(भाग 2)
अब मैं मन ही मन अक्सर उसकी तारीफ करता रहता।
अगले टर्न पर यह हुआ कि मैंने आते ही एक पत्रिका उसे अलग से दे दी। तो उसका नतीजा यह निकला कि उसने रसीदें कल ले जाने को नहीं कहा बल्कि यह कहा कि- 'आप कुर्सी पर बैठ जाइए, मैं अभी भेज देती हूं।' और मेरे सामने ही बारकोड लगाकर बुक करने लगी।
तब मैं उसके चेहरे पर आते-जाते ख्यालों को पढ़ता रहा कि घर में और कौन है? पति से इसकी कैसी पटरी बैठ रही है, या नहीं! यह कितनी संतुष्ट है? दुखी है, सुखी है...!
इस तरह सात-आठ दिन में फिर टर्न पूरा हुआ जिसके बाद मैं लौटकर अपने शहर आ गया और कुछ ही दिनों में इस प्रकरण को भूल कर अपने काम में लग गया। मगर अगले टर्न पर मैं उसके बच्चे के लिए अपने शहर की प्रसिद्ध मिठाई ले आया और पत्रिकाओं के बंडल के साथ मैंने वह पैकेट उसे देते हुए कहा कि- 'यह बच्चे के लिए!' तो वह मुस्कुरा कर बोली, 'समय हो तो आप ही अपने हाथों से चलकर दे देना, बच्चा खुश हो जाएगा!'
यह एक ऐसी बात थी जो मेरी मनचाही थी पर मैंने यह कल्पना भी नहीं की थी कि वह इस तरह से घर आमंत्रित कर लेगी! आमंत्रण पर जैसे मेरे हाथ-पांव फूल गए। मैंने घर का पता लिया और चला आया।
जब शाम हो गई और समझ लिया कि वह डाकखाने से घर पहुंच गई होगी तथा अपने आवश्यक काम निपटा लिए होंगे, मैं सात-आठ बजे के लगभग उसके घर जा पहुंचा।
घर में दो ही रूम थे; एक बच्चे का और एक उसका और किचन तथा लेटबाथ। वह किराए पर रहती थी यह उसने मुझे शुरू में ही बता दिया था। जब बच्चा मेरे सामने आया, मैं उसे देखकर ही खुश हो गया क्योंकि वह गेंदे के फूल सा गोलमटोल, मनमोहक और सुवासित था। उसकी आंखों में उल्लास और चेहरे पर ओसकणों-सी ताजगी थी। मैंने उसे बाहों में भरकर पूछा, 'आपका नाम...?'
उसने दिलकश आवाज में कहा, 'शुभ!'
'बहुत सुंदर!' मैंने उसका माथा चूमा जैसे निसार हो गया। क्योंकि यह खुशी मुझे इससे पहले न जाने कब मिली थी, याद नहीं... और मैं इसी के लिए तरस रहा था।
झोले से निकाल मैंने उसके हाथ में मिठाई का डिब्बा दे दिया।
बच्चा बड़ा भोला और मासूम था। वह मुझसे जल्दी ही हिलमिल गया और मैं इतने ही से ही समझ गया कि वह अपने पिता की जरूरत महसूस कर रहा है...!
रिहायश उसकी भूतल पर थी और उसके बगल में लंबी गैलरी। पीछे जाकर और भी एक रिहायश जिसके आवागमन के लिए ही गैलरी छोड़ी गई थी। बच्चे ने बॉल और बेट उठाया तो मैं समझ गया कि वह क्रिकेट खेलना चाहता है। मैं खुशी-खुशी उनके साथ गैलरी में आ गया। पूछा, 'बेटिंग करोगे या बॉलिंग?' तो उसने कहा, 'मैं स्पिनर हूँ।'
मैं मुस्कराया और बेट लेकर खड़ा हो गया...। तब मैं दो बार आउट हुआ और वह खूब उछला।
जब तक मैं बच्चे के साथ खेलता रहा, क्षमा ने खाना बना लिया। फिर मैंने बहुत मन किया, पर उसने बिना खाये आने नहीं दिया। इस तरह वह मुलाकात इतनी सुखद रही कि मैं रात भर सो नहीं सका। सोचता रहा कि वह शायद अकेली ही रहती है, शायद उसका पति अब है नहीं अथवा उससे अनबन हो गई है, और हो सकता है धीरे-धीरे वह मेरे और करीब आ जाए! मगर मैंने सोचा कि इससे फायदा क्या होगा? मैं तो अब सहवास के काबिल भी नहीं रह गया... यही सोच कर मैं बेहद निराश हो गया। और काम निपटाकर अपने शहर चला आया।
3 महीने बाद जब फिर अगले टर्न पर वहां पहुंचा, वह पूर्ववत मिली और उसे जो सहयोग करना था उसी तरह से किया। पर यहां पर वह कुछ ज्यादा ही व्यस्त थी। मैं उसकी कर्तव्य-निष्ठा से अत्यंत प्रभावित था। लंच के समय अवकाश मिलने पर उसने इतनी आजिजी से कहा कि 'आइये, एक-आध ग्रास तोड़ लीजिये...' तो मैं इनकार नहीं कर सका।
कुछ बातें हुई... इस अवसर पर मैंने कहा कि- 'इस पूरे अमले में, इतने डाकघरों में एक आप ही मुझे ऐसी मिली हैं जो इतनी लगन से यह काम करती हैं। लगता है, इस पत्रिका में आपकी रुचि बड़ी गहरी है। मेरे लिए यह बड़ी खुशी की बात है...।'
तब उसने बताया, कि 'दिन में तो टाइम नहीं मिलता पर मैं रात में घर जाकर यह पत्रिका जरूर पढ़ती हूं। इसमें सचमुच बहुत अच्छी चीजें, काम की, सीखने और जीवन में अपनाने लायक बातें होती हैं। मेरा बच्चा स्कूल में पढ़ता है। पर वह हिंदी नहीं जानता और मोबाइल चलाता रहता है। जबसे मैंने उसको पत्रिका पढ़ने को दी और अनुशासन में बांधा है, वह एक पेज रोज पढ़ने लगा है। वह हिंदी पढ़ना सीख रहा है, उसका आत्मविश्वास बढ़ रहा है। क्योंकि हिंदी बोलता तो है, पढ़ना और लिखना नहीं जानता। स्कूल वाले सिर्फ अँग्रेजी पर जोर देते हैं जबकि टीवी स्क्रीन पर हिंदी, साइनबोर्डों पर हिंदी और दुकानों पर भी हिंदी में रेटलिस्ट...!'
वह टर्न पूरा करके मैं चला आया, मन में यह खुशी भर कर कि, चलो मैं अपने मिशन में सफल हो रहा हूं। मेरी पत्नी तो बहुत पहले ही जा चुकी थी, मात्र एक बेटी थी, वह भी दहेज लोभियों की भेंट चढ़ गई। मैं जीवन से बेहद निराश और दुखी हो गया। रोज आत्म-हत्या करने की सोचता। तभी अचानक यह बात सूझी कि क्यों न समाज की मानसिकता बदलने के लिए एक ऐसी पत्रिका निकालूँ... अव्वल तो जिसकी भाषा हिंदी हो, क्योंकि अँगेजी के प्रथम भाषा बन जाने से हिंदी और हिंदी भाषी उपेक्षित महसूस कर रहे हैं; दूसरे जिसमें धर्म और राजनीति से हटकर समाज को बदलने वाले लेख और अन्य रचनाएं प्रकाशित की जाएं। क्योंकि समाचार पत्रिकाएँ और धार्मिक पुस्तिकाएं तो खूब छप रही हैं पर सामजिक बहुत कम। हो सकता है मेरे प्रयास से मनुष्य से मनुष्य के बीच का अंतर्विरोध मिटे और सामाजिक वैमनस्य समाप्त हो...। पारिवारिक कलह मिटे और पति-पत्नी के बीच प्रेम-सौहार्द्र बढ़े। बच्चों को संस्कार और स्वस्थ मनोरंजन मिले... और इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए मैंने बाकायदा रजिस्ट्रेशन भी कराया... पर मेरे कस्बाई शहर में कोई अच्छा छापाखाना नहीं था इसलिये मैंने इस महानगर में एक प्रेस से कॉन्टेक्ट कर इसे प्रकाशन स्थल बना यहाँ एक कमरा भी ले लिया जहाँ मैं टेंपरेरी रूप में आकर रहता हूँ।
