(धारावाहिक कहानी)
(भाग 1)
पत्रिकाएं पोस्ट करने के लिए कईएक डाकघर के चक्कर लगाने पड़ते। क्योंकि लिफाफे अधिक होते और एक खिड़की पर पांच-सात से अधिक लिए नहीं जाते। खुश तो इसलिए हो गया कि आखिर एक काउंटर ऐसा भी मिल गया जहां भीड़ भी नहीं होती और वहां पर बैठने वाली बुकिंग क्लर्क मुस्कुराकर स्वागत भी करती। अगर मैं ज्यादा पत्रिकाएं उसे डिस्पैच के लिए दे देता तो कभी लौटाती नहीं, रख लेती। बोलती, 'कल आकर रसीद ले लीजिए।'
इस तरह एक सिलसिला बन गया और मैं किसी दूसरी जगह चक्कर न लगाकर वहीं जाने लगा। और पहले 10 और उसके बाद 20 पत्रिकाएँ उसे डिस्पैच के लिए देने लगा। अगले दिन रसीद ले लेता और नए लिफाफे दे देता। चूंकि मुझे 3 महीने में यह काम करना होता था इसलिए हर 3 महीने में 8-10 दिन उसके संपर्क में रहता। ऐसा करते-करते एक डेढ़ साल हो गया और उसका सौम्य स्वभाव और मुस्कुराता चेहरा मेरे ख्यालों में बना रहने लगा...।
कहीं ऐसा न हो कि उसका तबादला हो जाए और फिर कोई नया व्यक्ति आ जाए जो कि मुझे भाव न दे तो क्या होगा! सोचा, उसका नंबर ले लूं। पर यही सोचते-सोचते लगभग 6 महीने का समय और गुजर गया कि एक बार उसने अचानक कहा, 'आप हमारा नंबर ले लीजिए हो सकता है, बदली हो जाए। मैं जहां भी पहुंचूं आप वहां आएंगे तो मैं कर दिया करूंगी।'
सुनकर मैं चमत्कृत हो गया कि यह अजीब टेलीपैथी थी! बोला, 'जरूर...।'
पर उस टर्न का वह आखरी दिन था और मैं बहुत जल्दी में, घड़ी देखी, ट्रेन छूटने में 10 मिनट का समय भी नहीं बचा था। हड़बड़ी में मैंने कहा, आज तो में जल्दी हूं, अगली बार आकर ले लूंगा।' और चार-पांच पैकेट उसे देखकर चला आया कि रसीद भी बाद में ही लूंगा।
मगर स्टेशन पहुंचा तो ट्रेन छूट चुकी थी और मैं उसका नंबर भी नहीं ले पाया। मन में थोड़ा सा मलाल रह गया।
लेकिन मुझे पता नहीं था कि यह मलाल बड़ा हो जाएगा...। जब अगले टर्न पर, लगभग ढाई महीने बाद फिर वहां पहुंचा, तो खिड़की पर उसकी जगह एक पुरुष को बैठा देख मैं निराश हो गया। बहरहाल, मैंने अपना 20 पत्रिकाओं का बंडल उसे दिया तो उसने कहा कि- 'इतनी तो नहीं की जा सकतीं, 2-4 कर सकता हूँ।' और मैंने कहा, 'दो-चार से फिर क्या फायदा...' शहर के दूसरे डाकखाने पर मैं चला गया। अगले दिन तीसरे पर। फिर अगले दिन चौथे पर।
परेशानी पहले की तरह बढ़ गई। आखिर में घूम-फिर कर चार-पांच दिन बाद उसी डाकखाने पर आया और वहां जो प्यून बैठी थी, उससे मैंने पूछा कि- 'मैडम का नंबर आपके पास है?'
