लाईका
यह कहानी एक रूसी कुतिया “लाईका” की ज़िंदगी पर आधारित है जिसे पहली बार स्पेस में जाने का गौरव हासिल है | अक्तूबर 1957 में सोवियत स्पेसयान “स्पुतनिक-1” की क़ामयाबी के बाद सोवियत संघ के प्रमुख निकिता सर्गेविच ख्रुश्चेव बोल्शोविक क्रान्ति की चालीसवीं सालगिरह के मौके पर एक ख़ास स्पेस मिशन को अंजाम देना चाहते थे जिससे कि सारी दुनिया में सोवियत संघ की ताक़त की धाक जम जाए | उनके हुक्म के मुताबिक योजनाकर्ताओं ने उस मिशन पर “लाईका” नाम की एक देसी कुतिया को स्पेस में भेजने की योजना बनाई जिसके लिए उनके पास चार हफ़्तों से भी कम का वक़्त था | इस मिशन में लाईका का अंत होना निश्चित था | लाईका को 3 नवम्बर, 1957 को स्पेसयान “स्पुतनिक-2” से स्पेस में भेजा गया था | जल्दबाज़ी में बनाए गए इस स्पेसयान की तापमान नियंत्रण प्रणाली में सफ़र के शुरुआती दौर में ही ख़राबी आ गई थी और थर्मल इंसुलेशन भी निकल गया था | केबिन के तापमान के अत्याधिक बढ़ने की वजह से लाईका की शायद पाँच से सात घंटे में ही मौत हो गई थी | नीचे दी गई कहानी के माध्यम से लाईका के आख़िरी दिनों की मनोदशा को दर्शाने की कोशिश की गई है |
पिछले कई दिनों से मैं असहनीय नारकीय यातनाओं से गुज़र रही हूँ | रात-दिन एक छोटे से अँधेरे कमरे में क़ैद रहती हूँ | कब दिन होता है, कब रात होती है, पता ही नहीं चलता है | अब तो रात-दिन का एहसास भी ख़त्म हो चला है | शुरुआत में जब मैं यहाँ लाई गई थी तो हर वक़्त छटपटाती रहती थी इस क़ैद से आज़ाद होने के लिए | अपने साथ ज़बरदस्ती से की जानेवाली हर कार्यवाही का पुरज़ोर विरोध करने की कोशिश करती थी | लेकिन यहाँ मेरी ऐसी हर प्रतिक्रिया को सख्ती से कुचल दिया गया है | कई दफ़ा तो मुझे बेरहमी से पीटा गया और कई-कई दिनों तक भूखा भी रखा गया था | आख़िरकार, हार कर मैंने एक ऊम्रकैदी की तरह इस नरक जैसी दमघोंटू ज़िंदगी को अपनी नियति मान कर कबूल कर लिया है | अब अपने ऊपर हो रहे हर अत्याचार को ख़ामोशी से बर्दाश्त करती रहती हूँ | इतनी यातनाओं से गुज़रते हुए भी हर वक़्त मेरा दिल अपने छोटे-छोटे बच्चों को याद करके रोता रहता है | हर वक़्त उनकी याद में घुटती रहती हूँ | वे तो थोड़ी सी देर भी मुझसे जुदा नहीं होते थे | न जाने वे इस वक्त कहाँ होंगे ? किस हाल में होंगे ? उनका कौन ख्याल रखता होगा ? उन्हें कुछ खाने को मिलता भी होगा या वे भूखे-प्यासे ही भटकते रहते होंगे | अब ऐसा लगता नहीं कि मैं कभी ज़िंदा इस क़ैद से आज़ाद हो पाऊँगी | शायद मेरी क़िस्मत में अपने बच्चों से दुबारा मिलना नहीं लिखा है | अपनी बेबसी पर दिल रात-दिन रोता रहता है – हे भगवान, मेरी किस्मत में आगे न जाने क्या लिखा है ? मैंने तो कभी किसी का बुरा नहीं किया, हमेशा गली के बच्चों के साथ खेला करती थी, जो भी मिल गया उसी में ख़ुश रहती, कभी किसी बात की शिकायत नहीं की, फिर मेरे साथ इंसान ऐसा ज़ुल्म क्यों कर रहा है ? क्या उसे हम जानवरों की तकलीफ़ों का कोई एहसास नहीं ? क्या यह दुनिया केवल इंसानों के लिए बनी है ? भगवान ने भी हमें इंसानों के रहमो-करम पर छोड़ दिया है | वह हमारे साथ जैसा चाहे वैसा बर्ताव कर सकता है और हमें उसे ख़ामोशी से बर्दाश्त करते रहना है |
इस वक़्त मुझे एक छोटे सी मशीन में फँसा कर रखा गया है, जिसमें हिलना-डुलना भी मुश्किल है | हर रोज़ यह मशीन छोटी और छोटी होती जा रही है | कभी-कभी तो मुझे एक अजीब सी मशीन पर बिठा दिया जाता है, जिसमें से कुछ ख़तरनाक़ सी आवाजें आती हैं जिन्हें सुनकर ही दिल की धड़कनें तेज़ हो जाती हैं | कुछ वक़्त पहले मुझे एक नई मशीन में लगाया गया है | थोड़ी-थोड़ी देर में कोई न कोई इंसान कमरे के भीतर आता रहता है | कोई मेरी जाँच करता है तो कोई मेरे बदन पर अलग-अलग जगह चीरा लगा कर चला जाता है | टट्टी-पेशाब की जगह पर भी इन लोगों ने चीरा लगा कर कोई थैलीनुमा चीज़ बाँध दी है | कोई