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रिप्लाय में मैंने स्वीकृति दे दी। पर हृदय का जख्म ताजा हो गया। और फिर पन्द्रह-बीस दिन में मैंने जैसे-तैसे उसे भुला पाया तो, फिर एक मेल मिला, "दाम्पत्य"
मैं अपने पति के बगल में सो रही थी... और वह फेसबुक पर लाॅग इन हुआ, अचानक एक सूचना मिली उसे, एक महिला ने उसे जोड़ने के लिए कहा था। उसने मित्र अनुरोध स्वीकार कर लिया। फिर एक संदेश भेजकर पूछा, "क्या हम एक दूसरे को जानते हैं?"
उसने जवाब दिया: "मैंने सुना है कि तुम्हारी शादी हो गई है लेकिन मैं अब भी तुमसे प्यार करती हूँ।"
वह अतीत से एक दोस्त थी। तस्वीर में वह बेहद खूबसूरत लग रही थी।
पति ने मेरे डर से चैट बंद की। और मेरी तरफ आशंका से देखा, जबकि मैं दिन भर की थकान के बाद गहरी नींद सो रही थी। वह निश्चिंत हो गया। फिर चैट में मशगूल। उसने मुझे देखकर यह नहीं सोचा कि मैं इतनी सुरक्षित कैसे महसूस करती हूँ कि उसके साथ बिल्कुल एक नए घर में, इतनी बेफिक्री से कैसे सो सकती हूँ...।
कि मैं अपने माता-पिता के घर से बहुत दूर, जहां चौबीसौ घंटे मैं अपने परिवार से घिरी रहती थी। जब जरा भी परेशान या उदास होती तो मेरी मां वहां होती, ताकि उनकी गोद में रो सकूँ। भाई-बहन मुझे चुटकुले सुनाते, हँसाते थे। पिता घर आते और वह सब कुछ देते जो मुझे पसंद था, और फिर भी, मैंने उस पर इतना भरोसा किया जो मुझे अभी-अभी भोगकर भी, दूसरी ओर मुंह मारने जा रहा है!
-क्षमा
लघुकथा पढ़कर मैं सत्र रह गया। क्षमा के भीतर कितनी छटपटाहट थी। कितना असंतोष। कितनी रिक्ति। और मुझे लेकर भारी शिकायत। मुझसे भी हाथ लगी निराशा का बवंडर।
अंक तैयार करना दूभर हो गया। भारी ऊहापोह में फंसा आख़िरश मिलने का निर्णय ले मैं शाम के वक्त जब वह छूटने वाली थी, डाकखाने पहुंच गया।
देखते ही मुख पर हवाई-सी उड़ गई, लो हमने तो बंद भी कर दिया!'
'क्या?' जानबूझकर पूछा मैंने।
'बुकिंग सिस्टम!'
'कोई बात नहीं, कल खोल लेना, अभी तो छपी भी नहीं, बनी भी नहीं।'
'फिर ठीक है...' कहकर वह आश्वस्त हुई, मुस्कराई। फिर आलमारी, दराज लॉक कर, काउंटर के छोटे गेट से इधर निकल आई और हँसती आंखों से बोली, चलो!'
जब मैं स्कूटी पर बैठ गया, रास्ते में बताती रही, कि हम तो आपको देखते ही घबरा गए थे। सुनकर मैं मुस्कराता रहा।
घर पहुंच पुराने रूटीन के मुताबिक वह वॉशरूम चली गई। फिर लौटकर फ्रिज से सब्जी की टोकरी निकाल लाई, बोली, 'क्या बनाऊं...'
'आज बाहर चलकर खाएं!' कह मैंने आशा भरी नजरों से देखा।
सुनकर वह उत्साहित हो गई। और मैंने टैक्सी बुक कर दी तो सजने चली गई। जब तक टैक्सी आई उसने साज-श्रृंगार कर कपड़े भी पहन लिए। सामने आई तो मैं चकित रह गया, क्योकि पोस्ट ऑफिस के लिए जहां वह सादा सूट में जाती थी, वहीं अब डिजाइनर बॉटम टॉप में थी।
टैक्सी आई तो अचानक मुझे पेशाब की सुधि हो आई। क्योंकि बस या टैक्सी में बैठते ही प्रेशर बढ़ने लगता था। यह एक तरह की सिकनेस थी। और इसी कारण अक्सर ट्रेन से सफर करता।
टैक्सी में अब तक वह बैठ चुकी थी। जब मैं भी बैठ गया, ड्राइवर ने बिना गन्तव्य पूछे गाड़ी बढ़ा दी...। तब मैं समझ गया कि वह उसे जगह बता चुकी है!
कुछ देर में हम एक इमारत के आगे पहुंच गए। मैंने किराया चुकाया और उसके पीछे हो लिया। दसवें माले पर लिफ्ट से उतरने के बाद हम एक शानदार हॉल में थे। इसमें कायदे से खाने-पीने की मेजें लगी थीं। आकर्षक डांस फ्लोर भी था। धीमा संगीत बज रहा था जिसकी धुनों पर सभी चेहरे मस्ती से खिले हुए थे।
बैठते ही बैरा कांच की चमकदार प्यालियों में सुगन्धित पेय रख गया। मैंने सिप किया तो स्वाद मीठा न खट्टा। सोचा, भोजन से पूर्व का निर्धारित पेय होगा, पी लिया। मगर खाली हुआ देख वह और भर गया, तो पीना मुश्किल हो गया। क्षमा कहने लगी, लो न...यहां का रसूख है ये, तीन-चार पीने होंगे!'
'अरे नहीं...' मैंने बुरा सा मुंह बनाया और उसके कहे आंख मूंद पी लिया। पर उसके बाद हल्का-हल्का नशा हो गया। और ताज्जुब कि उसके बाद क्षमा ने दो प्याले और पिये! उसके बाद वह मुझे डांस फ्लोर पर ले गई, जहां पहले से ही कई जोड़े थिरक रहे थे।
और यह पहला अवसर था...मुझे तो नाचना भी नहीं आता था पर हल्के सुरूर के आलम में हाथ-हाथों में लिए कमर मटका रहा था। ...तभी किसी युवा ने उसके कंधे पर टिप किया और वह पलट कर उसके साथ हो ली!
मेरे लिए यह बड़ी अजीब सी घटना थी। हालांकि यह दस्तूर था और मैं भी किसी महिला के कंधे पर टिप मार सकता था लेकिन क्षमा को छोड़ किसी और के साथ रंगरेलियां बनाने की इच्छा न थी। निरुत्साहित-सा मैं अपनी टेबल पर आकर बैठ गया। सोचने लगा, भरी जवानी में उससे उसका प्यार छूट गया, मातृत्व भी... तो वह जो करे ठीक है। हालांकि मुझे उससे प्यार हो गया था और जिससे सच्चा प्यार हो जाए उसके प्रति भावना बदल जाती है।
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