चक्र
गर्मी के दिन थे | एक दिन सुबह के वक़्त एक बुलबुल खाने की खोज में भटक रही थी | अब तो सूरज भी चढ़ आया था लेकिन अभी तक उसे कुछ भी खाने को नसीब नहीं हुआ था | भूख की वजह से अब उसका सिर चकराने लगा था | वह घास पर बैठे-बैठे सोच रही थी कि थोड़ी देर में धूप और तेज़ हो जाएगी और फिर भटकना और भी मुश्किल हो जाएगा | क्या उसे आज कुछ भी खाने को नसीब नहीं होगा ? ऐसा सोचते-सोचते अचानक उसकी नज़र एक मोटे से टिड्डे पर पड़ी | हरे रंग का होने के कारण वह घास पर नज़र नहीं आ रहा था | टिड्डे को देखते ही बुलबुल की आँखों में चमक आ गई और उसने फ़ौरन झपट्टा मार कर उस टिड्डे को अपनी चोंच में दबा लिया | वह खुशी-खुशी उसे लेकर क़रीब के मकान की छत पर ले आई जहाँ वह सुकून से स्वाद ले-ले कर उसे खा सके | बुलबुल की चोंच में दबा हुआ बेचारा बेबस और खौफज़दा टिड्डा दर्द से चीख़े जा रहा था, “मुझे छोड़ दे दुष्ट, मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है जो तू मुझे मारने के लिए ले आई है | मुझ पर रहम कर | मेरे छोटे-छोटे बच्चे घर पर मेरा इंतज़ार कर रहे हैं |” बुलबुल उसे पंजे से दबा कर हँसते हुए बोली, “तुझे छोड़ दूँगी तो खाऊँगी क्या ? इतने दिनों बाद तो ऐसा मोटा टिड्डा पकड़ में आया है | आज तो मैं पेट भर कर तुझे खाऊँगी |” ऐसा कहकर बुलबुल ने उस टिड्डे के पर नोचने शुरू कर दिए | टिड्डा दर्द से तड़पता रहा लेकिन बुलबुल पर उसकी चीख़ों का कोई असर नहीं हो रहा था | थोड़ी देर में टिड्डे का शरीर निष्प्राण हो गया लेकिन बुलबुल उसके बेजान जिस्म को आख़िरी कतरे तक नोच-नोच कर खाती रही | टिड्डे को खाकर बुलबुल ने एक लम्बा डकार लिया और तसल्ली से बोली, “आज का दिन बहुत शुभ है | भगवान को आज के लज़ीज़ भोजन के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया |”
लेकिन बुलबुल की खुशी ज़्यादा देर कायम न रह सकी | उसी वक़्त एक बिल्ली ने जो कुछ देर से उसके पीछे घात लगाए हुए बैठी थी उस पर अचानक हमला कर दिया | बुलबुल जब तक संभल पाती बिल्ली ने उसे अपने मुँह में दबोच लिया | ख़ुद को मौत के मुँह में पाकर बुलबुल बुरी तरह से भयभीत हो गई | वह दर्द से चीख रही थी, “मुझे छोड़ दे दुष्ट, मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है जो तू मुझे मार रही है | मुझ पर रहम कर | मेरे छोटे-छोटे बच्चे घर पर मेरा इंतज़ार कर रहे हैं |” लेकिन बिल्ली पर उसकी चीखों का कोई असर नहीं हुआ | वह ख़ुशी-ख़ुशी उसे मुँह में दबाए हुए चल दी | आज बहुत दिनों बाद उसे एक मोटी चिड़िया हाथ लगी थी |
सार यह है कि किसी भी कृत्य के अच्छा या बुरा होने की परिभाषा व्यक्ति विशेष, सामाजिक परिवेश, क्षेत्र और वक़्त के साथ बदलती रहती है - यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह फायदेमंद है या नुकसानदेह |