(भाग 5)
इस रोग का कोई उपचार न था। किंकर्तव्यविमूढ़-सा मैं बैठा रहा।
जब खूब रो चुकी, मैंने कहा, पहले मैं भी अपनी बेटी के लिए इसी तरह रोता था। सालों साल रोया। लेकिन रोने से वह वापस नहीं मिली, मिली तो पत्रिका में और उसकी बदौलत अब तुम में आकर। सच कहता हूं, उस दिन तुम्हें कलेजे से लगाया तो लगा वह तुम में रूपांतरित हो गई है! यह तो अपना नजरिया है। तुम अपने पुत्र को पत्रिका में और न हो तो मुझ में पा सकती हो! कह कर भावनाओं के अतिरेक में मैंने उसे सीने से लगा लिया।
तब जैसे धीरज आ गया और धीरे-धीरे उसकी सिसकियां थम गईं। मगर देर तक बैठे-बैठे हम दोनों ही थक गए तो आपस में बंधे बंधे ही नीचे की ओर खिसक कर अधलेटे हो गए और फिर थोड़ी देर में लेट गए।
थोड़ी देर में मुझे नींद आ गई और उसे भी। किंतु मुख एक दूसरे के सम्मुख होने से सांसों की टकराहट से जल्दी हम दोनों की झपकियां टूट गईं। फिर उसने अपनी करवट ले ली और मैंने अपनी। अब वह चैन की नींद सो रही थी या शायद थक गई थी इसलिए बेहोश हो गई थी। मैं ईश्वर को लाख धन्यवाद दे रहा था कि चलो अच्छा हुआ इसे राहत मिल गई।
लेकिन अब खूब कोशिश करने पर भी मुझे उसके बेड पर नींद नहीं आ रही थी। क्योंकि बेटी, बेटी थी। मैंने उसे बचपन से नंगा खिलाया था, उसकी हगीज बदली थी। और क्षमा, क्षमा थी। इससे मेरा बायोलॉजिकल रिश्ता न था। संकोच और यथार्थ-चिंतन ने मेरी नींद हर ली थी।
भावना पंगु लग उठी तो मैं धीरे से वहां से उठकर मुख्य कक्ष में आ गया जहां सोफा और दीवान बेड था। लेकिन उस बेड पर लेटने के बाद भी मुझे यथोचित नींद नहीं आई। तब उठकर पेशाब करने गया और वॉशरूम से लौटकर लेटा नहीं, सोफे पर बैठ गया।
फिर समय काटने के लिए पत्रिका पलटने लगा। जब साढ़े चार बजे गए, मैं स्टडी रूम में झांकने गया कि वह उठ गई या नहीं। पर वहां तो उसके हल्के-हल्के खर्राटे आ रहे थे। तब मुझे इतना अच्छा लगा कि बता नहीं सकता। इसकी तुलना मैं पत्रिका से मिलने वाले सुकून से ही कर सकता था। न मंदिर और न पूजा-पाठ या तीर्थ-यात्रा वाले आनंद से।
वहां कुछ देर टिकने के बाद मैं फिर से सोफे पर आ बैठा। दिल को बहुत ही अच्छा लग रहा था। फिर जब साढ़े पाँच बजे गए, गर्मियों के दिन, बाहर कुछ उजाला-सा फैलने लगा, मैं उठकर गेट खोल और उसे भेड़कर सड़क पर निकल आया।
बाहर से जब मैं टेक्सी लेकर अपने रूम पर पहुंचा, साढ़े छह बजे गए थे।
राह में सोता-सा चला आया था, सोचता हुआ कि बेड-टी लेकर फ्रेश हो लूंगा और आज के डिस्पैच के लिए पैकेट बना लूंगा। मगर रूम पर आकर लेने की इच्छा न हुई और मैं लेट गया तो थोड़ी देर में आंख लग गई जिसके कारण जब जागा, धूप चढ़ आई थी, दस बज चुके थे।
फिर तैयार होने, पैकेट बनाने में एक बज गया। और मैं डाकखाने पहुंचा, लंच-ब्रेक! क्षमा गोया मेरी प्रतीक्षा कर रही थी। जैसे ही पहुंचा, उसने मुस्कुरा कर कहा, आप तो जगा कर भी नहीं गए!' मैंने कहा' तुम कितने दिन बाद तो सोई थी, जगाने की हिम्मत न पड़ी।' उसने कहा, थैंक्स!' फिर बोली, अंदर आ जाओ, खाना खा लेते हैं।'
सुनकर मैं पत्रिकाओं का बण्डल काउंटर पर छोड़कर अंदर पहुंच गया, जहाँ दूसरी टेबिल पर बैठकर हम लोग खाना खाने लगे।
खाने के बाद मैं लिफाफों पर बारकोड लगाने लगा और वह पोस्टिंग सम्बन्धी पेंडिंग वर्क निबटाने लगी। अब मुझे भी कोई जल्दी न थी। क्योंकि किसी दूसरे डाकघर का मुंह तो जोहना नहीं था, इसलिए गैलरी में पड़ी कुर्सी पर इत्मीनान से बैठा सोचता रहा कि एक दिन हर किसी को किनारा मिल ही जाता है।
काम निबटाने के बाद पतिकाएँ उसने बुक कर दीं और रसीदों की गड्डी मेरी ओर बढ़ा दी तो मैंने पूछा, कितना हुआ।'
'कितना ही नहीं...' वह मुस्कराई।
'क्यों नहीं...' कहते पांच सौ का नोट निकाल कर मैंने उसकी ओर बढ़ा दिया।
पैसे काट कर वापस कर दिए तो मैंने पूछा, चलूँ?'
बोली, 'कहां?' फिर जैसे याद आया, 'अरे अभी जाकर क्या करेंगे! शाम को खाना खाकर चले जाइएगा!'
बच्चे की तरह बात मानकर मान कर मैं बैठ गया। लग रहा था, वह मेरी मां बन गई है।
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