Hanuman Baahuk Rahashy - 8 - Last part in Hindi Spiritual Stories by Ram Bharose Mishra books and stories PDF | हनुमान बाहुक रहस्य -प.गंगाराम शास्त्री समीक्षा - 8 (अंतिम भाग)

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हनुमान बाहुक रहस्य -प.गंगाराम शास्त्री समीक्षा - 8 (अंतिम भाग)

हनुमान बाहुक रह्स्य –प.गंगाराम शास्त्री समीक्षा  ८  अंतिम ८ यह पुस्तक संस्कृत और तंत्र के बड़े विद्वान पण्डित गङ्गाराम शास्त्री जी सेंवढ़ा वालों द्वारा गहरे रिसर्च, अध्य्यन, अनुशीलन,खोज, अनुसंधान, तपस्या और प्रयोगों के बाद लिखी गयी है। इसमें बताये गये अर्थ और प्रयोग आम जनता को कृपा स्वरूप ही विद्वान लेखक ने पुस्तक स्वरूप में प्रदान किये हैं।(७१)दछिन को कियो पयान हदे राख रामराय, दछिन के कर को मुद्रिका तू पायो है।अंगदादि वीर जामवन्त सब प्यासे मरें, विवर में पैठ क्षुधा तृषा तू बितायो है।निकट नदीस के संपाति से बचाय कीस, सिय सुध पायवे को परत जनायो है।लांघत न लागी बार पलही में गयो गार, मेरी बांह पीर को कहा विलम्ब लायो है।सीता की खोज करने के लिये जो वानरों का दल दक्षिण की ओर गया था उसमें रामचन्द्र ने सीता के परिचय के लिये अपनी मुंदरी आपही को दी थी। वहांपर जब वानर भूख प्यास से व्याकुल हो रहे थे, उस समय आपने ही विवर में जाकर उन सबकी भूख प्यास मिटाई थी। उसमें अंगद और जाम्बवन्त जैसे वीर साथ थे। समुद्र के तट पर शोकमग्न वानरों को देखकर जब जटायु का बड़ा भाई सम्पाति उन्हें खाने के लिये आया तो सभी वानर डर गये। उस समय आपने ही उससे बात कर सीता का समाचार प्राप्त किया था। आपको समुद्र लांघ कर लंका पहुंचने में तो कुछ भी देर नहीं लगी। पर मेरी इस हाथ की पीड़ा को दूर करने में इतना विलम्ब क्यों कर रहे हैं।प्रयोग- दक्षिण दिशा की यात्रा करते समय इस कवित्त के ग्यारह अथवा इक्कीस पाठ करके यात्रा प्रारम्भ करने पर यात्रा सानन्द सकुशल सम्पन्न होने के साथ ही प्रयोजन में भी सफलता प्राप्त होती है। समुद्र अथवा नाव से यात्रा प्रारम्भकरने के पूर्व इस कवित्त का पाठ कर लेना कुशलता और सफलता प्रदान करता है।प्रयोग 2परदेश गया हुआ व्यक्ति यदि घर लौटकर न आया हो और उसका कोई समाचार भी न मिला हो, अथवा घर से बिना कहे कोई भाग गया हो जिसका पता सुराग न लग रहा हो तो इस कवित्त को अनार की कलम से गोरोचन से भोजपत्र पर लिखकर चक्की के नीचे दबा देने से व्यक्ति घर लौट आता है। आज घरों में चक्कियां प्रायः नहीं रहती इसलिये किसी भी घूमने वाली वस्तु से इसे बांध कर उलटा-एण्टीक्लोकवाइज-घुमाने से परदेश गया व्यक्ति शीघ्र घर आ जाता है।यह कवित्त कण्ठस्थ कर लेना चाहिये। यदि घर में वन में मार्ग में कभी किसी भी प्रकार की विपत्ति दिखाई दे अथवा आसन्न विपत्ति की आशंका हो तो वह विपत्ति टल जाती है, यदि आ पड़े तो उससे रक्षा हो जाती है।