रीतेश अपनी माँ की हर बात मानता था और उन्हीं के कहने से उसने माही पर हाथ उठाया था।
अपनी इस जीत से खुश होकर शोभा ने मुस्कुरा कर माही की तरफ़ देखकर कहा, "कल से सुबह सात बजे तक टिफिन और नाश्ता सब तैयार हो जाना चाहिए।"
माही का मन कर रहा था कि इसी वक़्त वह अपना सूटकेस लेकर वहाँ से निकल जाए, परंतु उसने ऐसा नहीं किया। उसने सोचा एक बार उसे और कोशिश करनी चाहिए, यह शादी कोई मज़ाक नहीं है। वह सोच रही थी कि उसे भी तो ऑफिस जाना है। सिर्फ़ एक हफ्ते की छुट्टी बाक़ी है, उसके बाद क्या होगा? इन्हीं ख़्यालों में खोई माही गुमसुम हो गई। शादी के सारे सपने जलकर राख हो गए। अपना भविष्य उसे अंधकार में दिखाई देने लगा। फिर भी उसने अगले दिन सुबह और जल्दी उठकर सही समय पर सबके लिए टिफिन और नाश्ता तैयार कर दिया।
शोभा ने देखा सब समय पर तैयार हो गया है तो उसने अलग विवाद शुरू कर दिया। पराठे के साथ आमलेट खाते ही उसने थूकते हुए कहा, "कितना बदस्वाद खाना बनाया है, लगता है माँ ने कुछ भी नहीं सिखाया। अपनी बला हमारे माथे मढ़ दी।"
माही ने धीमी आवाज़ में कहा, "मम्मी जी मेरी माँ को तो इस सब में मत जोड़िए। आप उनका नाम क्यों ले रही हैं और अच्छा तो बना है। मैंने बनाते समय चख कर देख लिया था।"
"बाप रे बाप, हम सबको अपना झूठा खिला रही है।"
नताशा भी अपनी माँ की हाँ में हाँ मिला रही थी। वह चाहती तो अपनी माँ को समझा सकती थी, पर उसने ऐसा नहीं किया। इसी तरह से शोभा और नताशा रोज़ किसी न किसी बात पर माही को तंग करने लगे।
एक हफ्ता बीतते ही माही ने रीतेश से कहा, "सुनिए, कल से मुझे भी ऑफिस जाना है। मेरी छुट्टियाँ ख़त्म हो गई हैं।"
यह सुनते ही रीतेश ने कहा, "तुम पागल हो गई हो क्या? अगर तुम ऑफिस चली जाओगी तो घर का काम-काज कौन करेगा?"
"रीतेश, यह तुम क्या कह रहे हो? क्या तुम लोग मुझे काम वाली बाई बनाकर रखना चाहते हो?"
"यह तुम्हारा घर है माही और अपने घर का काम करने से कोई काम वाली नहीं बन जाता। अजीब मानसिकता है तुम्हारी।"
"रीतेश, तुम्हें यह सब मुझे शादी से पहले ही कह देना चाहिए था।" "तो तुम मुझसे शादी नहीं करती हो ना? यही कहना चाह रही थीं ना?"
"हाँ, बिल्कुल, तुम सही समझे। मैं अपना हक़ चाहती हूँ। यदि तुम मुझसे मेरा हक़ छीनोगे तो यह रिश्ता ख़त्म हो जाएगा।"
दोनों के बीच अब रोज़ ही लड़ाई होने लगी। सास और ननंद के साथ भी माही की तू-तू, मैं-मैं होती तो रीतेश हमेशा उनका ही साथ देता। धीरे-धीरे सब कुछ ठीक हो जाएगा, सोचने वाली माही भी अब हिम्मत हारने लगी। रीतेश यदि उसकी तरफ़ होता, तब बात और होती, लेकिन यहाँ तो वह बिल्कुल अकेली थी। यदि साथ थे तो केवल उसके आंसू और उसका दुर्भाग्य। कुछ दिनों तक अपमान और अत्याचार सहन करते-करते माही हिम्मत हारने लगी। ठीक होने की संभावना अब उसे कम ही लग रही थी।
तब एक दिन उसने रीतेश से पूछ ही लिया, "रीतेश, आख़िर तुम लोग चाहते क्या हो? क्यों मुझे हर रोज़ प्रताड़ित कर रहे हो? बात-बात पर मेरा अपमान करते हो? मुझ पर बार-बार हाथ उठाते हो? जो भी है, साफ-साफ कह दो? यदि तुम्हें तलाक चाहिए तो उसके लिए भी मैं तैयार हूँ।"
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः