[14]
सूरज अब अस्त हो चुका था। पश्चिम आकाश अपना रंग बदल रहा था। शैल भी अपना रंग बदल रहा था।
वत्सर ने आँखें खोली तो शैल ने अपने मूल लक्ष्य की दिशा में बातें प्रारंभ की ।
“जब कोई सर्जक किसी रचना का सर्जन करता है तो केवल दो ही संभावनाएं होती हैं, श्रीमान सर्जक।”
शैल ने कहा।
“हो सकती है।” उसने कहा।
“वह तो मैं कह रहा हूँ। आप अपना कुछ कहोगे?”
“मैं आपके मत से सम्मत हूँ, मुझे बस यही कहना है।”
“बिना जाने इन दो संभावनाओं के विषय में आप सहमत हो गए श्रीमान सर्जक?”
उसने कोई प्रतिभाव नहीं दिया।
“बड़ी शीघ्रता है आपको मेरी बातों से सहमत होने की? प्रत्येक बात में ऐसे ही शीघ्रता से सहमत हो जाते हो क्या?”
उसने पुन: कोई प्रतिभाव नहीं दिया। किसी प्रतिमा की भांति स्थिर खड़ा रहा।
“श्रीमान सर्जक, आप न ही कोई उत्तर दे रहे हो न ही प्रतिभाव। अपने रचे हुए शिल्पों की भांति स्थिर क्यों खड़े हो? इतना संज्ञान तो होगा ही कि आप शिल्पकार अवश्य हो किन्तु शिल्प नहीं।” पुन: वह मौन ही रहा।
“मैं आप से कुछ कह रहा हूँ, आप से बातें कर रहा हूँ, कुछ पुछ रहा हूँ। और आप कुछ नहीं बोल रहे हो। आपका यह मौन आपके विरुद्ध जा सकता है, श्रीमान सर्जक।” क्षण भर शैल रुका। उसके मुख पर किसी भाव को खोजने का यत्न किया किन्तु उसका आनन शैल को भाव विहीन लगा। वहाँ केवल शून्यता का ही शैल ने अनुभव किया।
“श्रीमान सर्जक, नहीं, श्रीमान शिल्पकार। शिल्प ही रचते हो न तुम?”
“श्रीमान इन्स्पेक्टर, आपको जो कहना हो वह कहिए न। मेरे अनुमोदन की प्रतीक्षा क्यों करते हो? आप किसी दो संभावनाओं की बात कर रहे थे।”
“शैल नाम है मेरा। शैल स्वामी। इस समय मैं केवल शैल बनकर आपसे बात करना चाहता हूँ। मुझे आशा है आप मेरा सहयोग करेंगे तथा मुझे शैल से इन्स्पेक्टर शैल बनने के लिए विवश नहीं करोगे। मेरा सहयोग करोगे। यदि मेरे भीतर का इन्स्पेक्टर आपसे बात करने लगेगा तो उसका मूल्य ..।”
शैल ने शब्दों को अपूर्ण ही छोड़ दिया। शिल्पकार पर उन अपूर्ण शब्दों का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
शिल्पकार का धैर्य शैल को विचलित कर रहा था किन्तु शिल्पकार अविचल था।
“शिल्प रचते रचते, शिल्पों के साथ रहते रहते तुम भी शिल्प की भांति प्रस्तुत हो रहे हो, शिल्पकार।”
“आप बार बार क्या मुझे शिल्पकार के नाम से संबोधित कर रहे हो? और कभी कभी श्रीमान सर्जक भी कह रहे हो?”
“क्या यह दोनों नाम असत्य हैं? अनुचित हैं?”
“कोई भी सर्जक हो या शिल्पकार, उसका एक नाम होता है। इस सत्य को जानना उचित नहीं है इन्स्पेक्टर?”
“शैल नाम है मेरा। शैल स्वामी।”
“और वत्सर नाम है मेरा।”
“ओह। स्मरण कराने के लिए धन्यवाद। किन्तु यदि मैं तुम्हें शिल्पकार अथवा सर्जक कहूँ तो इसमें आपत्ति क्या है? क्या तुम सर्जक नहीं हो? क्या तुम शिल्पकार नहीं हो? श्रीमान वत्सर?”
“है, शत प्रातिशत आपत्ति है, श्रीमान शैल।”
“क्या है? क्यों है?”
“समय आने पर बता दूंगा। तुम भी तो इंस्पेक्टर हो। तुम्हें इन्स्पेक्टर कहूँ तो तुम्हें क्यों आपत्ति हो रही है?’’
“यदि मैं इन्स्पेक्टर बन गया तो तुम्हें आपत्ति ही आपत्ति हो जाएगी।”
“और यदि मैं सर्जक अथवा शिल्पकार बन गया तो तुम्हें अधिक आपत्ति होगी इस बात का स्मरण रखना।”
“तुम मुझे भय दिखा रहे हो।”
“भयाक्रांत करने का प्रारंभ मैंने तो नहीं किया।”
“तुम कहना क्या चाहते हो? बात को उलझा क्यों रहे हो?”
“स्पष्ट सुन लो, स्पष्ट समज भी लो। यदि तुम मुझे कुछ कहना चाहते हो तो मुझे मेरे नाम से ही संबोधित करोगे। यदि किसी प्रमाद में अथवा किसी दोष से भी मुझे तुमने सर्जक अथवा शिल्पकार से संबोधित किया या ऐसी चेष्टा की तो मैं कोई उत्तर, पतिक्रिया अथवा प्रतिभाव नहीं दूंगा।”
“ऐसा क्यों?”