(७२)सवैया- आछत तेरे समीरकुमार सुमार में केतिक तू बिचलायो । अच्छ विपच्छ कियो छन मांहि जू बाहु की पीर जु छांह छुवायो । सुरसोहें जिन्हें सुरवन्दि कियो अरु तासुत वासवजीत कहायो । ऐसो असंकित संकित काहि तू मेरेहि बार को बार लगायो ।हे पवनपुत्र हनुमान, युद्धभूमि में आपके उपस्थित रहने से ही आपने न जाने कितने शत्रुपक्ष के वीरों को विचलित कर दिया। तूने क्षणमात्र में रावण के पुत्र अक्ष को परास्त करके मार डाला। फिर मेरी बाहु की पीड़ा के लिये क्या आपकी छाया ही पर्याप्त नहीं। जिस रावण को देवता वन्दना किया करते थे, अथवा जिसने सरलता से देवताओं को भी वन्दी बना लिया और जिसका पुत्र मेघनाद-इन्द्र पर विजयके कारण इन्द्रजीत कहलाया, ऐसे वीरों के सामने भी तू युद्ध में निःशंक रहा तुझे किसकी शंका है जो मेरी बाहुपीड़ा दूर करने के लिये अबकी बार ही मेरी बारी आने पर देर कर दी।बार शब्द में यमक अलंकार होने से एक स्थान पर अर्थ बारी और दूसरे स्थान पर अर्थ देर करना है।यह कवित नागरी प्रचारणी सभा काशी के आर्यभाषा पुस्तकालय में हस्तलिखित प्रति संख्या 95 में ही उपलब्ध है, अन्य किसी प्रति में नहीं ।(७३){खेमराज श्रीकृष्णदास  बम्बई छापा में (२६)}{गीता प्रेस गोरखपुर छन्द क्र (३०)}आपने ही पाप तें त्रिताप तें कि साप तें, बढ़ी है बाहु-वेदन कहीं न सही जात है।औषधि अनेक जन्त्र मन्त्र टोटकादि किये बादि भये देवता मनाये अधिकात है।करतार, भरतार, हरतार, कर्म काल, को है जगजाल जो न मानत इताति है। चेरो तेरो तुलसी तू मेरो कह्यो रामदूत, ढील तेरी वीर मोहि पीर तें पिरात है।यह बाहु की पाड़ा अपने किसी पूर्वजन्म के पाप के कारण है अथवा किसी दैहिक, दैविक और भौतिक इन तीन तापों के कारण है, जो इतनी बढ़ गई कि उसका वर्णन करते भी नहीं बनता और पीड़ा सहते भी नहीं बनती अर्थात् असह्य  पीड़ा हो रही है। इस पीड़ा को दूर करने के लिये अनेक औषधियों का प्रयोग किया, कई प्रकार के यन्त्र धारण किये, मन्त्रों से झाड़ फूंक के प्रयोग किये, अनेक प्रकार के टोना टोटका भी इसे दूर करने के लिये किये, पर जिस किसी देवता की आन देकर ये सब प्रयोग किये वे व्यर्थ हो गये। जितनी अधिक देवताओं की मनौती करता हूं उतनी ही पीड़ा अधिक होती जाती है। सृष्टि रचने वाले ब्रह्मा, पालन करने वाले विष्णु और संहार करने वाले शिव, संचित प्रारब्ध और क्रियमाण कर्मफल, अशुभऔर शुभ के अनुसार भला बुरा फल देने वाले ग्रहयोग दशा, आदि के अनुसार समय, इन सब पर आपका वश चलता है। इस संसार में दूसरा ऐसा है कौन जो आपकी आज्ञा का पालन न करता हो। दूसरे पाठ के अनुसार यह भी अर्थ होता है कि इस संसार के जो सृजन, पालन और