रीतेश के मुँह से कर्त्तव्य वाली बात सुनकर माही ने कहा, "आपने मुझसे शादी की है तो कुछ कर्त्तव्य तो आपका भी मेरे प्रति बनता है।"
रीतेश ने झुंझलाते हुए कहा, "माही, तू मुझे हर रात अपमानित करेगी तो क्या मैं तेरी आरती उतारूंगा? अरे, अपमान का बदला अपमान। तू मुझे हर रात खुश रख ताकि मुझे जबरदस्ती करना ही न पड़े, और फिर अब तक भी तूने मकान की बात तो अपने पापा से की नहीं। लगता है, तेरे भाई का प्यार ही तुझे रोक रहा है। उसका ही कुछ करना पड़ेगा। एक बार वह मकान दिलवा दे, बस फिर तुझे यहाँ कोई तकलीफ नहीं होगी।"
माही ने गुस्से में कहा, "मकान तो तुम्हें हरगिज़ नहीं दूंगी। तुमसे जो बने कर लो। अपनी माँ को मकान दिलाने का इतना ही शौक है तो ख़ुद की मेहनत से कमाकर दिलाओ। क्या तुम्हारी भुजाओं में इतना भी दम नहीं है जो मेरे पापा के मकान पर नज़र गड़ाए बैठे हो?"
इतना सुनते ही रीतेश का दिमाग़ घूम गया और उसने माही को मारना शुरू कर दिया। दो-चार तमाचे मारने वाला रीतेश आज तो हाथ-पांव के साथ ही साथ कमर से बेल्ट उतार कर उससे भी माही को मारने लगा। कमरे से आवाज़ जैसे ही बाहर आई, तो शोभा भी कमरे में आ गई।
आते ही शोभा ने कहा, "दो-चार मेरी तरफ़ से भी लगा दे, रीतेश। बहुत नकचढ़ी होती जा रही है। सीधे मुँह बात ही नहीं करती।"
तभी दूसरे कमरे से नताशा की आवाज़ आई, उसने कहा, "भैया, मैं जब भी भाभी की साड़ी पहनती हूँ, तो उनका मुँह चढ़ जाता है।"
"अरे, नताशा, निकाल ले ना सब साड़ियाँ। तू उससे भीख क्यों मांगती है? यह तेरा घर है और यहाँ की हर चीज़ पर तेरा हक़ है।"
इतने में विनय कमरे में आए और इस तरह से लात, घूसे और बेल्ट से माही को पिटते देखकर कहा, "अरे, रीतेश, ये मर जाएगी तो तुझे जेल हो जाएगी। उसके बारे में नहीं, अपने बारे में सोच।"
विनय की बात मानकर रीतेश रुक गया। पर आज तो उसने मार-मार कर माही को अधमरा ही कर दिया था।
गुस्से में तमतमाए रीतेश को देखकर शोभा ने पूछा, "होश ठिकाने लगा दिए ना कलमुँही के?"
"अरे माँ, आप चिंता मत करो, मैंने उसके होश ठिकाने लगा दिए हैं। अब वह डरकर काँप रही है। आज से वह कठपुतली की तरह मेरे इशारे पर नाचेगी।"
"रीतेश, देखना कहीं मर न जाए?"
"अरे नहीं माँ, मरने नहीं दूंगा उसे।"
माही को सुनाने के लिए शोभा ने बहुत ज़ोर से चिल्ला कर कहा, "अरे, रीतेश, यह उस राखी जैसी सीधी नहीं है। एक-एक क़दम फूंक-फूंक कर रखना। उस समय तो हम बच गए, किसी को कुछ पता नहीं चला। सब उस घटना को दुर्घटना ही समझते रहे। उसका मकान तो हमारा न हो पाया। अच्छा हुआ, मर गई और हमारा कुछ नहीं बिगड़ा, पर यह तो मुझे तेज लगती है। संभल कर चाल चलना। इस भाड़े के मकान में पता नहीं कब तक रहना पड़ेगा। तेरा निकम्मा बाप तो पूरी ज़िंदगी में एक मकान तक नहीं खरीद पाया। अब बस तुझसे ही उम्मीद है।"
"अरे माँ, फ़िक्र मत करो, हो जाएगा।"
शोभा ने माही की तरफ़ घूर कर देखते हुए कहा, "हो तो जाएगा, रीतेश, पर कब होगा? इसके लक्षण तो ऐसे नहीं लग रहे हैं कि यह अपने बाप से यह कहेगी कि मकान मुझे चाहिए। समय तो बीतता ही चला जा रहा है।"
रीतेश ने अपनी माँ को दिलासा देते हुए कहा, "अरे माँ, नहीं कहेगी तो यह कोई दुनिया की आखिरी लड़की थोड़ी है। यह नहीं और सही, मकान तो मैं आपको दिलवा कर ही रहूँगा।"
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः