७ हनुमान बाहुक रह्स्य –प.गंगाराम शास्त्री समीक्षा ७ यह पुस्तक संस्कृत और तंत्र के बड़े विद्वान पण्डित गङ्गाराम शास्त्री जी सेंवढ़ा वालों द्वारा गहरे रिसर्च, अध्य्यन, अनुशीलन,खोज, अनुसंधान, तपस्या और प्रयोगों के बाद लिखी गयी है। इसमें बताये गये अर्थ और प्रयोग आम जनता को कृपा स्वरूप ही विद्वान लेखक ने पुस्तक स्वरूप में प्रदान किये हैं।(६१){खेमराज श्रीकृष्णदास बम्बई छापा में (३१)}{गीता प्रेस गोरखपुर छन्द क्र (२३)}राम को सनेह राम्, साहस लखन, सीय राम की भगति सोच संकट निवारिये।मुद-मरकट रोग-वारिनिधि हेरि हारे,जीव जामवन्त को भरोसो तेरौ भारिये। कूदिये कृपालु तुलसी सुप्रेम पर्वत तें, सुथल सुबेल भाल, बैठ के विचारिये।महावीर बांकुरे, बराकी बाहुपीर क्यों न, लंकिनि ज्यों लातघात ही मरोरि मारिये।इस कवित्त में तुलसीदास जी ने बड़ा ही सुन्दर रूपक बांधा है जो इस प्रकार हैमेरे मन में राम का जो स्नेह है वही राम है, मुझमें जो साहस है वही लक्ष्मण है, राम की भक्ति ही सीता जी है, मेरे मन का मोद-प्रसन्नता ही वानर है, मेरे शरीर का रोग ही समुद्र है, मेरा जीव ही जाम्बवन्त है, मेरा आपके प्रति प्रेम ही पर्वत है, छलांग लगाने के लिये ऊंचा स्थान है, मेरा मस्तक ही समतल समुद्र का तट है, बाहु की पीड़ा ही लंकिनी है।हनुमान जी ने राम और लक्ष्मण जी का शोक और संकट दूर करने के लिये समुद्र लांघा था। उस समुद्र के विस्तार को देखकर सभी बानर हताश हो गये थे। जाम्बवन्त को ही केवल हनुमान जी के बल का भरोसा था कि ये समुद्र पार जा सकते हैं। उन्होंने समुद्र पार जाने के पहिले समुद्र में छलांग लगाने के लिये ऊंचा स्थान महेन्द्र पर्वत चुना था। समुद्र के उस पार पहुंच कर समुद्र के समतल तट पर बैठ कर उन्होंने आगे की योजना बनाई थी। लंका में प्रवेश करते समय लंका नगरी की अधिष्ठात्री देवी लंकिनी ने उन का मार्ग रोकना चाहा जिसे उन्होंने बायें हाथ की मुट्ठी के प्रहार से मार डाला। इसी सन्दर्भ का यह सांगरूपक है।तुलसीदास ज्जि हनुमान जी से प्रार्थना करते हैं कि आपने जिस प्रकार लक्ष्मण और सीता जी का शोक दूर करने के लिये समुद्र लांघ कर और लंकिनी को मार कर लंका में प्रवेश किया था, उसी प्रकार आप मेरे हृदय के राम के प्रति प्रेम को राम मानकर, मेरे साहस को लक्ष्मण मानकर, मेरी भक्ति को सीता जी मानकर मेरे स्नेह साहस और भक्ति का संकट दूर कर दीजिये। यहां मेरा रोग ही समुद्र है जिसे देखकर मेरे आनन्द रूपी वानर हार मान बैठे है। मेरा जीव रूपी जामवंत आपके बल पर पूरा विश्वास कर रहा है। वहां आपने समुद्र संतरण के लिये महेन्द्र पर्वत पर चढ़कर छलांग लगाई थी, यहां मेरे प्रेम रूपी पर्वत पर रोग रूपी समुद्र को पार करने के लिये छलांग लगाइये। वहां आपने समुद्र पार