Anternihit - 9 in Hindi Classic Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | अंतर्निहित - 9

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अंतर्निहित - 9

[9]

येला गंगटोक लौटने की तैयारी कर रही थी तब उसने समाचार में देखा कि किसी एक नगर में पुलिसवालों ने किसी निर्दोष को प्रताड़ित किया और उसका पूरा परिवार पुलिस की यातना से त्रस्त होकर नगर छोड़कर चला गया। 

‘क्या पुलिस ऐसा भी कर सकती है?’

‘जो देखा वह सत्य देखा है।’

‘तो क्या शैल भी वत्सर को तथा उसके परिवार को इसी प्रकार से प्रताड़ित करेगा?’

‘पुलिसवाला है। कुछ भी कर सकता है।’

‘तो क्या मैंने वत्सर के विषय में तथा उसके शिल्प के विषय में शैल को बताकर भूल कर दी?’

‘वह तो समय आने पर ज्ञात होगा।’

‘मेरे कारण वत्सर को यातनाएं मिलेंगी यह तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था।’

‘अब तो सोच लिया न?’

‘तो अब क्या कर सकती हूँ?’

‘किसी भी प्रकार से वत्सर को सूचित कर दो। उसे वहाँ से कहीं अज्ञात स्थल पर चले जाने को कह दो।’

‘यह ठीक रहेगा। मैं उसे सूचित कर देती हूँ।’

‘यह पुलिस का विषय हो गया है। अब सूचित करने पर भी वत्सर कुछ दिनों तक बच सकता है किन्तु पुलिस सदैव उसके पीछे पड़ी रहेगी। कब तक वह छुपकर रहेगा?’

‘तो क्या करूँ? उसे इतना तो सूचित कर सकती हूँ की वह सावध रहे और पुलिस से बातें करते समय किसी वकील को साथ रखे।’

‘यह अवश्य कर सकती हो।’

येला ने वत्सर को कॉल लगाया। संपर्क नहीं हो सका। उसने पुन: प्रयास किया। विफल। वह बार बार प्रयास करती रही, विफल होती रही। 

‘कल पुन: प्रयास करूंगी।’ मन को आश्वासन देती हुई वह सो गई। 

प्रात: होते ही वह अपनी गंगटोक यात्रा की सज्जता में व्यस्त हो गई। संध्या हो गई। यात्रा प्रारंभ करने का समय हो गया किन्तु वत्सर से संपर्क नहीं हो सका। वह बस स्थानक पहुंची। बस की प्रतीक्षा करने लगी। बस का समय हो गया किन्तु बस नहीं आई। उसने अधीर होकर पूछा तभी स्थानक वाले ने बताया कि वह बस आज की यात्रा के लिए निरस्त कर दी गई है। अब वह कल चलेगी। किसी ने ऐसा होने का कारण नहीं बताया। येला निराश हो गई। 

उसने वत्सर से संपर्क करने का नूतन प्रयास किया। वह इस बार भी विफल रही। वह अधिक निराश हो गई, दुखी हो गई। 

‘ना बस मिल रही है, ना ही वत्सर से संपर्क हो रहा है? नियति, तुम मुझे कौन सा संकेत दे रही हो?’ येला ने मन ही मन ईश्वर से प्रश्न किया। ईश्वर ने उसे उत्तर भी दिया। एक बस आई जो दिल्ली जा रही थी। येला ने उसे देखा, क्षणभर विचार किया और चड़ गई उस बस में। 

‘दिल्ली से मैं वत्सर के पास चली जाऊँगी। मेरा वहाँ जाना अति आवश्यक है। मुझे उसे शैल जैसे पुलिस से बचाना होगा। इस समय नियति कह रही है कि वत्सर के पास मेरा होना नितांत आवश्यक है।’

उसने वत्सर के पास जाने का निर्णय भी कर लिया, सज्जता भी कर ली। 

@^& (*)

दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी [जे एन यु ] के प्रोफेसर निहारिका के घर शिल्पकार सपन और निहारिका के मध्य गुप्त मिलन हो रहा था। 

“वह सतलुज मृतदेह वाले केस में पाकिस्तान से इन्स्पेक्टर सारा भारत आ चुकी है। हमें उसे मिलणा होगा। उसे सारी बात बतानी होगी। और हो सके तो उसे गंगटोक लेकर चलेंगे।” सपन को निहारिका ने कहा।

“निहारिका, क्या योजना है? विस्तार से कहो।”

“तुम्हें गंगटोक वाली वह शिल्प प्रदर्शनी तो याद है न? जहां तुम भी थे मेरे साथ।”

“हाँ, मैं उसे कैसे भूल सकता हूँ? तुम्हारे साथ बिताई हुई वह प्रथम रंगीन रात्रियों को मैं कभी नहीं भूल सकता, निहारिका।”

“वह बात अब बहुत पुरानी हो चुकी है। उसके पश्चात तुम और मैं घाट घाट के पानी पी चुके हैं।”

“फिर भी वह रातें? ओ निहारिका। क्या आज वही बात होने जा रही है?” सपन निहारिका के समीप गया। निहारिका ने उसे वहीं रुकने का संकेत करते हुए कहा, “नहीं। आज नहीं। फिर कभी देखेंगे। अभी उसे भूल कर मेरी बात पर ध्यान दो।”

सपन रुक गया, “कहो, क्या है?”

“उस प्रदर्शनी में जो शिल्प को प्रथम इनाम मिला था वह शिल्प याद है?”

“हाँ, क्यों नहीं?”

“कहो, क्या था वह शिल्प?”

“सतलुज नदी के मध्य, भारत पाकिस्तान सीमा में एक मृतदेह, आधा भारत में, आधा पाकिस्तान में। ओह, अरे  यह तो वही शिल्प है जो घटना आज कल टीवी पर दिखाई जा रही है।”

“वह शिल्प के विषय में सारा को बताना होगा। सारा, वही पाकिस्तान से आई इन्स्पेक्टर। जो इस केस में भारत की  पुलिस के साथ काम करने आई है।”

“इससे क्या होगा?”

“सारा उस शिल्प के आधार पर उस केस को सॉल्व कर देगी जब कि भारत की पुलिस नहीं कर पाएगी। सोचो अगर ऐसा हुआ तो भारत की पुलिस की कैसी बदनामी होगी? पाकिस्तान की जयजयकार होगी।”

“फिर?”

“फिर हमारा टूलकित काम करने लगेगा। टीवी पर हमारे लोग भारत सरकार पर लांछन लगाते जाएंगे। भारत सरकार के प्रवक्ता उसका जवाब देते देते थक जाएंगे।”

“वह वह। यह तो बड़ा मजा देनेवाली बात है। कहो कैसे इसपर कार्य करना है?”

निहारिका ने सपन को सारी योजना बताई। अनेक लोगों का फोन पर संपर्क किया गया। सभी को अपनी अपनी भूमिका बता दी गई। सभी को अपना अपना दायित्व सौंप दिया गया।

“अब सब कुछ निश्चित हो गया। बस अब देखते जाओ।”

निहारिका ने घड़ी देखि। रात्री के दो बज रहे थे। 

“सब योजना तैयार हो गई। अब मैं चलता हूँ।”

“कहाँ चले?” 

“घर।“

“क्यों? घर कौन प्रतीक्षा कर रहा है?” निहारिका ने व्यंग स्मित के साथ पूछा। 

“कोई नहीं।” वही स्मित के साथ सपन ने उत्तर दिया। 

“तो चलो, इस योजना बनाने का उत्सव मानते हैं।”

दोनों एक दुसरे के समीप गए, एक दूसरे को समर्पित हो गए। दिल्ली का गगन काले बदल की छाया से ढँक गया।