Hanuman Baahuk Rahashy - 2 in Hindi Spiritual Stories by Ram Bharose Mishra books and stories PDF | हनुमान बाहुक रहस्य -प.गंगाराम शास्त्री समीक्षा - 2

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हनुमान बाहुक रहस्य -प.गंगाराम शास्त्री समीक्षा - 2

२ हनुमान बाहुक रह्स्य –प.गंगाराम शास्त्री समीक्षा  २ २यह पुस्तक संस्कृत और तंत्र के बड़े विद्वान पण्डित गङ्गाराम शास्त्री जी सेंवढ़ा वालों द्वारा गहरे रिसर्च, अध्य्यन, अनुशीलन,खोज, अनुसंधान, तपस्या और प्रयोगों के बाद लिखी गयी है। इसमें बताये गये अर्थ और प्रयोग आम जनता को कृपा स्वरूप ही विद्वान लेखक ने पुस्तक स्वरूप में प्रदान किये हैं

।११)राखु प्रतीति हृदै करि प्रीति अभीति कपीस पदे अनुरागू । सोच दुराय सुनाय विनै तुलसी मन भावत सो वर मांगू । मोह नसावन पावन रूप उलंघित वारिधि बार न लागू । गावत ही यश वायु तनै रुजपुंज हरे दल दोष दवागू।

कपीश हनुमान के प्रति विश्वास रख कर हृदय में प्रेम करते हुए अभय होकर उनके चरणों में प्रेम करना चाहिये। अथवा हृदय में प्रेम सहित विश्वास के साथ हनुमान के चरणों में मन लगाने से किसी भी प्रकार का भय नहीं रहता। अभय दान प्राप्त होता है। उन के सामने किसी भी प्रकार का संकोच न करते हुए, शोक रहित होकर विनती करके मनभावन हनुमान से जो चाहे वह वर मांग सकते हैं। अथवा जो आपके मन को अच्छा लगे वही वर मांग सकते हैं। उनके पवित्र स्वरूप का ध्यान करने से मोह का नाश होता है, उन्होंने समुद्र को लांघने में विलम्ब नहीं लगाया। भाव यह है कि जिस प्रकार इतने विशाल सागर को लांघने में उन्हें देर नहीं लगी उसी प्रकार आपके शोक मोह चिन्ता आदि दैहिक दैविक और भौतिक तापों को दूर करने में उन्हें देर न लगेगी।

(१२)औढर-बरन दुख दुसह-हरन सुख सकल करन ताते निसदिन गाइये।

तारन-तरन प्रान-पोषन-भरन रूपविविध करन मोद हिये उपजाइये ।

जुद्ध उद्धरन जाहि काहू की डर न हठि, जगतहि सरन ताहि सुगमहि पाइये।

असरन-सरन जीते हैं रन रावन जोर, ऐसे हनुमान के चरन चित ल्याइये।

हनुमान बड़ी सरलता से चाहे जिस किसी पर प्रसन्न होने वाले हैं। असहनीय दुख को दूर करने वाले हैं। वे सभी प्रकार के सुखों के देने वाले हैं, इसलिये दिन रात सदैव उनका कीर्तन करना चाहिये। विपत्ति से उद्धार करने वाले हैं, संकट से पार लगाने वाले हैं, प्राण के समान भरण पोषण करने वाले हैं, अनेक प्रकार के रूप धारण करने वाले हैं, उनके स्मरण से मन में प्रसन्नता होती है। महासमर में उद्धार करने वाले हैं, उंन्हे किसी का भी डर नहीं निर्भय हैं , संसार भर को हठ करके आश्रय देने वाले हैँ उनकी कृपा प्राप्त करना सरल है, उन्हें पाने की विधि सुगम है। जिसका कहीं  कोई सहारा न हो उसे वे शरण में रखने वाले हैं, उन्होंने अपने बल से राजन को जीता है, इस प्रकार हनुमान के चरणों का मन में स्मरण करना चाहिये ।यह हनुमान जी का एक सुन्दर ध्यान है। इसी रूप में उनके चरणों का ध्यान करने से सभी प्रकार की बाधा दूर होती है, मन की चिन्ता मिटती है, विपत्ति में छुटकारा मिलता है। मुकदमे में विजय मिलती है।

(१३)जलनिधि जल फन्दे फन्दे देत रावन को काटे प्रभु फन्द नहीं काहू अनुमान को।

 दौरि करि दोनागिरि गोद में उमंचि लायो, ततछन सहाय भो लछमन के प्रान को। 

मारुत के नन्दन मारतण्ड मुख राखौ डारि, संकट निवारे केते सेवकन आन को।

 दूजौ और देवता न जानत कहत बोल,हौं तो रहत भरोसें सदा हनुमान को।

हनुमान जी आप ने समुद्र को लांघ कर पार किया, रावण को छकाया और नागपाश में आबद्ध होने पर गरुड़ के द्वारा भगवान राम के बन्धन दूर किये, जिसका कोई अनुमान भी नहीं कर सकता था। युद्धस्थल में लक्ष्मण के शक्ति लगने से बेहोश हो जाने पर आप ही सुषेन   के द्वारा बताई हुई संजीवनी लाने के लिये जाकर पूरा द्रोणगिरि ही उखाड़ लाये। जिसके कारण लक्ष्मण के प्राणों की तत्काल रक्षा हो सकी। हे पवनपुत्र आपने तो सूर्य तक को मुख में डाल लिया था, आपने न जाने कितने दूसरे सेवकों के संकट दूर नहीं किये। मैं स्पष्ट कहता हूं कि ऐसे मैं किसी दूसरे देवता को नहीं जानता और केवल हनुमान के ही भरोसे रहता हूं।[यह कवित्त केवल आर्यभाषा पुस्तकालय की हस्तलिखित प्रति क्रमांक 95 में पाया गया है।](

१४)छप्पयसिंधु-तरन, सिय-सोच-हरन, रवि -बाल-वरन-तनु। भुज विशाल मूरति कराल कालहु को काल जनु।

गहन-दहन-निरदहन-लंक निःसंक बंक भुव। 

जातुधान-बलवान- मान-मद-दवन-पवन-सुव। 

कह  तुलसिदास सेवत सुलभ, सेवक-हित संतन निकट।

 गुन-गनत, नमत, सुमिरत, जपत, समन-सकल -संकट-विकट।

{गीता प्रेस गोरखपुर छन्द क्रमांक  (१)}

 तुलसीदास जी हनुमान जी की स्तुति करते हुए कहते हैं कि उन्होंने समुद्र को पार किया, अशोक वाटिका में जाकर सीता जी का शोक दूर किया, उनका वर्ण उदय काल के अरूणाभ सूर्य के समान है, उनकी भुजाएं विशाल हैं, आपकी आकृति ऐसी भयंकर है कि आप काल के भी काल प्रतीत होते हैं। आपने निःशंक होकर जहां अपनी भोंह टेढ़ी की कि आपने लंका को गहन रूप से पूरी तरह जला डाला। हे पवन-पुत्र, आप बलवान राक्षसों के अभिमान के मद को मिटाने वाले हैं । जो आपकी सेवा करता है, उसके लिये आप सदैव समीप रहते हैं, जो आपका गुण-गान करता है, जो आपको नमस्कार करता और सिर झुकाता है, जो आपका स्मरण करता है, जो आपका जप करता है उसके विकट से विकट संकट को आप दूर करने वाले हैं।सेवक-वस सन्तत निकट यदि ऐसा पाठ मानकर अर्थ किया जाय तो जो आपकी सेवा करता है, आप उसके वश में हो जाते हैं, तथा सदैव उसके समीप रहते हैं।तुलसीदास जी ने उक्त छप्पय में हनुमान जी की आराधना की सामान्य विधि की ओर संकेत किया है। जो हनुमान जी का इष्ट करना चाहे उसे उनके गुणों का स्मरण करना चाहिये। उनके असाधारण गुणों का ध्यान करने से तदनुरूप गुणों का आंशिक विकास सम्भव है। उनको नमस्कार करने, उनका सदैव स्मरण करने, उनके किसी भी नाम का जप करने से कठिन से कठिन विपत्ति दूर होती है।विशेष प्रयोग-यदि कोई कार्य अवश्य करणीय हो किन्तु विघ्न बाधाओं के कारण होना असम्भव लगता हो तो इस छप्पय के विधिपूर्वक प्रयोग से दुष्कर कार्य में भी सफलता मिल सकती है। यदि कोई रोग- शैया पर पड़ा हो, बचने की आशा क्षीण हो चुकी हो तो काल के भी काल हनुमान जी काल से उसकी रक्षा अवश्य करेंगे। यदि कोई बड़ा व्यक्ति अपने से निर्बल को अभिमान वश अनुचित रूप सेसता रहा हो उसे कही से भी उस व्यक्ति के प्रभाव के कारण न्याय न मिल पा रहा  हो उस समय इस का प्रयोग करने से उस निर्बल को सफलता तथा अज्ञात रुप से संरक्षण मिलेगा।