जाकर लंका के विनाश की योजना अथवा अपने भावी कार्यक्रम की रूपरेखा समुद्र तट पर बैठकर बनाई थी यहां मेरा ललाट ही समुद्र तट है। लंका में प्रवेश करते समय जिस प्रकार लंकिनी ने बाधा पहुंचा कर आपका मार्ग रोकना चाहा उसे आपने लात से ही पछाड़ दिया उसी प्रकार मेरी बाहु पीड़ा रूपी लंकिनी को सहज ही मार डालिये अर्थात् नष्ट कर दीजिये। आप इस प्रकार मेरे रोग और बाहुपीड़ा को क्यों नहीं नष्ट कर देते।(६२){खेमराज श्रीकृष्णदास बम्बई छापा में (२३)}{गीता प्रेस गोरखपुर छन्द क्र (२५)}करम-कराल कंस भूमिपाल के भरोसे बकी बक-भगिनी काहू तें कहा डरेगी।बड़ी विकराल वालघातिनी न जात कहि बाहु-बल बालक छवीले छोटे छरेगी।आई है बनाइ वेष आप तू विचारि देख,पाप जाय सबको गुनी के पाले परेगी।पूतना पिसाचिनी ज्यों कपि-कान्ह तुलसी की बाहु-पीर महाबीर तेरे मारे मरेगी।मथुरा पर जिस समय कंस शासन करता था, उस समय बकासुर की बहिन पूतना नाम की राक्षसी कंस के आदेशानुसार कृष्ण को मारने के लिये बड़ा सुन्दर वेष बनाकर गोकुल आई थी। उसने अपने स्तनों में विष लगा लिया था। जब वह कृष्ण को गोदी में लेकर अपने स्तन को मुंह में देकर दूध पिलाने लगी तो कृष्ण जी ने विष के स्थान पर उसीके प्राण हर लिये। तुलसीदास जी कहते हैं कि मेरी बाहुपीड़ा भी उसी पूतना की भांति है इसे किसी का डर नहीं है यह बड़ी भयंकर है और बालकों को मार डालती है उनसे छल करती है। मेरा बाहु बल छोटे बालक के समान है जिसे यह पीड़ा रूपी पूतना सता रही है। यह अपना वेष बना कर आई है।इसे आप विचार कर देख लीजिये। यदि इसका आप जैसे गुणी से पाला पड़ जाय तो इसके मरने से सभी का पाप कट जायगा। हे महाबीर पूतना के समान यह मेरी बाहु- पीड़ा कन्हैया रूपी हनुमान जी के मारने से ही मर सकती है।तुलसीदास जी को यह विश्वास था कि किसीने किसी अभिचार के द्वारा उनके बाहु में यह पीड़ा उत्पन्न कर दी है। जो लोग मन्त्र प्रयोग और झाड़ फूंक करने वाले होते हैं, उन्हें गुणी कहा जाता है। तुलसीदास जी के समय तक और आज भी किन्ही अंशों तक यह विश्वास किया जाता है कि बारह वर्ष से कम आयु के बालको को पूतना नाम का रोग हो जाता है जिससे बालक दिनों दिन दुबला होता जाता है, उसे किसी औषधि से लाभ नहीं होता। प्राचीन ग्रन्थों में अनेक प्रकार के पूतना शान्ति के प्रयोग दिये गये हैं। जिन्हें उसके जानकार गुणी लोग प्रयोग कर रोग-शमन करते है। यहां उस प्रचलित विश्वास के आधार पर ही पूतना का रूपक बांधा गया है। यदि हनुमान जी इस बालघातिनी को नष्ट कर दें तो सभी का भविष्य में इस पूतना के द्वारा होने वाला संकट मिट जायगा। पाप कटना एक मुहावरा है। यहां-पाप जाय सबको-इसी पूतना के संकेत के लिये कहा गया है।