए हमेशा तैयार रहता है | अभी पिछले कुछ रोज़ पहले ही सबा को तेज़ बुखार बना हुआ था, जिसकी वजह से उसे आधी रात को अस्पताल ले जाना पड़ा था | नंदा के तो हाथ-पाँव फूल गए थे | और कोई रास्ता न देख उसने अमर को रात एक बजे फ़ोन कर मदद के लिए बुलाया था | क़रीब दस–पंद्रह मिनट में ही अमर घर पर हाज़िर हो गया था और उसी वक़्त दोनों सबा को लेकर अस्पताल के लिए रवाना हो गए थे | अस्पताल में भी वह पूरी रात वार्ड के बाहर बेंच पर बैठा रहा | अमर की मौके पर की गई मदद से नंदा बहुत ही मुत्तासिर हुई थी | दूसरे दिन अस्पताल से लौटते वक़्त उसकी आँखों में आँसू थे | शायद उस दिन पहली मर्तबा उसने अमर से अपने दिल की बात इतनी साफ़गोई से रखते हुए कहा था, “पिछला एक बरस मेरी ज़िंदगी का सबसे मुश्किल वक़्त था, जब मैं इतने बड़े जहाँ में ख़ुद को बिलकुल तन्हा महसूस कर रही थी | हर तरफ अन्धेरा ही अन्धेरा दिखाई दे रहा था | लेकिन आपने इस दौरान हर कदम पर मेरा साथ निभाया है और आपकी मदद की बदौलत ही मैं एक इज़्ज़तदार ज़िंदगी जी पा रही हूँ | आपका शुक्रिया कहने के लिए मेरे पास अल्फाज़ नहीं हैं | ईश्वर आपको हमेशा सुखी रखे | ” जवाब में अमर ने नंदा का हाथ हौले से दबाते हुए बिना बोले ही उसके लिए अपने जज़्बातों का इज़हार कर दिया था | उस वक़्त नंदा के चेहरे पर चमकती हुई शर्मीली मुस्कुराहट अमर के लिए उसके दिल के जज़्बातों को बख़ूबी बयाँ कर रही थी |

यह मेरी बदकिस्मती है कि यह सारा वाक्या मेरी आँखों के सामने घटित हुआ था | नंदा का बर्ताव देखकर मैं हैरान था, “ क्या यह वही औरत है जो एक एक बरस पहले मेरी मौत पर आँसू बहा रही थी | क्या उसके आँसू नकली थे ? क्या उसकी मुहब्बत और वफ़ादारी की कसमें सब फरेब थीं ? क्या इसी मुहब्बत की ख़ातिर मैंने अपने परिवार और पूरे समाज से बग़ावत की थी | पूरी दुनिया में नंदा ही अकेली ऐसी शख्स थी जिस पर मैं ख़ुद से भी ज़्यादा भरोसा करता था | मैं आज भी अपने भीतर उसकी मुहब्बत की गर्माहट महसूस कर पा रहा हूँ और इसी मुहब्बत की ख़ातिर ही मैं आज मौत के एक बरस बाद भी हर लम्हा उसके साथ मौजूद हूँ | मुझे पूरा यक़ीन था कि उसकी ज़िंदगी में कोई और शख्स कभी भी मेरी जगह नहीं ले सकता है लेकिन मै कितना ग़लत था | मेरे जाते ही उसने अपना असली रंग दिखाना शुरू कर दिया | मेरे साथ मरने-जीने की जो कसमें उसने खाई थीं, वह कितनी जल्दी भुला दी हैं | जो कसमें उसने कल मेरे साथ खाई थीं, वह आज किसी और मर्द के साथ खा रही है | कल जो प्यार मेरा था, वह किसी और का हो गया है | नाटक वही है, सिर्फ़ किरदार बदल गए हैं | लेकिन मेरी बेबसी तो देखो कि मैं यह सब बेशर्मी देखने के लिए यहाँ पर न केवल मौजूद हूँ, बल्कि ख़ामोशी से यह सब देख भी रहा हूँ | शायद मेरे नसीब में मरने के बाद भी सुकून नहीं लिखा है |” नंदा की बेवफाई से मैं पूरी तरह से टूट चुका था और उसके लिए मेरे दिल में कड़वाहट भर गई थी |

