Samta ke Pathik: Bhimrao - 14 in Hindi Biography by mood Writer books and stories PDF | समता के पथिक: भीमराव - 14

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समता के पथिक: भीमराव - 14

एपिसोड 14 – पूना पैक्ट : समझौता या संघर्ष?

पृष्ठभूमि : दलितों के लिए अलग निर्वाचन

1930 में जब ब्रिटिश सरकार ने राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस (Round Table Conference) बुलाई, तो उसमें भारत की आज़ादी और दलितों के अधिकारों पर चर्चा हुई।
अंबेडकर को भी उसमें बुलाया गया। पहली बार लंदन की उस बड़ी अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक सभा में दलित समाज की आवाज़ गूँजी।

अंबेडकर ने वहाँ साफ कहा –
“दलित हिंदुओं से अलग हैं। अगर हमें स्वतंत्रता में बराबरी चाहिए तो हमें अलग राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिया जाए।”

ब्रिटिश प्रधानमंत्री रामसे मैकडोनाल्ड ने 1932 में कम्युनल अवार्ड घोषित किया। इसमें दलितों को हिंदुओं से अलग एक अलग निर्वाचक मंडल (Separate Electorate) देने का प्रावधान था।
इसका अर्थ था कि दलित अपने लिए अपने नेताओं का चुनाव करेंगे, ऊँची जाति के हिंदू इसमें दखल नहीं दे सकेंगे।

गांधी का विरोध

महात्मा गांधी इस फैसले के खिलाफ खड़े हो गए। उनका तर्क था –
“अलग निर्वाचक मंडल हिंदू समाज को बाँट देगा। यह हमारी एकता और स्वतंत्रता आंदोलन को कमजोर करेगा।”

गांधी ने ऐलान कर दिया कि अगर ब्रिटिश सरकार इस निर्णय को वापस नहीं लेगी, तो वे मृत्यु-पर्यंत उपवास करेंगे।
गांधी उस समय पुणे की यरवदा जेल में बंद थे। वहाँ से उन्होंने उपवास की घोषणा की।

अंबेडकर की दुविधा

दूसरी ओर अंबेडकर को लगता था कि यह मौका दलित समाज के लिए ऐतिहासिक है।
अगर अलग निर्वाचन मिल जाता, तो दलित अपने असली प्रतिनिधि चुन सकते थे। यह उनके लिए राजनीतिक स्वतंत्रता की पहली सीढ़ी होती।

लेकिन गांधी की उपवास घोषणा ने पूरे देश का माहौल बदल दिया।
गांधी को बचाने के लिए देशभर में आंदोलन उठने लगे। लोग कहने लगे कि “अगर गांधी मर गए तो उसकी जिम्मेदारी अंबेडकर पर होगी।”

अंबेडकर गहरे दबाव में आ गए। एक तरफ पूरा राष्ट्रपिता कहे जाने वाले गांधी का जीवन, दूसरी तरफ दलितों का भविष्य।

पुणे जेल में ऐतिहासिक मुलाकात

24 सितंबर 1932 को अंबेडकर और गांधी की ऐतिहासिक मुलाकात पुणे की यरवदा जेल में हुई।
घंटों बातचीत चली। गांधी बार-बार कहते रहे –
“अगर दलित अलग हो गए तो हिंदू समाज बिखर जाएगा।”

अंबेडकर ने जवाब दिया –
“हमने कब हिंदू समाज से कुछ पाया है? आपने हमें हमेशा बाहर रखा है। अब अगर हमें अलग हक़ मिल रहा है, तो आप क्यों विरोध कर रहे हैं?”

बहस कई घंटों तक चलती रही। अंततः दोनों पक्षों ने समझौता किया, जिसे पूना पैक्ट (Poona Pact) कहा गया।

पूना पैक्ट की शर्तें

समझौते के मुख्य बिंदु ये थे –

1. दलितों को अलग निर्वाचक मंडल (Separate Electorate) नहीं मिलेगा।


2. लेकिन विधानसभाओं में दलितों के लिए आरक्षित सीटें होंगी।

ब्रिटिश प्रस्ताव में 78 सीटें थीं, जो बढ़ाकर 148 कर दी गईं।



3. दलित मतदाता पहले आम चुनाव में वोट देंगे, लेकिन उम्मीदवारों की सूची में केवल दलित उम्मीदवार होंगे।


4. सरकार दलितों की शिक्षा और सामाजिक सुधार के लिए विशेष धनराशि देगी।



समझौते पर हस्ताक्षर

गांधी और अंबेडकर दोनों ने इस समझौते पर हस्ताक्षर किए।
गांधी ने उपवास तोड़ दिया। देशभर में खुशियों की लहर दौड़ गई। अख़बारों ने लिखा –
“गांधी बच गए, हिंदू समाज बच गया।”

लेकिन अंबेडकर का दिल भारी था। उन्होंने महसूस किया कि उन्होंने दबाव में आकर समझौता किया है।

अंबेडकर की पीड़ा

समझौते के बाद अंबेडकर ने सार्वजनिक रूप से कहा –
“मैं जानता हूँ कि मैंने दलित समाज को वह नहीं दिया, जिसकी उन्हें सबसे ज्यादा ज़रूरत थी। लेकिन अगर गांधी मर जाते, तो सारा देश दलितों को दोषी ठहराता। इस दबाव में मैंने समझौता किया।”

उनकी यह पीड़ा आज भी इतिहास का हिस्सा है। अंबेडकर ने कहा था –
“पूना पैक्ट दलितों के गले में पड़ी हुई ज़ंजीर है।”

फिर भी एक जीत

हालाँकि अंबेडकर इसे हार मानते थे, लेकिन सच यह है कि पूना पैक्ट ने दलितों को राजनीति में स्थायी प्रतिनिधित्व दिलाया।
आगे चलकर यह व्यवस्था भारतीय संविधान का हिस्सा बनी और आरक्षण प्रणाली की नींव पड़ी।

गांधी और अंबेडकर का रिश्ता

पूना पैक्ट ने गांधी और अंबेडकर के रिश्ते को और जटिल बना दिया।
गांधी ने अंबेडकर का सम्मान किया, पर उनके विचारों से सहमत नहीं थे।
अंबेडकर ने भी गांधी के संघर्ष की सराहना की, लेकिन हिंदू समाज में सुधार की उनकी राह को भ्रम मानते रहे।