(६३){खेमराज श्रीकृष्णदास बम्बई छापा में (३५)}{गीता प्रेस गोरखपुर छन्द क्र (२२)}उथपे थपन थिरथपे उथपनहारकेसरीकुमार बल आपनो सँभारिये ।राम के गुलामनि को कामतरु रामदूत मोसे दीन दूबरे को तकिया तिहारिये ।साहिब समर्थ तोसो तुलसी के माथे पर, सोऊ अपराध बिन वीर बांध मारिये ।पोखरी विसाल बाहु बलि वारिचर पीर, मकरी ज्यों पकरि के बदन बिदारिये।केसरीकुमार, आप उन लोगों को पुनः स्थायी रूप से प्रतिष्ठित करने में समर्थ हुए जो विस्थापित हो चुके थे। बालि ने सुग्रीव को राज्य से निकाल दिया था, रावण ने विभीषण को लात मार कर भगा दिया था उन्हें आपने ही पुनः राज्य पर प्रतिष्ठित कराया। जिनकी स्थिति सुदृढ़ रही उन्हें आपने उखाड़ फेंका। जैसे बालि और रावण । इस प्रकार जो स्थानभ्रष्ट हो जाता है उसे आप पुनः प्रतिष्ठित करने में समर्थ हैं। जो भलीभांति प्रतिष्ठित हो अभिमान में डूबा हो उसे आपको उखाड़ फेंकने में देर नहीं लगती। आप अपने बल का तो स्मरण कीजिये। राम-भक्तों के लिये आप कल्पवृक्ष के समान समस्त कामनाएं पूरी करने वाले हैं, फिर मैं तो अत्यन्त दीन और दुर्बल हूं। मुझे तो आपका ही सहारा है। जब आप जैसे समर्थ स्वामी तुलसीदास के संरक्षक हो फिर भी उसे इस प्रकार बांध कर पीटा जाय अर्थात् रोगों से सताया जाय और वह भी बिना किसी अपराध के इस बात का विचार तो कीजिये । मेरे इस बांह रूपी छोटे से तालाब में बाहुपीड़ा रूपी ग्रहिणी आकर सता रही है, इसे आप ग्रहिणी के समान ही मुंह फाड़ कर क्यों नहीं विदीर्ण कर डालते ।तलसीदास जी की यह पीड़ा जब किसी औषधि के प्रयोग तथा अन्य उपचार से दूर नहीं हुई तो उन्हें ऐसा विश्वास हो गया कि किसी ने अभिचार के द्वारा कोई कृत्या का प्रयोग कर दिया है। यद्यपि वे किसी का अहित नहीं करते थे, इस प्रकार उनका कोई अपराध नहीं था इसीलिये वे कहते हैं कि मुझे आप जैसे सहायक होते हुए भी बिन ही अपराध सताया जा रहा है। आप मेरी रक्षा क्यों नहीं करते।इस मन्त्र के कुछ काम्य प्रयोग-1- यदि सेवारत कर्मचारी निलम्बित कर दिया गया हो,2- यदि सेवा से पृथक् कर दिया गया हो,3- यदि किसी विशेष अधिकार से जैसे भूस्वामित्व, संस्था संचालन, पदग्रहण आदि से वंचित कर दिया गया हो,4- दस्युओं, गुण्डों, प्राणसंकट के भय, अथवा प्रबल शत्रुओं के कारण पलायन करने को विवश हो गया हो, तो निम्नलिखित प्रयोग करें-21 दिन तक प्रतिदिन इस मन्त्र कामाला पर 108 बार पाठ करे। पाठ का प्रारम्भ मंगलवार से करना चाहिये। प्रतिदिन हनुमान जी की प्रतिमा के सम्मुख स्नानादि से पवित्र होकर शुद्ध एकाग्र मन से पाठ करे। सात्विक भोजन कर बह्मचर्य का पालन करे। हनुमान जी के सभी अनुष्ठान करते समय ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य है। पाठ करते समय धूप दे घी का दीप जलाये। पाठ पूरा हो जाने पर केला, बेर आदि फलों का भोग लगाये। बाईसवें दिन मंगलवार को इसी मन्त्र से शमी वृक्ष की समिधा लेकर घी में डुबोकर 108 बार आहुति दे। यदि शमी वृक्ष की समिधा न उपलब्ध हो तो पलाश, खदिर, गूलर आदि की समिधाओं से अग्नि प्रज्वलित कर पायसान्न का हवन करना चाहिये। हनुमान जी को उस दिन गुड़मिश्रित पूड़ी (मालपुआ) और फल का भोग लगाकर प्रसाद वितरण करे।