ऐसे मायूसी भरे माहौल में अचानक ज़ेहन में यह ख्याल आया कि क्यों न ख़ुद को नंदा की जगह पर रख कर देखूँ कि क्या वह वाकई में इतनी बड़ी गुनाहगार है, जैसा कि मैं सोच रहा हूँ ? अगर मैं उसकी जगह होता तो क्या करता ? क्या मैं पूरी ज़िंदगी मरहूम बीवी की याद में गुज़ार देता ? शायद नहीं | इस ख्याल के साथ ही दिल में नए ख़्यालों के दाख़िले का सिलसिला शुरू हो गया, “मेरे इंतक़ाल के वक़्त नंदा की ऊम्र महज़ तीस बरस की होगी और उसके आगे एक लम्बी ज़िंदगी पड़ी थी और साथ में थी एक बरस की मासूम बेटी सबा की ज़िम्मेदारी | हिन्दुस्तानी समाज में आज भी एक युवा विधवा के लिए ज़िंदगी गुज़ारना कितना मुश्किल है, यह किसी से छुपा नहीं है और ख़ासकर, तब जब उसके सामने परिवार के पालन-पोषण के लिए आमदनी का कोई ज़रिया न हो तो हर कोई उसकी मजबूरी का बेजा फ़ायदा उठाने की कोशिश करता है | परिवार की ज़िम्मेदारियों और घर की माली हालत को देखते हुए नौकरी करना न केवल उसकी मजबूरी थी, बल्कि उसकी और बेटी के भविष्य के लिए भी निहायत ज़रुरी था | ज़िंदगी की इस जद्दो-जहत में उस वक़्त वह बिलकुल तन्हा थी – न कोई रिश्तेदार और न ही कोई हमदर्द था उसकी मदद के लिए | अगर उसको वक़्त पर नौकरी नहीं मिलती, तो वह क्या करती ? छोटी सी बच्ची को लेकर कहाँ जाती ? कौन उसकी मदद करता ? पैसों के बिना उसकी कैसी दुर्दशा होती, इसका आसानी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है | अरे, मुझे तो अमर का शुक्रगुज़ार होना चाहिए जिसकी नि:स्वार्थ मदद ने नंदा को बर्बादी के गर्त में गिरने से बचा लिया है और अगर आज नंदा उस शख्स पर भरोसा करती है तो उसमें बुराई क्या है | ज़िंदगी की कठोर सच्चाई सिर्फ़ जज्बातों के बूते नहीं समझी जा सकती है | कल की मीठी यादों के सहारे ज़िंदगी की हकीक़त का सामना नहीं किया जा सकता है | आख़िर नंदा भी तो एक इंसान है, भगवान नहीं | हर इंसान की तरह उसे भी एक साथी की ज़रुरत होगी, जिसके साथ वह अपने दिल की हर ख़ुशी, हर ग़म साझा कर सके और जो ज़िंदगी के हर मुक़ाम पर उसके साथ मज़बूती से खड़ा रहे | फिर अमर एक अच्छा इंसान है, जो सबा को भी एक अच्छे पिता का प्यार देगा | उसके साथ रह कर नंदा ज़रुर ख़ुश रहेगी | मुहब्बत का असली मतलब केवल एक दूसरे पर अपना हक़ जमाने में नहीं है, बल्कि अपने महबूब की ख़ातिर त्याग करने में है | इन ख़्यालों के साथ मेरे ज़ेहन पर छाई हुई मायूसी के बादल अब पूरी तरह छँट चुके हैं | इस वक़्त मेरे दिल में किसी किस्म का कोई द्वेष नहीं बचा है | आज मैं खुले दिल से नंदा का नया रिश्ता कुबूल करता हूँ | मेरा प्यार और मेरी दुआएँ हमेशा नंदा और सबा के साथ रहेंगी | वक़्त आ गया है कि मुझे भी यह सच्चाई क़ुबूल कर लेनी चाहिए कि अब मेरा इस ज़िंदगी से नाता पूरी तरह से ख़त्म हो चुका है और एक नई ख़ूबसूरत ज़िंदगी बाँहे फैलाए मेरा इंतज़ार कर रही है | अपने नए सफ़र पर रुख्सत होने का वक़्त आ गया है | दोस्तों, आप सब ख़ुश रहिए और आबाद रहिए | अब हम तो सफ़र करते हैं | अलविदा, खुदा हाफ़िज़ |”