उसने कहा, 'है, मैडम आपको देने के लिए बोल भी गई हैं।' तो एक आश्चर्यजनक खुशी हुई, मैंने कहा, 'ठीक है, फिर उनका नंबर मुझे दे दो।'
तब तक मुझे उसका नाम भी मालूम नहीं था। जब प्यून ने मुझे उसका नंबर दिया तो मैंने अपने मोबाइल में फीड करते हुए नाम पूछ लिया जो कि उसने क्षमा बताया था।
इस तरह मुझे नाम-नम्बर तो मिल गया, पर इस टर्न का काम फिर से कईएक डाकघरों में चक्कर लगाते हुए खत्म हो गया था इसलिए मैं अपने शहर वापस चला आया। जब 3 महीने बाद फिर से टर्न आया तब फोनबुक में अपनी याददाश्त के आधार पर वह नाम खोजते हुए मैंने उस नंबर पर फोन लगाया। घंटी गई तो उधर से आवाज आई, 'हेलो!' मैंने कहा, 'नमस्कार।' आवाज तुरंत पहचान ली गई। उसने कहा कि- 'अरे आप! आइए, हम यहां...इस शाखा...में आ गए हैं।' मैंने कहा, 'ठीक है, मैं आता हूं... क्या आपके पास समय है...आप थोड़ा सा डिस्पैच कर देंगी।'
'कर देंगे,' वह चहकी, 'हमने तो पहले ही आपसे कहा था...।'
उत्साहित हो मैं बोला, 'ठीक है, आता हूँ।' और उसके बताए पते पर वहां पहुंच गया।
जब पहुंचा तो वह काम में अति व्यस्त थी। लेकिन मैंने जैसे ही जाकर नमस्कार बोला, नजर उठा कर देखा और मुस्कुराई, 'अभी बिजी हूं, थोड़ी देर बैठ जाइये।'
गैलरी में पड़ी कुर्सी पर मैं बैठ गया। तब उसे गौर से देखने का मौका मिला। वह कोई 35-40 वर्ष की युवती थी जो सादा सलवार सूट में काफी सौम्य लग रही थी। वैसे भी कर्मठ महिला हो या पुरुष काम करते हुए सुंदर दिखता है। मैं उसे देखते हुए सोचने लगा कि इससे मेरा जरूर किसी पिछले जन्म का नाता है... तभी तो कदम-कदम निकटता होती जा रही है!
लगभग 15 मिनट बाद उसने मुस्कराकर रुख मिलाया और अपनत्व भरे स्वर में हाथ फैला कर कहा, 'लाइए।' और मैं झट से उठकर उसके पास गया। काउंटर पर पत्रिकाओं का बण्डल रखते, खोलते हुए मैंने कहा, 'लाइए, बारकोड दे दीजिए, मैं चिपका देता हूं।'
तो उसने कहा, 'अरे नहीं-नहीं, आप तो दे जाइए, मैं चिपका लूंगी... रसीद कल ले जाइएगा!'
जब मैं एडवांस देने लगा तो उसने कहा, 'ठीक है, जमा कर दीजिए और कल दूसरी ले आइये, इनकी रसीदें ले जाइएगा।'
यह कह वह उठ गई और बगल की टेबल पर पहुंच अपना टिफिन खोलने लगी। मैं चलने लगा तो बोली, 'लंच ले लीजिए।'
मैंने कहा, 'शुक्रिया! आप लीजिए।'
इस तरह मैं चला तो आया पर उसकी छवि मेरे दिमाग में बस गई। आकर्षक चेहरा, मोहक मुस्कान, मीठे बोल। सोचने लगा कि मेरी उम्र 70 वर्ष हो गई है और यह युवती है। मैं क्यों इसके प्रति आकर्षित हो रहा हूं? फिर इसका पति और परिवार भी होगा! अगर वह मेरा सहयोग कर रही है तो इसका अर्थ मुझे और कुछ नहीं लगाना चाहिए।
पर उसे मन ही मन याद करते हुए मुझे एक अनूठी खुशी महसूस हो रही थी...।
अगले दिन डिस्पैच तैयार करके उसके पास पहुंचा और इसी तरह फिर अगले दिन। लेकिन एक से दूसरे दिन के बीच में और रात में मैं उसकी फेस रीडिंग के बाद इस नतीजे पर पहुंचा कि वह औरों से बहुत हटकर है। इसके साथ ही उसे मुझे या मेरे काम से या शायद पत्रिकाओं से कोई विशेष रुचि है। इसलिए उस टर्न के डिस्पैच के आखिरी दिन मैंने पूछा कि- 'आपको इस पत्रिका में रुचि है?'
तो उसने कहा, 'हां- है ना... घर जाते मैं एक रख ले जाती हूं और उसे खोलकर पढ़ती हूं तथा अपने बच्चे को भी पढवाती हूँ...। वह क्या है कि आजकल मोबाइल का जमाना आ गया है तो बच्चे किताबों से दूर हो गए हैं। मैं उसे मजबूर करती हूं कि कम से कम एक पेज जरूर पढ़े। और वह पढ़ता है। उसे अच्छा भी लगता है। मुझे भी अच्छा लगता है। इस तरह पढ़ने के बाद मैं उसे दुबारा पैक कर अगले दिन भेज देती हूं। और अगले दिन फिर एक लिफाफा रख ले जाती हूँ और उसे खोलकर शेष भाग पढ़ लेती हूं। फिर अगले दिन...यों सात-आठ दिन में चोरी-चोरी पूरा अंक पढ़ लेती हूं, आपकी बदौलत...' वह मुस्कराई।
उसकी इस चोरी से मुझे इतनी खुशी मिली की बता नहीं सकता, मैंने कहा, 'यह तो बहुत ही अच्छी बात है। मैं आपको एक पत्रिका अलग से आपके लिए दे जाया करूंगा।'
इस पर वह भी बहुत खुश हो गई, बोली, 'जरूर दे जाइए। मैं जितना भी समय होगा उसे पढ़ूंगी और बच्चे को भी पढ़वाऊंगी।'
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