1- किसी भ्रष्ट आधिकारी को जनहित में हटाना आवश्यक होते हुए भी जो अपने प्रभाव का दुरुपयोग कर सार्वजनिक हित हानि कर रहा हो, उसके पद से हटाने अचवा स्थानान्तर के लिये,2- कोई अन्य व्यक्ति जिसके अन्याय अथवा गलत कार्यों से मुक्ति पाने के लिये उसका पदत्याग आवश्यक हो,3. किसी की भूमि, भवन आदि पर बलपूर्वक अधिकार करके बास्तविक अधिकारी को उसके सुख सुविधा से वंचित करने वाले को उस अधिकार से विरत करने के लिये, निम्नलिखित प्रयोग करना चाहिये-जिस मंगलवार को भद्रा हो उस दिन रात्रि में यह अनुष्ठान आरम्भ करे अनुष्ठान काल में केवल गेहूं की रोटी अथवा पूड़ी अथवा गेहूं के बने पदार्थों का उपयोग करे,प्रतिदिन हनुमान की प्रतिमा के सम्मुख श्रद्धापूर्वक इस मन्त्र का 108 बार पाठ करे। कार्य के महत्व के अनुसार 21 दिन 35 दिन अथवा 42 दिन इस प्रकार पाठ करके उससे अगले दिन मंगलवार को आम की लकड़ी सरसों के तेल में डुबोकर 108 आहुति दे। प्रति दिन पाठ के समय तेल का ही दीप जलाये।1- यदि कोई दीर्घकालीन व्याधि जिसे याप्य कहते हैं, उससे पीड़ित हो, कष्टसाध्य वातव्याधि से बहुत समय से पीड़ित हो,2- जिस पर किसी नीच व्यक्ति के द्वारा ईर्ष्यावश अभिचार, कृत्या प्रयोग अथवा जादू टोना कर दिया गया हो, जिसके कारण उसे मतिविभ्रम्, उन्माद, बुद्धि भ्रष्ट, विस्मृति आदि हो.3- घर में भूतप्रेतजनित उपद्रव होते हों, तो निम्नलिखित प्रयोग करना चाहिये-'हं हनुमते नमः हुं फट्' इस संपुट के साथ इस मन्त्र की प्रतिदिन एकसौ आठ आवृत्ति पूर्ववत् करे । गुग्गुल का होम करे। उस भस्म को प्रतिदिन पीड़ित व्यक्ति के मस्तक पर लगाये । 'हं हनुमते नमः हुं फट्' इस मन्त्र से मोरपंख से झाड़ा दे बाईसवे दिन हवन में नीम की समिधा का प्रयोग करे। कृत्या अभिचार की निवृत्ति के लिये अपामार्ग की समिधा घी में डुबोकर एकसौ आठ आहुति दे। हवन की भस्म पीड़ित व्यक्ति के मस्तक पर लगाये, कुछ भस्म खिला भी दे।घर से भूतविद्रावण के लिये सरसों की आहुति दे ।(६४){खेमराज श्रीकृष्णदास बम्बई छापा में (२५)}{गीता प्रेस गोरखपुर छन्द क्र (२६)}भाल की कि काल की कि रोष की त्रिदोष की है, वेदन-विषम पापताप छलछांह की।कारमन कूट की कि जन्त्रमन्त्र बूट की पराहि जाहि पापिनी मलीन मन मांह की।पैहहि सजाय नतु कहत बजाय तोहि बावरी न होहि बानि जानि कपिनाह की।आन हनुमान की दुहाई बलवान की, सपथ महावीर की जो रहे पीर बांह की।