संहार करने वाले हैं उनके द्वारा निर्धारित कर्म के अनुसार, ग्रहों के कुयोग के कारण बुरी ग्रहदशा के अनुसार जब जैसा समय होता है* उस समय वैसा ही भोगना पड़ता है, इस नियम के अनुसार मेरी यह पीड़ा इस कुसमय में और अधिक इठला रही है किसी की न आन मानती है न औषधि और न यंत्र मंत्र । अथवा यह भी अर्थ है कि मेरे लिये तो कर्ता, भर्ता, संहर्ता सब आप ही हो, यह तो कर्म और काल का फेर है कि मेरी यह पीड़ा इठला रही है। इस प्रकार हठ ठान कर दूर नहीं हो रही है। इतात के अनुसार मूल फारसी शब्द इताअत है जिसका अर्थ अधीनता स्वीकार करना होता है। तुलसीदास कहते हैं कि इस संसार में ऐसा है ही कौन जो आपकी बात न माने। इसलिये मेरी प्रार्थना इतनी ही है कि मैं तो आपका सेवक हूं, एक बार आप भी कह दीजिये के यह तुलसी मेरा है तो फिर किसका साहस जो मुझे सता सके। दूसरा यह भी आशय है कि मैं आपका सेवक हूं और आपभी कह चुके हैं कि तुलसी मेरा है, फिर भी मेरी इस बाहु की पीड़ा को दूर करने में आप न जाने क्यों ढील कर रहे हैं, जब तक आप ढील कर रहे हैं तभी तक मेरी यह पीड़ा है। अथवा आपका सेवक होते हुए भी जो आप ध्यान नहीं देते। आपके द्वारा की जा रही यह उपेक्षा मुझे अपनी बाहु पीड़ा से भी अधिक दुख दे रही है। अथवा आप तो राम के दूत हो इसलिये कर्ता ब्रह्मा, भर्ता-पालन करने वाले विष्णु और संहार करने वाले रुद्र सभी आपको मानते हैं कर्म और काल की गति मेटने की आपमें शक्ति है। मैं आपका सेवक हूं और आप भी कह चुके हैं कि तुलसी मेरा है फिर भी समर्थ होते हुए भी मेरी पीड़ा दूर करने में ढील देना ढिलाई बरतना मुझे इस बाहु पीड़ा से भी अधिक पीड़ाकारक है। अथवा जब तक आपकी ढिलाई है तभी तक यह पीड़ा है।(७४){खेमराज श्रीकृष्णदास  बम्बई छापा में (२८)}{गीता प्रेस गोरखपुर छन्द क्र (२८)}गरी बालकेलि वीर सुनि सहमत धीर, भूलत सरीर सुधि सक्र रवि राहु की।तेरी बांह वसत विसोक लोकपाल सब, तेरो नाम लेत रहे आरति न काहु की।साम दाम भेद विधि वेदहु लवेद सिद्धि हाथ कपिनाथ ही के चोटी चोर साहु की।आलस अनख परिहास की सिखावन है, एते दिन रही पीर तुलसी के बाहु की।आपने अपने जन्म के समय जो लीला की उसे सुनकर विद्वान भी सहम जाते हैं। सूर्य को अरुणाभ उदय होते देख उसे फल समझ कर जब आप खाने के लिये उड़कर सूर्य तक पहुंच गये तो सूर्य भी आपके पराक्रम से सहम गया। उस दिनसंयोग वश अमावास्या को ग्रहण था। इसलिये राहु जब सूर्य ग्रास के लिये आया तो आप उसे भी खाने को दौड़े। वह डर के मारे भाग कर इन्द्र के पास गया। इन्द्रः उसकी महायता के लिये ऐरावत पर चढ़कर सूर्य के पास आया। इन्द्र के वाहन ऐरावत को भी आप खाने के लिये दौड़े। जिससे उसने आप पर वज्र से प्रहार किया । आपके अद्भु त साहस की यह कथा सुनकर विद्वान