अगले टर्न पर जब मैं वहां पहुंचा तो पता चला, वह छुट्टी पर है! मैंने पूछा, 'क्यों?' तो प्यून ने बताया कि, 'मेम की तबीयत खराब है।' तब मैंने फोन लगाया।
बोली, 'तबीयत खराब थी और कुछ रेस्ट भी लेना चाहती थी। मुझे पता नहीं था कि आपका टर्न आने वाला है, नहीं तो छुट्टी नहीं लेती, ऐसी कुछ खास बीमारी नहीं... कल आ जाऊंगी, छुट्टी कैंसल करा लूंगी।'
सुनकर मैं यकायक बोला, 'नहीं-नहीं, आप छुट्टी कैंसल मत कराइये, इस बार मैं यह काम कहीं और करा लूंगा। पर मैं आपको देखने जरूर आऊंगा।'
एक दूसरे के प्रति ऐसी सहयोग भावना से दोनों का ही दिल भर आया था...।
शाम को उसके घर पहुंचा तब मैंने देखा, मुझे आया देख वह बहुत खुश हो गई है। पर मैंने देखा कि आज घर में बच्चा भी नहीं था और वह निपट अकेली थी तो एक गुप्त खुशी का एहसास भी होने लगा। मेरा मनोरथ रूपी कल्पवृक्ष फूलने लगा। सोचने लगा कि परमात्मा 20 साल का अकेलापन मिटाना चाहता है। मैंने सुना था कि घोर दुख के बाद ही अपरमित सुख आता है। सोच भी नहीं सकता था कि वृद्धावस्था में ऐसा भावनात्मक संबंध बन जाएगा! मैंने ऐसे भी किस्से पढ़े थे कि थे शेल्टर होम में पुनर्विवाह होते हैं और जीवन फिर से उत्साह-उल्लास से भर जाता है। पर न तो मैं किसी शेल्टर होम में था और न मेरी ऐसी कोई कोशिश थी। यही सोचता था कि उम्र हो गई है, किसी से संबंध बना भी तो पूर्ति कैसे करूंगा? दैहिक क्षमता भी तो होनी चाहिए!
लेकिन आज लग रहा था कि प्यार हो जाए तो केवल यौनिक सम्बंध को ही तो सहवास नहीं कहते, साथ रहना ही सच्चा सहवास है! अगर क्षमा के मन में मेरे लिए जगह न होती तो इस तरह आने ही क्यों देती? क्या पता बच्चा उसने जानबूझकर दादी-नानी के पास भेज दिया हो ताकि मेरी ओर प्रेम की पींगे बढ़ा सके...।
जानकारी पुख्ता करने के लिए मैंने पूछा, 'बच्चा कहीं गया है?'
और कहानी यहीं से अचानक त्रासदी पूर्ण हो गई। क्षमा सिसकने लगी। और मैंने उसके सिर पर हाथ रखा तो उसने अपना सर मेरे सीने में दे दिया और फूट-फूट कर रोने लगी।
धीरज बंधाने मैं उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगा। फिर उसे सहारा दे सोफे पर लाकर बिठाया तो वह मेरी गोद में गिर गई।
व्यथित होते-होते जब काफी देर हो गई, तब कांपते होठों से उसने बताया कि- 'तलाक तो 15 साल पहले ही हो चुका था और बच्चा छोटा होने से मां को मिल गया था। लेकिन मामला फैमिली कोर्ट में था, निर्णय आ गया कि बाप को दिया जाय... दे दिया...!
वह दुष्ट समय आ ही गया आखिर...'
क्षमा फिर एक सद्य विविधा-सी कलप-कलप कर रोने लगी।
क्षमा की दुख भरी दास्तां सुन मेरा कलेजा टुकड़ा-टुकड़ा हो गया था। एक माँ के लिए बच्चा ही उसका असली धन। पहले यह कितने उल्लास, उत्साह से भरी रहती थी! अब जैसे कोख ही उजड़ गई जो मांग के उजड़ जाने कहीं अधिक भयावह। हाय, बिना बच्चे के अब कैसे जियेगी यह...।
बच्चा मेरी आँखों मे नाच रहा था, बॉलिंग करते हुए, मां से लिपटते हुए, पत्रिका पढ़ते हुए, मुझसे दुनिया-जहान की बातें करते हुए...।
भावुकता में बहते मैंने खुद भी रोते हुए क्षमा को अपने सीने से लगा लिया, जैसे, मरी हुई बेटी वापस मिल गई हो...।
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