यह भयंकर पीड़ा मेरे भाग्य में लिखे किसी पूर्वजन्म के पाप के कारण है, अथवा समय अनुकूल न होने के कारण किसी ग्रह के अशुभ हो जाने के कारण है, ग्रह दशा ठीक न होने के कारण है, अथवा देवी देवता का मुझ पर क्रोध हो जाने के कारण है, अथवा खान पान में व्यत्यय होने से वात, पित्त, कफ की विकृति का फल है, अथवा मेरे किसी पाप का फल है, अथवा किसीने कुछ छलछिद्र कर दिया है, किसी भूतप्रेत की व्याधि के कारण है, अथवा किसीने कुछ जादू टोना कर दिया है. अथवा किसीने कोई छल किया है, अथवा किसीने कुछ मन्त्र प्रयोग कर अथवा किसी यन्त्र की साधना से अथवा किसी जड़ी बूटी का किसी तन्त्र के अनुसार मेरे विरुद्ध प्रयोग किया है, इनमें से जो कुछ भी इस पीड़ा का कारण हो, पापिनी पीड़ा तू अब दूर भाग जा। तू मन की बड़ी मैली है। मैं डंके की चोट कहे देता हूं कि यदि तू नहीं भाग खड़ी होती तो तुझे सजा मिलेगी। अब यहां रुक कर पागल न बन, तू कपीश्वर हनुमान की बान-हठ-जानती है। तुझे हनुमान की आन है, बलवान हनुमान की दुहाई है, तुझे महावीर हनुमान की सौगन्ध है जो अब तू मेरे पास रहे।इस कवित्त में-तुलसीदास जी ने पीड़ा नाश के लिये जिन वर्णो का प्रयोग किया है वे स्वयं किसी अन्य के लिये पीड़ानाशक मन्त्र बन गये हैं। उनके द्वारा ऊपर गिनाये गये किसी भी दोष से होने वाली बाधा का शमन सम्भव है।(६५){गीता प्रेस गोरखपुर छन्द क्र (२१)}बालक विलोकि, बलि, बारे तें आपनो कियो, दीनबन्धु दया कीन्हीं निरुपधि न्यारिये ।रावरो भरोसो तुलसी के, रावरोई बल, आस रावरीयै, दास रावरो विचारिये ।बड़ो विकराल कलि, काको न बिहाल कियो, माथे पग बली को निहारि सो निवारिये ।केसरी किसोर रनरोर बरजोर वीर,बाहु-पीर राहु-मातु ज्यों पकरि पछारिये।दीनबन्धु हनुमान्, आपने मुझे बचपन से ही असहाय बालक जानकर बचपन से ही अपनाया है, इस प्रकार आपने बड़ी दया की जिससे मैं किसी झंझट में न पड़कर निष्कपट रह सका। तुलसीदास को तो आपका ही बल भरोसा है। यह कलियुग का समय बड़ा विकट है इसने किसे व्याकुल नहीं किया। मेरे मस्तक पर यह कलियुग ही विराजमान हो गया है, इसने मुझपर अधिकार जमा लिया है, इसे आप देख ही रहे हैं। आप इससे मुझे बचाइये। केशरीकिशोर, आप तो युद्ध में बड़े ही प्रबल हैं। आप अपने बल से ही इस कलि से मुझे बचा सकते हैं। मेरी बाहु पीड़ा राहु की माता छाया-सिंहिका के समान है। सिंहका ने आकाश मार्ग से समुद्र पार जाते हुए जब आपकी छाया का स्तम्भन किया तो आपने जिस प्रकार उसे मार डाला था उसी प्रकार मेरी बाहु पीड़ा को पछाड़ कर मार डालिये, इसे नष्ट कीजिये ।निरुपधि न्यारिये के स्थान पर निरुपाधि न्यारिये पाठ मानकर इसका यह अर्थ भी किया गया है कि आपने मुझे अन्य धमों के रास्ते से बचाकर रामभक्ति के ठीक रास्ता दिखाया है।