और वक़्त होता तो मैं उसे नोंच कर फेंक देती लेकिन इस वक़्त मैं ख़ुद को एक ऐसी बेबस हालत में पा रही हूँ जिसमें चलना-फिरना तो दूर हिलना भी मुहाल है | कई घंटों तक एक ही हालत में बैठे-बैठे मेरा पूरा बदन अकड़ गया है | ऐसे हालात में रहते हुए मुझे केवल जीने लायक खाना ही नसीब होता है | वह खाना भी क्या है, थोड़ी सी जेल जैसी कोई बेस्वाद चीज़, जिसे न चाहते हुए भी मैं खाने को मजबूर हूँ | थोड़ी देर पहले एक शख्स ने अन्दर आकर मेरे सारे बदन को साफ़ करके मुझे एक अजीब सा चोंगा पहना दिया है | इस वक़्त मेरा सारा बदन इस चोंगे के भीतर क़ैद है | बहुत दम घोंटू सा एहसास हो रहा है – हर तरफ़ से जकड़ी हुई बेबस प्राणी जो ना हिल-डुल सकती है और न ही खुली हवा में साँस ले सकती है |
इस बेबसी के हाल में कई दफ़ा दिल पुराने दिनों की यादों में खो जाता है | कुछ दिन पहले तक मेरी ज़िंदगी कितनी सुखी थी | आज़ादी में कितना सुख होता है इसका एहसास मुझे आज हो रहा है | गली में कुल मिलाकर हम तीन कुत्ते और और दो कुतियाँ थीं | उन चारों में मैं सबसे छोटी थी | मेरे छोटे-छोटे चार बच्चे थे | हम सब अपनी छोटी सी दुनिया में मगन रहते थे | दिन भर हम सब आज़ादी से घूमते रहते और गलीवालों से जो भी रुखा-सूखा मिल जाता उसमें ख़ुश रहते | गली के किसी भी शख्स को हमसे कोई भी शिकायत नहीं थी | मोहल्ले के बच्चे अक्सर मेरे बच्चों के साथ खेला करते थे | मेरे चारों गोल-मटोल से बच्चे हर वक़्त मुझसे चिमटे रहते - जहाँ भी जाती वे मेरे पीछा करते-करते आ जाते | दूध पीकर जब वे चारों आपस में धमा-चौकड़ी मचाते तो मैं प्यार से उन्हें निहारती रहती और अक्सर अपनी किस्मत पर नाज़ करती कि मालिक ने मुझे इतने खूबसूरत से बच्चों से नवाज़ा है | शायद मुझे अपनी ही नज़र लग गई थी जो आज यह दिन देखने को मिल रहा है | मैं बार-बार उस बदकिस्मत घड़ी को कोसती हूँ, जब मैं सड़क के किनारे अपने बच्चों के साथ बैठी हुई गुनगुनी धूप का आनंद ले रही थी | चारों बच्चे आपस में उछल-कूद कर रहे थे | मैं बच्चों के खेल देखने में इतनी मशगूल थी कि पता ही नहीं चला कि कब एक गाड़ी मेरे क़रीब आकर खड़ी हो गई | उसमें से चार-पाँच लोग कुछ सामान लेकर नीचे उतर कर मेरी ओर बढ़ने लगे लेकिन मैं अपनी ओर बढ़ते इस खतरे से बेख़बर अपनी ही दुनिया में खोई हुई थी | मुझे ख्व़ाब में भी गुमान नहीं था कि मेरी बदकिस्मती मेरे इतने क़रीब पहुँच चुकी थी | इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाती उन लोगों ने मुझे एक मज़बूत से जाल में क़ैद कर लिया | मैंने उसमें से निकलने के लिए बहुत ज़ोर लगाया, बहुत चीखी-चिल्लाई, छटपटाई लेकिन उन्होंने मुझे जाल समेत उठाकर गाड़ी में पटक दिया | मेरे चारों साथी और मेरे नन्हे-नन्हे बच्चे भी मेरी दुर्दशा देखकर लगातार चीख़ रहे थे | लेकिन उस वक़्त वहाँ कौन था मेरी चीख़-पुकार सुनने को | आख़िरकार, उन सबने मुझे लाकर एक कमरे में क़ैद कर दिया था |
लगता है इस वक़्त बाहर से कुछ अजीब सी आवाज़ें आ रही हैं | आवाजें लगातार बढ़ती जा रही हैं जिसकी वजह से मेरी घबराहट भी बढ़ रही है | दिल बहुत तेज़ी से धड़क रहा है | इस वक़्त का यह एहसास कुछ अलग ही अजीबो-गरीब है जो पहले कभी नहीं हुआ | ऐसा लग रहा है जैसे यह कमरा ऊपर की तरफ़ चला जा रहा हो | समझ में नहीं आ रहा कि आगे क्या होने वाला है ? इस खौफ़ के आलम में मैं चीखने-चिल्लाने की लाख़ कोशिश कर रही हूँ लेकिन इस वक़्त कौन है यहाँ मेरी आवाज़ सुनने को | यह मशीन भी लगातार चले जा रही है रुकने का नाम ही ले रही है | न जाने आज क्या-क्या होने वाला है ? यह क्या, अचानक गर्मी क्यों बढ़ रही है ? अब तो यह बर्दाश्त के बाहर होती जा रही है | सारा बदन झुलसने लगा है | हे मालिक, मेरी हिफाज़त कर | लगता है मेरा आख़िरी वक़्त आ गया है | मैं बुरी तरह से झुलस रही हूँ | कोई तो बचाओ मुझे | बचाओ, बचाओ, बचाओ ...... |