Yah mai kar Lunghi - 4 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | यह मैं कर लूँगी - भाग 4

Featured Books
Categories
Share

यह मैं कर लूँगी - भाग 4

(भाग 4)

क्षमा को सरप्राइज देने, जब बिना बताए मैं उसके घर पहुंचा, शाम हो चुकी थी। वह शायद, हाल ही में डाकखाने से लौटी थी और बिस्तर पर पस्त पड़ गई थी...यह मैंने इसलिए जाना कि उसने अभी कपड़े भी नहीं बदले थे और शायद आकर लेट जाने से विस्तर और उसके वस्त्र अस्तव्यस्त हो गए थे। उसकी निराशा देख भीतर आते ही मैंने तुरंत कहा कि- यह तुमने अपना क्या हाल बना रखा है! उसी बात में घुटती रहोगी तो जियोगी कैसे? मुझे देखो, मैंने तुम में अपनी बेटी को पा लिया और कितना उत्साहित हूं, कितना प्रोम्प्ट, कैसी लगन, मेहनत, प्रतिबद्धता से भरा हुआ।'

क्षमा ने कुछ कहा नहीं। मुझे बिठाकर अंदर चली गई। थोड़ी देर में कपड़े बदल कर आई, पानी देकर चली गई। और फिर थोड़ी देर में चाय लेकर आ गई।

तब पत्रिका उसके हाथों में देते हुए मैंने कहा, इसे खोल कर देखो। इसका उद्घाटन करो।' सुनकर वह मुस्कुराई और पत्रिका बीच से खोलने लगी। तो मैंने कहा, ऐसे नहीं, शुरू से खोलो...' तब उसने कवर पेज पलटा तो जो फ्रंट पेज दिखा उसे पढ़ने लगी और अचानक मेरी ओर नजर उठा मुस्कुराई। यानी उसने अपना नाम पढ़ लिया!

'कोंग्रेच्युलेशन्स' मैंने कहा और कप उठा लिया। तब उसने भी जैसे चियर्स करते हुए कप उठा लिया और मुस्कुराते हुए धीरे-धीरे सिप करने लगी।

और मैं मन ही मन कहने लगा कि- अगर तुम्हें थोड़ी सी खुशी, थोड़ा सा उत्साह दे पाऊँ तो यह पत्रिका निकालने जैसा ही बड़ा काम होगा!

मन की यह बात शायद उसके मन में सुन ली और वह फिर मुस्कुराई।

यों रह रह कर मुस्कुराने में समय कितना बीत गया हम दोनों को ही पता नहीं चला। जब मैं उठकर चलने लगा तो उसने कहा, बैठो ना, खाना बनाती हूं।'

तो मैंने कहा कि- अकेले नहीं; चलो मैं भी किचन में हाथ बंटालूं।' तो उसने लगभग चीखते हुए कहा कि- नहीं नहीं, आप बैठो! मैं अभी 2 मिनट में बना लेती हूं।' लेकिन मैं नहीं माना, उसके पीछे आ गया, क्योंकि इसी तरह से तो मैं अपनी बेटी का हाथ बंटाया करता था! पर यह तो मैंने किचन में पहुंचने के बाद ही जाना कि बेटी का हाथ बंटाने में और उसके काम में हाथ बंटाने में बुनियादी फर्क था। वह खुद ही फटाफट सब कुछ करती जा रही थी जबकि बेटी मुझ पर छोड़ या तो अपने मोबाइल में लग जाती या पढ़ाई-लिखाई के दूसरे काम में। और तब मुझे यह भी समझ में आया कि बेटी जब तक मेरे पास रही पुरुष के ताब में न थी। वह पिता के कोमल साए में थी जबकि क्षमा एक पुरुष के कठोर बंधन में रह चुकी है तो उसे सेवा करने की आदत हो गई है।

खाना तैयार करने के बाद उसने फटाफट दो थालियां लगा लीं। और उन्हें सोफे के आगे टेबल बिछा रख आई। मैं समझ गया कि उसने आज ऐसा इसलिए किया ताकि पहले की तरह मेरे साथ नहीं खाना पड़े। शायद वह इस टोटके से वाकिफ है कि एक-दूसरे का जूठामीठा खाने से आपस का प्यार बढ़ जाता है!

खाना टेबल पर लगा देख मैं हाथमुंह धोने चला गया। लौट कर आया तो वह भी वहीं हाथमुँह धोए बैठी मिली। मैंने पहला निवाला तोड़ा और इच्छा हुई कि अपने हाथ से उसे खिला दूं पर हिम्मत न पड़ी। थोड़ी देर हाथ में लिए बैठा रहा तो उसने पूछा, क्या भगवान को अर्पण कर रहे हैं?' मैंने कहा कि- मनुष्यों के भीतर ही ईश्वर विराजमान है, तुम कहो तो कर दूँ।' और उसने बिना सोचे कहा कि- कर दो!' तो मैंने झट से निवाला उसके मुंह में रख दिया...।

आंखें अचानक भर आईं और वह कहने लगी कि- शुभ भी मुझे इसी तरह जबरदस्ती खिला देता था, जब मैं काम में लगी होती थी...'