(६६){खेमराज श्रीकृष्णदास बम्बई छापा में (३८)}हनुमान है कृपाल लाड़ले लखनलाल, भावते भरत कीजे सेवक सहाय जू।विनती करत दीन दूबरो दयावनोसो, बिगरे तें आपही सुधार लीजे माय जू।मेरी साहिबनी सदा सीस पर विलसत, देवि क्यों न दास को दिखाइयत पाय जू। खीझहू में रीझबे की बान राम रीझत हैं रीझे ह्वैहै राम की दुहाई रघुराय जू।इस छन्द में तुलसीदास रामचन्द्र के पूरे परिकर से प्रार्थना करते हैं कि हनुमान आप कृपा करें। प्रिय लक्ष्मण, अच्छे लगने वाले भरत आप इस सेवक की सहायता कीजिये। मेरा काम तो विनय करना है मैं तो दीन और दुर्बल दया का पात्र हूँ मे विनय में कहीं कुछ भूल हो तो आप संभाल लें। सीता जी जो प्रभु की स्वामिनी और मेरी आराध्या हैं वे सदैव मेरे सिर पर हैं, मुझे आश्रय दिये हैं। अथवा मेरा नाम तुलसी है मेरे नाम से जिसका बोध होता है वह साहिबनी तुलसी सदा भगवान के मस्तक पर चढ़ाई जाती है, हे देवी आप दया कर मुझे भगवान राम के चरणों तक पहुंचा दें। यदि आप कहें कि राम मुझ सेवक से अप्रसन्न हैं तो कोई बात नहीं, वे अन्य राजाओं की भांति नहीं कि उसके सामने सेवक उस व्यक्ति को नहीं जाने देते जिससे राजा कुपित हों। राम की तो यह आदत है कि वे जिस पर प्रसन्न होते हैं उसका तो भला करते ही हैं, जिस पर अप्रसन्न होते हैं जिस पर खीझते हैं, उसका भी उद्धार करते हैं। उनके खीझ में भी रीझ रहती है। और वे मुझ पर अप्रसन्न है तो भी मैं राम की दोहाई देकर कहता हूं कि वे मुझ पर रीझेंगे भी, अथवा प्रसन्न भी हुए होंगे। मैं दीन, दुर्बल और दया का पात्र हूं इसलिये मुझ पर जो अप्रसन्न होगा वह भी मुझे देखते ही दया से द्रवित हो जायगा।प्रयोगघर में सुख, शान्ति और समृद्धि के लिए- रामपंचायतन का चित्र रखकर यथाविधि पूजन कर छन्दसंख्या 66 का प्रतिदिन एक माला जप 41 दिन तक करे। बयालीसवे दिन शमी की समिधा से रां रामाय नमः इस मन्त्र से पायस अथवा घी, शहद और शक्कर मिलाकर चावल की एक हजार आहुति दे ।(६७){खेमराज श्रीकृष्णदास बम्बई छापा में (७)}जयति हनुमान बलवान पिंगाक्ष शुचि कनकगिरि सरिस तनुरुचिर धीरं । अंजनीसूनु सियरामप्रिय कीशपति दलन निशचर कटक वीरं।दहन शक्रारि-बन महाबुध ज्ञानधन सुयश कहि निगम सब सुमति धीरं । समुझि भुज जोर करजोर तुलसी कहे हरहु दुख दुसह भव विषम पीरं।हनुमान आपकी जय हो, आप बलवान है, पिंगल वर्ण आपके नेत्र हैं, पवित्र सोने के पर्वत के समान आपका सुन्दर शरीर है। आप माता अंजनी के पुत्र और सीताराम को प्यारे हैं, अथवा सीताराम दोनों ही आपको प्रिय हैं, अथवा आप माता सीता और रामचन्द्र का प्रिय करने वाले हैं, आप वानर वाहिनी के स्वामी हैं, आप वानरों में श्रेष्ठ हैं, आप राक्षसों की सेना का नाश करने वाले वीर है,। देवताओं के पत्ति इन्द्र के शत्रुओं, राक्षसों आदि