(१५)स्वर्ण-शैल संकाश कोटि-रवि- तरून-तेज- घन। 

उर विसाल भुजदण्ड चंड नखवज्र वज्रतन। 

पिंग नयन भृकुटी कराल रसना दसनानन। 

कपिस केस करकस लंगूर खल-दल-बल-भानन। 

कह तुलसिदास बस जास उर, मारुतसुत मूरति विकट। सन्ताप पाप तेहि पुरुष कंह (पंह) सपनेहूं नहिं आवहिं विकट

{खेमराज श्रीकृष्णदास  बम्बई छापा में (८)}

{गीता प्रेस गोरखपुर छन्द क्र(२)}

हनुमान का वर्ण सोने के पर्वत सुमेरु के समान सुनहरा है, मध्यान्हकालीन करोड़ों सूर्य के समान आपका तेज घनीभूत है, आपकी छाती चौड़ी है, भुजाएं अत्यंत बलशाली, और नाखून तथा शरीर वज्र के समान दृढ़ है। नेत्र लालिमा लिये हुए ताम्र वर्ण है, भौंहे  टेड़ी हैं, जीभ, दांत और मुख भयंकर है, ताम्र वर्ण के सुनहरे बाल हैं. लांगूल-पूंछ कठोर है जो दुष्टों के बल को नष्ट करने वाली है। तुलसीदास कहते हैं कि जिसके हृदय में हनुमान की इस प्रकार भयंकर मूर्ति निवास करती है, उसे कभी स्वप्न में भी किसी प्रकार की पीड़ा और पाप नहीं सताते। पीड़ा दुःख  और पाप उसके निकट ही नहीं आ सकते। तात्पर्य यह कि हनुमान जी का इस प्रकार ध्यान करना चाहिये ।

(१६){गीता प्रेस गोरखपुर छन्द क्र(३)}

पंचमुख छमुख भृगुमुख्य भट असुर सुर, सर्व सरि समर समरत्थ रूरो।

बांकुरो वीर विरुदैत बिरुदावली, बेद बंदी बदत पैज पूरो। जासु गुनगाथ रघुनाथ कह जासु बल विपुल जल भरित जग जलधि झूरो।

 दीन दुख दमन को कौन तुलसीस है, पवन को पूत रजपूत रूरो।

पंचमुख महादेव, छःमुख वाले कार्तिकेय,भृगुवंश शिरोमणि परशुराम, तथा अन्य योद्धा  जो भी देवता और दानव हैं, उन सबसे अथवा सबके समान युद्ध  की सामर्थ्य रखने वाले हनुमान हैं। वे बड़े बांके वीर हैं जिनके यश का गान किया जाता है। वेद भी बन्दीजन के समान जिनकी विरुदावली का गान करते हैं। जो अपनी प्रतिज्ञा को पूरी तरह निभाते हैं। हनुमान के गुणों का बखान स्वयं भगवान राम ने किया है जिसके अपार बल रूपी समुद्र के आगे संसार के समुद्र भी सूखे से प्रतीत होते हैं, अथवा जिनके बल का स्मरण करने से संसार सागर से सूखे स्थान के समान पार पाया जा सकता है। उन पवन पुत्र हनुमान के अतिरिक्त दीनों का दुःख दूर करने वाला है कौन अथवा दुवन-दल दमन पाठ माने तो शत्रुसमूह का नाश करने वाला उनके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं है। वे ही एकमात्र प्रबल योद्धा है।