दिल में आया कि कहूं, तुम मुझे शुभ ही क्यों नहीं समझ लेतीं। पर कह न सका, चुपचाप खाने लगा और वह भी खाने लगी।

खाना खत्म करने के बाद वह बर्तन समेट कर किचन में चली गई और रसोई समेटने लगी। न उसने जाने के लिए कहा और न मैंने अनुमति मांगी। दरअसल, मैं उसे पत्रिका दिखाना चाहता था और उससे शाबाशी लेना चाहता था। अपने काम की तारीफ सुनने का लोभ मैं अभी तक संवरण नहीं कर पाया था। क्षमा जब आ गई मैंने कहा बैठो' और वह बगल में आकर बैठ गई तो मैंने पत्रिका का पहला पेज फिर से खोला और उसके नाम पर उंगली रखकर बताया कि- अब तुम मेरे साथ सदा यहां रहोगी।' सुनकर उसने मेरी आंखों में झांका और मुस्कुराई और बस यही पुरस्कार था। मैं खुश हो गया। मैंने पेज आगे पलटे और उसे बताने लगा कि देखो, इस रचना में यह है, इसे मैंने इसलिए छापा, इसे मैंने क्यों छापा, इसलिए छापा... करते-करते पूरे पेज पलट दिए। संक्षेप में मुहावरा रूप से संपूर्ण पत्रिका की कथावस्तु से अवगत करा दिया। यों मुखाग्र रूप में समझाने में एक-डेढ़ घंटा कब निकल गया, मुझे या उसे खुद ही पता नहीं चला। जब घड़ी पर नजर गई 12:30 बज गए थे। तो जैसे, नशा उड़ गया हो। मैंने अचानक कहा, अच्छा चलता हूं!' तब उसने भी घड़ी देखी और चकित-सी बोली, अब इतनी रात कहां जाइएगा?' मैंने कहा, कमरे पर।' उसने पूछा, किस जगह है?' और मैंने लोकेशन बताई तो बोली, वहां के लिए तो अब कोई साधन भी नहीं मिलेगा, आपको पैदल जाना पड़ेगा!' मैंने कहा, दस बजे के बाद उसे इलाके के लिए कोई साधन तो नहीं मिलता और मैं अक्सर पैदल ही जाता हूं।' वह बोली, फिर तो बहुत देर लग जाती होगी!' मैंने कहा, लगभग एक डेढ़ घंटा तो निकल ही जाता है।' तब उसने कहा कि- फिर आप कब सोएंगे, जब दो बजे पहुंचेंगे! एक घंटे तो वैसे भी नींद नहीं आती बिस्तर पर लेटने के बाद... फिर सुबह से आपको यह डिस्पैच वाला काम भी करना है!' मैंने कहा, यह तो है...'

मैं दुविधा में था कि कैसे कहूं, यहीं सो जाऊं! तो उसने कहा कि- अब आप जाते ही क्यों हैं, यहीं सो जाइए ना!' और मैंने सोचा कि- ना-ना, इसमें तो कोई बुराई नहीं है... यही सोच कर मैं रूम में पड़े दीवान बेड पर जम गया और वह उठकर दूसरे कमरे में चली गई जो बच्चे का स्टडी रूम था, उसमें भी उसका बेड लगा हुआ था।

लेकिन जगह बदल जाने से या बीच में इतनी सारी बातें आ जाने से मुझे नींद नहीं आ रही थी। करवट बदल रहा था, अंधेरे में घबराहट भी हो रही थी तो मैंने उठकर बत्ती जला ली। उसके बाद पेशाब के लिए उठ कर गया तो देखा कि उसके कमरे की भी बत्ती जल रही है और वह भी करवट बदल रही है! कुछ समझ नहीं आया कि क्या करूं, कहूँ?

लौट कर अपने रूम में आ गया और बत्ती बुझा कर लेट गया कि शायद मेरी बत्ती जली रहने से उसे नींद नहीं आ रही होगी! लेकिन मैं थोड़ी देर इस तरह चुपचाप लेटा रहा तो मुझे उसकी धीमी-धीमी सिसकियों का स्वर सुनाई देने लगा। दिल को चोट लगने लगी और मैं अपनी जगह से बिना आहट उठकर स्टडी रूम की तरफ आ गया तो सिसकियां और तेज हो गईं। और मैंने पाया कि वह सचमुच हिलती हुई सिसक रही है। बत्ती जरूर बंद है, पर पलंग की आहट उसका हिलना-काँपना दिखा रही है।

कलेजा थामे कुछ देर खड़ा रहा फिर मैं धीरे से पलंग पर बैठ गया। फिर थोड़ी देर में सर पर हाथ रखा तो वह और जोर से सिसकने लगी। तब मैंने व्यथित होते कहा, इस तरह कब तक रोओगी...'

और वह फफकते हुए कहने लगी, हे-य... तुम क्या जानो, कलेजा फटा जा रहा है...क्या करूं! बेरी उसे छीनता नहीं, मुझे मार डालता तो रोज का कलेश मिट जाता...

इतना तीखा दर्द होता है कि अब तो सहन भी नहीं होता...सल्फास खा लूंगी...।'

कहते वह उठ बैठी।

●●