भी स्तब्ध रह जाते हैं, इस घटना का स्मरण कर आज भी इन्द्र, सूर्य और राहु को भी अपनी सुध बुध भूल जाती है। आप के सहारे से ही सभी लोकपाल निशंक होकर रहते हैं। आपका नाम लेने से किसी का भी कष्ट शेष नहीं रहता। आप साम, दाम और भेद की नीतियों को पूरी तरह जानते हैं इसलिये जिससे जिस नीति के द्वारा काम सम्भव होता है उसे करना ही पड़ता है। इसीलिये लोक में भी यह कहा जाता है कि अच्छे और बुरे सभी आपके वश में हैं। आपकी अवज्ञा करने का किसी में साहस नहीं है। आपने मेरी बाहु की पीड़ा आलस्य के कारण दूर नहीं की अथवा आप कुछ नाराज हैं अथवा इस पीड़ा को लेकर मेरे साथ परिहास कर रहे है। अथवा मेरी किसी भूल के कारण इस प्रकार मुझे सीख दे रहे हैं। मैं नहीं समझ पाता कि मेरी यह बाहुपीड़ा इतने दिन तक क्यों रही।(७५){गीता प्रेस गोरखपुर छन्द क्र (३१)}दूत रामराय को सपूत पूत बाय को,समत्थ हाथ पांय को, सहाय असहाय को।बांकी विरुदावली विदित वेद गाइयत,रावन सो भट भयो मूठिका के घाय को।एते बड़े साहब समर्थ को निवाजो आज,सीदत, सुसेवक वचन, मन काय को।थोरी बाहुपीर की बड़ी गरानि तुलसी को,कौन पाप-कोप लोप प्रगट प्रभाय को।हनुमान, आप राजा रामचन्द्र के दूत, पवन के सुपुत्र हाथ पैर से सर्वथा समर्थ और जिनका कोई सहायता करने वाला न हो उनकी सहायता करने वाले हैं। आपके वीरता पूर्ण कार्यों का वेद भी बखान करते हैं। रावण के समान वीर भी आपके एक ही मुष्टि-प्रहार से गिर पड़ा आपका एक घूंसा न सह सका। इतने बड़े और समर्थ स्वामी का कृपा-पात्र होकर भी यह तुलसीदास जो आपका मन, वचन और कर्म से सेवक है, इतना कष्ट उठा रहा है। मुझे अपनी बाहु की पीड़ा से तो थोडाही कष्ट है किन्तु इस बात से बड़ी  ग्लानि हो रही है कि मेरे किस पाप के कारण आपका प्रत्यक्ष प्रभाव भी लुप्त हो रहा है जो बाहु पीड़ा नहीं मिट सकी।(७६){खेमराज श्रीकृष्णदास  बम्बई छापा में (४८)}{गीता प्रेस गोरखपुर छन्द क्र (४४)}कहाँ हनुमान सों सुजान रामराय सों, कृपानिधान संकर सों सावधान सुनिये ।हरष विषाद राग रोष गुनदोष मई, विरची विरंचि सब देखियत दुनियै । माया जीव काल के करम सुभाय के, करैया राम वेद कहें सांची मन गुनिये । तुमतें कहा न होहि हाहा सो बुझेये मोहिं हों हू रहों मौन ह्वै बयो सो जानि लुनिये।मैं हनुमान से, राजा रामचन्द्र से और कृपा के समुद्र शंकर से कह रहा हूं आप लोग सावधान होकर सुन लें। यह तो सभी देख रहे हैं कि इस संसार को विधाता ने प्रसन्नता और शोक, प्रेम और क्रोध, गुण और दोष इन द्वन्द्वों से युक्त बनाया है। पर वेदों में कहा गया है कि माया को राम ने ही बनाया है, जीव की रचना भी उन्होंने की है, भूत, भविष्य वर्तमान तीनों काल और मृत्यु रूप काल इनके करने वाले भी राम ही हैं, कर्म और स्वभाव भी