के वन के समान विशाल समूह को आप नष्ट करने वाले हैं। यहां लुप्तोपमा के प्रयोग से हनुमान को उस दावानल के समान बताया गया है जो इन्द्र के शत्रु-राक्षसों के वन को जलाने वाला है, आप बड़े बुद्धिमान हैं, महा बुध के स्थान पर कहीं महाम्बुधि पाठ होने पर. अर्थ होगा कि आप समुद्र के समान गम्भीर है, ज्ञान के भण्डार है, यह बात सभी वेद और बुद्धिमान पुरुष कहते है धीर-विद्वान पुरुष कहते हैं। आपकी भुजाओं की इस प्रकार की शक्ति का विचार कर तुलसीदास हाथ जोड़कर प्रार्थना करता है कि मेरी इस पीड़ा के असहनीय कष्ट को दूर कर दीजिये। संसार के जन्म मरण रूप दुख को दूर कीजिये। संसार में होने वाली दैहिक, दैविक और भौतिक पीड़ा को दूर कीजिये।(६८){खेमराज श्रीकृष्णदास बम्बई छापा में (३४)}{गीता प्रेस गोरखपुर छन्द क्र (३४)}पालो तेरे टूक को परेहू चूक मूकिये न, कूर कोड़ी दू को हों आपनी ओर हेरिये। भोरानाथ भोरे हो सरोष होत थोरे दोष, पोषि, तोषि, थापि, न आपनो अवडेरिये।अंबु तू हों अंबुचर, अंब तू हों डिंभ सो, न बूझिये विलम्ब अवलम्ब मेरे तेरिये।बालक विकल जानि पाहि प्रेम पहिचानि, तुलसी की बांह पर सुलामी लूम फेरिये।मैं तेरे टुकड़ों पर पाला हुआ हूं, मुझसे यदि कुछ भूल हो जाती है तो भी आप मुझे न हटाइये, क्योंकि मैं तो अज्ञानी दो कौड़ी का हूं, आप तो अपनी महानता का विचार कर मुझे अपनाये रहिये। आप बहुत ही सरल स्वभाव के हैं थोड़ी सी भी भूल हो जाने पर क्रोध करते हैं। आपने ही मुझे पाला है, आपने मुझे सब प्रकार सन्तुष्ट किया है, आपने ही मुझे समाज में प्रतिष्ठित किया है अब अपना समझ कर इसे दूर न कीजिये। जिस प्रकार जल का जीव जल को छोड़ कर नहीं रह सकता उसी प्रकार आप यदि जल हैं तो मैं जल का जीव हूं, आप यदि माता हैं तो मैं शिशु हूं। आप मेरे ऊपर कृपा करने में विलम्ब कर रहे हैं। यह बात समझ में नहीं आती, मुझे तो केवल आपका ही सहारा है। यह आपका बालक तुलसीदास विकल हो रहा है, इसकी रक्षा कीजिये, यह आपकी शरण में है, अपने प्रति इसके प्रेम को पहिचानिये । इसकी बाहु पीड़ा दूर करने के लिये अपनी लम्बी पूंछ फेर कर स्वस्थ कर दीजिये। आपके लांगूल का स्पर्श ही इस रोग को अथवा किसी परकृत बाधा को हटा सकता है।(६९){खेमराज श्रीकृष्णदास बम्बई छापा में (२९)}{गीता प्रेस गोरखपुर छन्द क्र (२९)}दूकान को घर घर डोलत कंगाल बाल, बाल ज्यों कृपाल नत-पाल पालि पोसो है।कान्हीं है संभारि सार अंजनीकुमार वीर, आपनो बिसारिहें न मेरे हू भरोसो है।इतनो परेखो सब भांति समरत्थ आज, कपिनाथ सांची कहाँ को त्रिलोक तोसो है। सांसति सहत दास कीजे पेखि परिहास, चीरी को मरन खेल बालकनि कैसो है।