(१७){गीता प्रेस गोरखपुर छन्द क्र(४)}

भानु सों पढ़न हनुमान गये, भानु मन अनुमानि सिसु-केलि कियो फेरफार सो।

 पाछिले पगन गम गगन मगन मन, क्रम को न भ्रम कपि-बालक विहार सो। 

कौतुक विलोकि लोकपाल हरि हर विधि, लोचननि चकाचौंध चित्तन खंभारि सो। 

बल कैधों वीर रस धीरज कै साहस कै, तुलसी सरीर धरे सबनि को सार सो।

हनुमान सूर्य के समीप विद्या पढ़ने गये। सूर्य ने यह समझ कर कि ये बालक है, क्या विद्या पढ़ेंगे, उनसे कह दिया कि मैं आकाश में स्थिर नहीं रहता और जब तक गुरु शिष्य आमने सामने न हों तो पाठ कैसे पढ़ाया जा सकता है- ऐसा कहकर टालना चाहा। पर हनुमान सूर्य के सम्मुख खड़े होकर पीछे की ओर चलने लगे, वे प्रसन्न चित्त होकर सूर्य के आगे मुंह कर पीछे की ओर चलते जाते थे, उनके पाठ के क्रम में कहीं कोई भूल न होती थी, वेद-पाठ में उनका क्रम ठीक था उनके अभ्यास साधना में कोई भूल नहीं होती थी, उनके लिये तो यह सब बालकों के खेल जैसा था। सूर्य के सम्मुख खड़े होकर उसी गति के अनुसार उलटे पैरों चलना एक कौतुक ही लगता था, जिसे देखकर लोकपाल, विष्णु, शिव और ब्रह्मा के नेत्र में भी चकाचौंध उत्पन्न होने लगी और मन में घबराहट सी हुई। वे सोचने लगे कि यह बल ही शरीर धारण कर आ गया है अथवा शरीरधारी वीर रस है, अथवा मूर्तिमान धीरज या साहस अथवा इन सबका बल वीरता धीरज और साहस का सार ही शरीर धारण हनुमान के रूप में आ गया है।हनुमान के लिये तुलसीदास ने ज्ञानिनामग्रगण्य, मनोजव और मारुत तुल्यवेग ये विशेषण दिये हैं। इन गुणों की उन्हें कैसे प्राप्ति हुई इसका यहां वर्णन किया गया है। कहा गया है कि वे सूर्य के आगे खड़े होकर विद्या पढ़ने गये। वास्तव में सूर्य के सम्मुख दृष्टि करके ध्यान करने से ही इन सब विद्याओं की प्राप्ति होती है। पातंजल योगसूत्र में कहा गया है-भुवनज्ञानं सूर्ये संयमात् ।-विभूति पाद सूत्र 27

सूर्य पर संयम करने से भुवन में जो कुछ भी है उसका ज्ञान होता है। संयम की परिभाषा में बताया गया है कि जब एक साथ अभ्यास करते हुए ध्यान, धारण और समाधि का क्रम हो तो उसे संयम कहते हैं। ध्यान आंख बन्द कर अथवा खोलकर भी किया जा सकता है। धारणा त्राटक के अभ्यास की विधि से की जाती है। ध्यान और धारणा के द्वारा तदाकार वृत्ति होना ही समाधि है। सूर्य के विभिन प्रकार के ध्यान और उनसे होने वाले लाभ का वर्णन आदित्य हृदय, सूर्याथर्वशीर्ष, आदित्य पटल आदि में दिया गया है। सूर्य पर धारणा करने की विधि और फल स्वरोदय संबंधी ग्रन्थों में दिया गया है। यह भौतिक सूर्य पर संयम करने से होता है। सूर्य का अर्थ सूर्यद्वार मानकर भी किया जाता है। शरीर में सुषुम्ना को सूर्यद्वार कहते हैं। जब इड़ा और पिंगला नाड़ियों से प्रवाहित होने वाले प्राण की गति सुषुम्ना में होने लगती है तो उसे कुण्डलिनी जागरण की क्रिया कहते हैं। उसके जागरण से सहस्रार के बन्द द्वार खुल जाते हैं जिससे योगी सर्वज्ञ हो सकता है। यहां सबसे अधिक महत्व क्रम का है। इसीलिये तुलसीदास ने क्रम को न भ्रम कहा है। इसीके द्वारा ब्रह्म ग्रन्थि, विष्णु ग्रन्थि का भेदन होता है। जिसका संकेत तीसरी पंक्ति में किया गया है। पातंजल योग सूत्र के विभूति पाद में जिन सिद्धियों का वर्णन किया गया है. वे सभी हनुमान जी को इसी साधना के द्वारा प्राप्त हुई।

(१८){गीता प्रेस गोरखपुर छन्द क्र (५)}

भारत में पारथ के रथ-केतु कपिराज, गाज्यो सुनि कुरुराज-दल हलबल भो। 

कह्यो द्रोन भीषम समीरसुत महावीर, बीररसवारिनिधि जाको बल जल भो।

वानर सुभाय बालकेलि भूमि भानु लगि, फलंग फलांग हूँ से घाटि नभतल भो।

नाइ नाइ माथ जोरि जोरि हाथ जोधा जन, जोहें हनुमान जगजीवन को फल भो।

महाभारत के युद्ध में हनुमान वीर अर्जुन के रथपर पताका के रूप में स्थित हुए थे। युद्धभूमि में जब उन्होंने गर्जना की तो कौरव सेना में खलबली मच गई। तब द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह ने समझाया कि ये महावीर हनुमान है जिनके बल रूपी जल से वीर रस का समुद्र उमड़ता है। ये वही हनुमान है जिन्होंने बचपन में एक ही छलांग में आकाश को पार किया और सूर्य के समीप जा पहुंचे थे। सारा आकाश इनकी एक छलांग का भी नहीं हुआ। ऐसा सुनकर योद्धा हनुमान को मस्तक झुकाकर प्रणाम करने और कहने लगे कि आज हनुमान को देखकर हमारा जीवन फल हो गया।(१९)