उन्हीं के बनाये हैं। मन में विचार करने पर यह बात सच जान पड़ती है। ऐसे सामर्थ्यवान स्वामी राम के होते हुए भी ऐसी कौनसी बात है जो आपसे नहीं हो सकती। माया, जीव, काल, कर्म, स्वभाव सबका नियमन करने वाले राम से राजा, हनुमान से समर्थ उनके आज्ञाकारी, शंकर के समान कृपा करने वाले, इन सबके होते हुए भी यदि मैं अपने किये कर्म के अनुसार ही फल भोग रहा हूं तो मुझे यह तो समझाइये कि आपकी सामर्थ्य किसलिये है। यदि कर्म फल ही भोगना है तो मैं भी यही मानकर चुप होकर बैठ रहता हूं कि जैसा बोया है वैसा ही तो फल मिलेगा।विशेष हनुमान बाहुक की गीता प्रेस तथा ना. प्र. सभा काशी से प्रकाशित प्रतियों में यह अन्तिम कवित्त है, हस्तलिखित किसी भी प्रति में यह अन्तिम नहीं है। कारण स्पष्ट है। इसमें तुलसीदास ने खुले रूप में चुनौती दी है कि यदि मैं अपने कर्मों के फल से ही यह पीड़ा भोग रहा हूं, काल की विषमता के कारण ही यह है तो भगवान राम, हनुमान और दयालु शिव से प्रार्थना किसलिये। भाग्य की रेख को आप मेट सकते हैं, कर्मों का फल बदल सकते है, काल की गति आपके हाथ में है.फिर भी यदि प्रारब्ध का ही फल भोगना है तो आपसे प्रार्थना क्यों की जाय। यदि इसे अन्तिम मान लें तो यह तो परिणाम निराशाजनक ही है। पर ऐसा नहीं है। तुलसीदास की व्याधि तो इससे दूर हुई इसमें दो मत नहीं। वे भी कहते हैं-खायो हुतो तुलसी कुरोग रांड़ राकसिन केसरी किसोर राखे वीर बरियाई है। स्तुति का अवसान तो सदा कामनापूर्ति से ही होता है होना चाहिये। अतः यह छन्द अन्तिम नहीं।(७७){खेमराज श्रीकृष्णदास  बम्बई छापा में (४०)}{गीता प्रेस गोरखपुर छन्द क्र (३५)}घेरि लियौ रोगनि, कुलोगनि कुजोगनि ज्यों, वासर सजल घनघटा धुकि धाई है।बरसत वारि-पीर जारिये जवासे जैसे, रोष बिनु दोष, धूम, मूल मलिनाई है। करुना-निधान हनुमान महा बलवान, हेरि हंस, हांकि फूंकि फूल ज्यों उड़ाई है। खायो हुतो तुलसी कुरोग रांड़ राकसिन, केसरी किसोर वीर राखौ बरियाई है।मुझे अनेक रोगों ने आ घेरा है, अनेक ग्रहों ने भी कुयोग रूप में उसी प्रकार मुझे घेर लिया है जिस प्रकार किसीको बुरे लोग घेर लेते हैं। रोगों आदि ने तो मुझ पर इस प्रकार चढ़ाई कर दी है जैसे कि दिन में ही एकाएक बादल उमड़ घुमड़ आये हो। इन रोग रूपी बादलों से पीड़ा की वर्षा हो रही है। जिस प्रकार वर्षा से जवासे का पौधा जल जाता है उसी प्रकार मैं  बिना किसी दोष के बिना अपराध के इस बवासीर रोग से जला जा रहा हूं। मूल व्याधि और कुरोग बवासीर को कहते हैं। जिनका कि संकेत किया गया है।