जब मैं भूखा प्यासा टुकड़े मांगता हुआ घर घर फिरता था उस समय आपने कृपा कर बालक के समान मेरा पालन पोषण किया, क्योंकि आप शरणागत को पालने वाले हैं। आपने ही बचपन से मेरी देख-भाल की है। अब आप मुझे नहीं भुला देंगे इसका मुझे पूरा विश्वास है। पर आपके सब प्रकार समर्थ होने पर भी यह सब क्यों हो रहा है। हे वानरराज, यदि सत्य कहूं तो आज तीनों लोकों में आपके समान है ही कौन। आपका दास होकर मैं यह कष्ट सह रहा हूं यदि आपको परिहास ही करना हो तो यह भी तो विचार कीजिये कि बालकों के खेल में जिस प्रकार चिड़िया की मौत हो जाय उस, प्रकार की हंसी तो न कीजिये ।विशेष-इस कवित्त से एक बात यह स्पष्ट होती है कि बचपन में दरिद्रता के कारण तुलसीदास जी को उदर-पोषण के लिये दर दर भटकना पड़ा था। उसी समय किसी प्रकार उन्हें हनुमान जी का साक्षात्कार हो गया। आगे उन्हीं की छत्रछाया में अपने को मानकर इन्होंने अपना मार्ग निर्धारित किया। इनके हनुमान जी के साथ मित्र भाव जैसे संबंध भी रहे। जिसके कारण इन्होंने यह सब कहा है कि यह आपका हंसी मजाक भी अजीब है कि आप आनन्द ले रहे हों और मेरे प्राण संकट में हैं। भले ही स्वप्न में ही हो इनका हनुमान जी से अत्यन्त निकट का परिचय रहा है। इसका एक प्रमाण यह भी है कि हनुमान बाहुक के अतिरिक्त इन्होंने जितने भी कवित्त लिखे उनमें हनुमान की वीरता और उनके गुणगान से संबंधित कवित्तों की संख्या सबसे अधिक है।(७०){खेमराज श्रीकृष्णदास बम्बई छापा में (२७)}{गीता प्रेस गोरखपुर छन्द क्र (२७)}सिंहिका संधारि बल, सुरसा सुधारि छल, लंकिनी पछारि मारि वाटिका उजारी है।लंका परजारि प्रकरी विदारि, बार बार जानुधानि धार घूरघानी करि डारी है।तोरि जमकातरि मंदोदरि कढ़ोरि आनि, रावन की रानी मेघनाद महतारी है।भीर बांहपीर की निपट राखी महावीर, कौन के संकोच तुलसी के सोच भारी है।आपने समुद्र पार करते समय मार्ग में बाधा, जलने वाली छायाग्राहिनी सिंहिका को बलपूर्वक मार डाला, सुरसा से छल करके मुंह में जाकर सुरक्षित बाहर आकर उसे अपने कौशल का परिचय देकर सुधार दिया, लंकिनी ने लंका में प्रवेश करते समय आपको रोका उसे आपने एक ही धक्के से पछाड़ दिया। रावण की बाटिका को उजाड़ दिया। लंका को भलीभांति मनमाने ढंग से जलाया, मकरी का उदर विदीर्ण किया, राक्षसों की सेना ने आप पर बार बार आक्रमण किया उसे आपने तहस नहस कर डाला। रावण के रनिवास की रक्षा के लिये राक्षसों के द्वारा जो व्यूह रचना की गई थी उसे आपने भेद कर रावण जैसे महाप्रतापी की रानी और इन्द्र को जीतने वाले मेघनाद की मां मन्दोदरी को बाहर घसीटा। आप जब इतना कर सकते थे तो अब तक मेरी बाहु की पीड़ा को दूर करना आपके लिये कोई बड़ा काम नहीं था। फिर भी आपने यह मेरी बाहु की पीड़ा दूर नहीं की, ऐसा करने में आपको क्या संकोच हो रहा है मुझे तो यही बड़ा सोच है कि अब तक आपने मेरी बाहुपीड़ा को क्यों रहने दिया।