आर्यभाषा पुस्तकालय नागरी प्रचारणी सभाकाशी संख्या 2148 के अनुसार पाप

{गीता प्रेस गोरखपुर छन्द क्र (६)}

गोपद पयोधि करि होलिका ज्यों लाई लंक, निपट निसंक परपुर गलबल भो।

द्रोन सो पहार लियो ख्याल ही उखारि कर-कन्दुक ज्यों कपिखेल बेल कैसो फल भो।

संकट समाज असमंजस में रामराज, काज जुग पूजनि को करतल पल भो।

 साहसी समत्थ तुलसी को नाह जाकी बांह लोकपाल पालनि को फिर थिर थल भो।

हनुमान गाय के खुर के समान समुद्र को लांघ गये, लंका को शत्रु की नगरी होते हुए भी वहां नितान्त शंका रहित होकर उसको होलिका की भांति जला डाला, जिससे वहां खलबली मच गई। लक्ष्मण को शक्ति लगने पर उनके उपचार के लिये लंका से हिमालय तक जाकर खेल में ही द्रोणाचल को उखाड़ लिया, उसे इस प्रकार उठा लाये जैसे वानरों के खेलने के लिये बेल के फल की गेंद हो। लक्ष्मण को शक्ति लगने पर सारा वानर समाज संकट में पड़ गया था, स्वयं रामचन्द्र को भी उस बात का असमंजस था कि सूर्योदय के पहिले हिमालय तक जाकर और लौटकर संजीवनी औषधि लाना कैसे सम्भव होगा। किन्तु आपने युगों में होने वाले काम को कुछ ही देर में पूरा करके संजीवनी को हस्तगत करा दिया। तुलसीदास के स्वामी हनुमान ऐसे साहसी और समर्थ हैं कि रावण के द्वारा स्थान भृष्ट किये गये इंद्र आदि लोकपालों को उन्होंने अभय देकर फिर से यथास्थान प्रतिष्ठित किया।(२०){गीता प्रेस गोरखपुर छन्द क्र (७)}कमठ की पीठ जाके गोड़नि की गाड़े मानो, नाप के भाजन भर जलनिधि जल भो।जातुधान दावन परावन को दुर्ग भयो, महामीनवास तिमि। तोमन को थल भो। कुंभकर्न रावन पयोदनाद ईंधन को, तुलसी प्रताप जाको प्रबल अनल भो। भीषम कहत मेरे अनुमानि हनुमान-सारिखो त्रिकाल न त्रिलोक महाबल भो।समुद्र-लंघन के समय हनुमान जी के पैर की चांप से कमठ की पीठ में जो गड्डा बन गया था वही मानो समुद्र के जल को नापने का पात्र हुआ। उसी में समुद्र का सारा जल समा गया। राक्षसों के नाश के समय उसी समुद्र ने उन्हें भागने से रोकने में दुर्ग का काम दिया। जिस प्रकार दुर्ग में लोग निवास करते हैं, उसी प्रकार जल के बड़े बड़े जीवों के रहने के लिये वह सुरक्षित स्थान बन गया। कुम्भकर्ण, रावन और मेघनाद उन हनुमान जी के प्रताप की अग्नि में ईंधन की भांति जल गये। भीष्म पितामह कहते हैं कि मेरे विचार से तो हनुमान के समान बल और पराक्रम वाला तीनों लोकों में न कभी हुआ, न है और न होगा।हनुमान बाहुक रह्स्य –प.गंगाराम शास्त्री समीक्षा  ३ ३ यह पुस्तक संस्कृत और तंत्र के बड़े विद्वान पण्डित गङ्गाराम शास्त्री जी सेंवढ़ा वालों द्वारा गहरे रिसर्च, अध्य्यन, अनुशीलन,खोज, अनुसंधान, तपस्या और प्रयोगों के बाद लिखी गयी है। इसमें बताये गये अर्थ और प्रयोग आम जनता को कृपा स्वरूप ही विद्वान लेखक ने पुस्तक स्वरूप में प्रदान किये हैं।