अत्यन्त दया करने वाले हनुमान ने मेरी ओर कृपा दृष्टि से देखा और हंसी में ही फूंक मारकर मेरी व्याधि दूर कर दी। आपने ललकार कर रोग की फौज को भगा दिया। मूल पाठ मानकर अर्थ होगा कि आपने हंस कर मेरी ओर देखा इतने से ही रोग फूल की भांति उड़ गये। मुझे तो इस रोग रूपी अभागी राक्षसियों ने कब का खा डाला होता यदि हनुमान ने हठपूर्वक इनसे मेरी उसी प्रकार रक्षा न की होती जिस प्रकार कि अशोक वाटिका में आपने दुष्ट राक्षसियों से सीता को बचाया था।अर्शहर प्रयोग सात दिन तक प्रतिदिन पाठभेद वाले कवित के पाठ के अनुसार सात बार प्रतिदिन जल को अभिमन्त्रित करके उसे पीकर शौच जाय शेषजल का शौच में उपयोग करे। इस प्रकार सात दिन करने से बवासीर और भगन्दर मिटता है।गुरुभ्रंश-कांच निकलना - बच्चों को दुर्बलता के कारण यह रोग हो जाता है। मंगलवार के दिन गुंदी का जड़ लाकर उक्त छन्द पढ़‌कर कमर में बांध दे नीरोग होने पर एक बाह्मण को भोजन कराना आवश्यक है।(७८)दोहा-तुलसी तनुसर-सुखजलज, भुज रुज गज बरजोर। दलत दयानिधि देखिये कपि केसरीकिसोर ।इस दोहा की टिप्पणी में गीता प्रेस से प्रकाशित दोहावली में लिखा है कि 'तुलसीदास जी की बांह में रोग हो गया था, श्री हनुमानजी की स्तुति से वह अच्छा हो गया था। ये दोहे उसी प्रसंग के कहे जाते हैं।"दयानिधान हनुमान, इस तुलसी के शरीर रूपी तालाब में सुख रूपी कमल को बहुपीड़ा रूपी बलवान हाथी कुचले दे रहा है, आप केसरी के सिंह  के-कुमार है अतः अब आप ही इस भुजरोगरूपी हाथी से केसरीकिशोर होने के कारण निपटिये अर्थात् बाहुपीड़ा दूर कीजिये ।(७९)दोहाभुजतरु कोटर रोग अहि बरबस कियो प्रवेस । विहगराज वाहन तुरत काढ़िअ मिटे कलेस ।मेरी भुजा रूप वृक्ष के खोल में रोग रूपी सर्प ने जबरन प्रवेश कर लिया है। अतः हे गरुड़ की सवारी करने वाले भगवान आप ही इसे तुरन्त निकाल दीजिये जिससे मेरा कष्ट दूर हो।(८०)बाहु विटप सुख बिहंग थल लगी कुपीर कुआगि। रामकृपाजल सीचिये वेग दीन हित लागि।मेरी इस भुजा रूपी वृक्ष पर सुख रूपी पक्षी का वास रहा है, अब इस भुजा रूपी वृक्ष में विषम पीड़ा रूपी अग्नि लगी हुई है, इसे आप हनुमान जी, राम की कृपा रूपी जल से सीच कर बुझाइये, इस दीन सुख रूपी पक्षी को बचाने के लिये आप इसे बुझाने में शीघ्रता करें।(८१){खेमराज श्रीकृष्णदास  बम्बई छापा में (६)}काहु भरोसो है वाहन को कोउ बान्धव के बल जोर जनावे। काहू के रूप सरूप घनौ कोउ भूपन के ढिंग  बैठक पावे। काहुके द्रव्य को गर्व घनो अति चातुर हो चतुरंग कहावे। मेरे तो एक तुही हनुमान हने किन ताहि जो मोहि सतावे ।