“क्यों कि जब जब मैं शिल्पकार होता हूँ तब तब मैं मौन होता हूँ। तब पत्थर बोलते हैं। पत्थर के भीतर छिपी प्रतिमा मुझसे बात करती है। मैं उसे सुनता हूँ। मेरा पूरा ध्यान उसकी बातों पर होता है। वह जैसे जैसे कहती है मैं वैसे वैसे करता जाता हूँ। बिना कुछ कहे, बिना कुछ पूछे । उस समय मैं किसी भी बात को नहीं सुनता। न ही किसी वस्तु को देखता हूँ। इस प्रकार प्रतिमा स्वयं अपना अनावरण करवाती है। यह बात केवल मेरे लिए ही नहीं, किसी भी सर्जक के लिए सत्य होती है। उस समय सभी सर्जक की यही अवस्था होती है। किसी भी सर्जक से बात करने का यह विवेक जितनी शीघ्रता से सिख लोगे उतना ही लाभ होगा, श्रीमान शैल जी।”
“चलो यह बात मैंने गांठ बांध ली। इसका कभी विस्मरण नहीं होगा।”
“इतनी सी बात स्वीकार करने के लिए धन्यवाद, श्रीमान शैल जी।”
“मैं मेरी बात कहूं उससे पुर्व दो बातें विशेष रूप से करनी है। एक, तुम मुझे शैल नाम से संबोधित करोगे। यह मेरा आग्रह है, वत्सर से।”
“स्वीकार्य है।”
“दूसरी बात, क्या मैं अपने प्रयासों से वत्सर नाम के अंतर्गत निहित किसी प्रतिमा का अनावरण कर सकूँगा?”
“यह तो तुम्हारे शिल्प कौशल्य पर निर्भर है जिससे इस समय तक तो मैं अनभिज्ञ ही हूँ।”
“मेरे कौशल्य की चिंता से तुम मुक्त रहो।”
“जैसी तुम्हारी मनसा।”
“तो मैं कह रहा था कि जब कोई सर्जक किसी रचना का सर्जन करता है तो केवल दो ही संभावनाएं हो सकती है, श्रीमान सर्जक।”
वत्सर ने शैल की आँखों में तीव्रता से देखा। शैल उस दृष्टि के भावों को शीघ्र ही समज गया।
“क्षमा, क्षमा करना। सर्जक नहीं वत्सर।”
वत्सर की दृष्टि कोमल हो गई।
“यदि तुम उनके विषय में बताना चाहते हो तो बता सकते हो, मैं पूछूँगा नहीं।”
“तथापि सुननी तो पड़ेगी ही।”
वत्सर निर्लेप रहा।
“एक, कोई भी सर्जन उसके सर्जक की कल्पना हो सकती है।” शैल कुछ घड़ी रुका। वत्सर के मुख पर कोई भाव को, किसी मुद्रा को खोजता रहा।
विफल।
वत्सर की सभी मुद्राएं स्थिर थीं। भाव शून्य थीं।
“दूसरी संभावना होती है कि सर्जक ने स्वयं कुछ ऐसा देखा हो, सुना हो, अनुभव किया हो।” शैल ने पुन: वत्सर के भावों को परखा । पुन: विफल।
“तो वत्सर, यह बताओ कि तुम्हारे साथ क्या हुआ था उस समय कि तुमने उस शिल्प की रचना कर डाली? कहाँ है वह शिल्प?”
“तो, तुम्हारे यहाँ आने का मूल उद्देश्य कुछ भिन्न ही है।”
“मैं उस शिल्प के विषय में जानना चाहता हूँ।”
“जो शिल्प मैंने रचा है उसका तो तुम दर्शन कर चुके हो। उसके विषय में मैं बता भी चुका हूँ।” वत्सर ने कृष्ण की मूर्ति की तरफ संकेत किया।
“मैं इस शिल्प की बात नहीं कर रहा हूँ।”
“तो कौन से शिल्प की बात कर रहे हो?”
“आज से आठ वर्ष पूर्व गंगटोक की शिल्प प्रदर्शनी में जो शिल्प तुमने रखा था वह शिल्प।”
“वह शिल्प तो मैं वहीं छोड़कर आया हूँ।”
“और हत्या कर उसका मृतदेह सतलुज नदी में बहा आए हो?”
“हत्या? किसकी हत्या?”
“हर अपराधी अपराध करने के पश्चात अनभिज्ञ होने का नाटक करता है, तुम्हारी तरह।”
“मैंने किसी की हत्या नहीं की।”
“तो किसने की?”
“यह तो आप जानो। मुझे इस बात का कोई ज्ञान नहीं है।”
“पहले यह बताओ कि वह शिल्प कहाँ है? बाकी सब तुम स्वयं समझ जाओगे। कहाँ है वह शिल्प?”
“वह तो मेरे पास नहीं है।”
“तो कहाँ है?”
“मैं उसे किसी को दे चुका हूँ।”
“कौन है वह? कहाँ है वह?”
“उसका नाम येला है। और ..।”
वत्सर को सुनने का धैर्य खोते हुए शैल ने कहा, “और क्या? कहाँ है येला?”
वत्सर कुछ उत्तर दे उससे पूर्व ही येला ने कहा, “मैं यहाँ हूँ। श्रीमान शैल।”
“येला? तुम?” शैल और वत्सर एक साथ अचंभित होते हुए बोल पड़े।