तुलसीदास हनुमान से विनय करते हुए कहते हैं कि किसीको किसीका सहारा किसीको किसीका, पर मुझे तो केवल एक आपका ही सहारा है अतः जो कोई मुझे सताता है उसे आप क्यों नहीं नष्ट कर देते। किसीको सवारी का भरोसा है, पर मुझे कोई वाहन प्राप्त नहीं है। इसके द्वारा वे संकेत करते हैं कि सभी देवताओं के अपने अपने वाहन हैं- कोई हाथी पर सवार है कोई घोड़े पर कोई चूहे पर तो कोई मयूर पर। इसी प्रकार अन्य देवताओं के हंस, गरुड़, वृषभ, सिह आदि वाहन है। पर न आपका कोई वाहन है और न मेरा। इसलिये आप मेरी असमर्थता का अधिक अनुभव कर सकते हैं। इसी प्रकार न आपका कोई भाई है और न मेरा कोई भाई बन्धु है। किसीको अपने सुन्दर रूप का भरोसा है तो किसीको राजा के समीप आदर सहित आसन पाने का। मैं न रूपवान हूं और न राजाश्रित। किसीको अपने धन पर गर्व है तो किसीको अपनी चतुराई और अपने गुण पर। मेरे पास न धन है न कोई गुण जिस पर मैं अभिमान कर सकूं। हे हनुमान, मुझे तो केवल आपका ही सहारा है।(८२)हनुमान हठीले रंगीले बली जिन मान मथ्यो गढ़ लंकपती को। लांघ समुन्द्र कि मुद्रक ले कर सोच निवारो सिया सी सती को। आन पहार समेत सजीवन तेज निवारो महा सकती को। संकट कैसे रहे तुलसी जब ध्यान घरो हनुमान जती को।हनुमान बड़े ही हठी हैं जो बात विचार लें उसे करके ही रहते हैं। वे बड़े कौतुकी हैं, उन्होंने पूंछ के बहाने सारी लंका को आग लगाकर लंकापति रावण का मान-मर्दन किया, उसे अपने गढ़ के सुरक्षित और अभेद्य होने का अभिमान था पर वहां तक पहुंच कर और रनिवास तक धावा देकर उन्होंने रावण का यह अभिमान चूर चूर कर डाला। रामचन्द्र से मुद्रिका लेकर और समुद्र लांघ कर सीता के पास पहुंच कर वह पहिचान की मुंदरी उन्हें सोंपकर सीता के शोक को दूर किया। उन्होंने अपनी वीरता और चतुराई दोनों से सीता को यह विश्वास दिला दिया कि उनकी रावण कर कारागृह से मुक्तिहोकर वे राम से मिल सकेगी। इसी प्रकार उन्होंने लक्ष्मण को शक्ति से घायल होने पर द्रोणागिरिसहित पहाड़ को लाकर संजीवनी बूटी उपलब्ध कराई। जिससे लक्ष्मण के प्राणों की रक्षा हो सकी । इस प्रकार सभी प्रकार  के घोर संकट के समय सहायता करने वाले हनुमान का ध्यान करने पर किसी भी प्रकार का संकट कैसे रह सकता है। उनके ध्यान करने से सभी प्रकार की विपति दूर हो जाती है।प्रयोगकिसी भी प्रकार की घोर विपत्ति में पड़ जाने पर मंगलवार को तदनुसार संकल्प कर इस छन्द का प्रतिदिन एकसौ आठ पाठ करते हुए आठवे दिन हवन और हनुमान को चोला बढ़ाकर कम से कम एक बाह्मण के भोजन करा देने से सभी प्रकार की विपति से छुटकारा मिलता है। स्वयं न कर सके तो यह प्रयोग किसी बाह्मण से भी कराया जा सकता है। अनुष्ठान के समय यह ध्यान करना चाहिये'उत्ल्लंघ्य सिन्धोः सलिलं सलीलं यः शोकवन्हि जनका त्मजायाः आदाय तेनैव ददाह लंकाम नमामि तं प्रांजलिरांजनेयम् ।(८३){खेमराज श्रीकृष्णदास  बम्बई छापा में (५१)}कोउ करे बल देव देवाय को कोउ करे गुन तें चतुराई। कोउ करे बहु भांति तें भेषज मित्र अनेक सयान बुलाई। सत्य कहों लिखि कागद कोरे सो मोरे नहीं कछु और उपाई। कर्म वचा मनसा ही सदा तुलसी के तुही हितु है कपिराई।किसी को किसी न किसी देवी देवता का बल होता है, सहारा होता है, कोई अपने गुण के अनुसार चतुराई बरतता है। चतुराई और सूझबूझ से काम करता है। गुणी झाड़ फूक और यन्त्र मन्त्र करने वाले को भी कहते हैं। इस प्रकार जादू टोना टोटका के जानकार गुणी लोग चतुराई करते हैं। कोई व्याधि दूर करने के लिये औषधि का प्रयोग करता है, कोई इसके लिये मित्र सहायक और झाड़ फूंक करने वाले सयाने ओझा आदि को बुलाता है। मैं तो इस प्रकार के किसी चक्कर में पड़ा ही नहीं। मैंने तो कोरे कागज पर सदा ही सत्य कथन किया है। मैं दूसरा कोई उपाय जानता ही नहीं। मन से वाणी से और कर्म से मेरे एक मात्र हितकारी तो हे कपिराज हनुमान केवल आप है।(८४){खेमराज श्रीकृष्णदास  बम्बई छापा में (५२)}मान लई जन की विनती अति दीन दयाल बली कपिनाथा । दूर कियो रुज जोर तिही क्षण फेरि कृपा करि सीतल हाथा । बाहु व्यथा नहिं व्यापहि फेर हिये सुमिरे हरि के गुणगाथा। पाय प्रतीति सदा तुलसी भज वायुतनै रघुनायक साथा।बलवान हनुमान वानरों के स्वामी बड़े ही दयालु हैं दीनों पर दया करने वाले है, उन्होंने मुझ भक्त की प्रार्थना पर ध्यान देकर मेरी विनय स्वीकार कर ली। उन्होंने कृपा कर मेरी भुजा पर अपना हाथ फेर कर रोग की भयंकरता को क्षण भर में ही कम कर दिया। उसकी प्रबलता कम हो गई। पीड़ा दूर हो गई। इस प्रकार हृदय में भगवान का स्मरण करने से उनके गुणों का स्मरण करने से फिर भुजा की पीड़ा नहीं हो सकती। इस प्रकार हनुमान से विनय करने से मेरे रोग को दूर हुआ देखकर इस प्रत्यक्ष सत्य पर विश्वास करके सदा ही श्रीराम सहित हनुमान का भजन करते रहना चाहिये।(८५)छप्पय-जय रघुपति वरदूत जयति जय मारुत-नन्दन । कपिकुलकंजदिनेश जयति तमचर तम-गंजन । जय सुरमुनिहितहेतु दशाननदर्पविहण्डन जयअंजनी-जठरप्रसूत सकल हरिजनमनरंजन । रामकाज लगि प्रगट भे करुनाकर पावन परम। रुजहर अघहर कष्टहर जय हनुमान धुरन्धरम् ।रामचन्द्र के दूत हनुमान, आपकी जय हो, पवन के पुत्र आपकी जय हो, वानरकुल रूपी कमलों को विकसित करने वाले सूर्य के समान आपकी जय हो, राक्षस रूपी अन्धकार का नाश करने वाले आपकी जय हो। रावण के अभिमान को नष्ट करके देवता और ऋषियों का हित साधन करने वाले आपकी जय हो। आपका तो जन्म ही भगवान राम के कार्यसम्पादन के लिये हुआ है, आप सभी पर दया करने वाले परम पवित्र हैं, आप मनुष्य के रोग, पाप और विपत्ति को दूर करने वाले हैं आपकी जय हो।उक्त छप्पय को पढ़ते हुए हनुमान की आरती करना चाहिये ।(८६)दोहा-हनूमान की हांक सुनि लँकपती बल टूट। तुलसिदास अतिखर भयो बांह विथा गई छूट।(८७)बांहपीर को नाम यह दहन पीर संसार। प्रगट कियो मम इष्ट गुरु जानहु अर्थ अपार।  इतिश्री गोस्वामी तुलसीदासकृत श्रीहनुमानबाहुक सर्वांगरक्षामन्त्रसम्पूर्ण 7:25 28श्री रामाय नमः