(भाग -11)
वर्तमान अंक की सारी पत्रिकाएं डिस्पैच हो चुकी हैं। अब रुकने का कोई कारण नहीं था। वैसे भी मुझे यह शहर काटने को दौड़ता है, जिधर भी आता हूं भागते वाहन उनमें भरे हुए लोग...। पता नहीं यह भीड़ कहां भागी जा रही है? कहां से आ रही है! और इस भीड़ में कोई अपना नहीं। जो एक अपना दिखा उसे भी मैंने खो दिया। अगर मैं अपने आप को रोक पाता तो यह नौबत नहीं आती। क्या उससे आंख भी मिला पाऊंगा, अब!
बहुत मायूस और निराश-हताश-सा पड़ा रहा देर तलक। सोचता-पछ्ताता कि वह घटना नहीं घटाता तो आज किसी भी तरह आने न देती। पर बात ही ऐसी हो गई कि अब मैं आज न मिल सकता था, न फोन लगा सकता था।
दोपहर तक अन्यमनस्कता की हालत में पड़ा रहा। एक झूठी उम्मीद बांधे की शायद फ़ोन कर बुला ले! जब समय बीत गया उसके बाद उठा, तैयार हुआ, थोड़ा कुछ खायापिया और ट्रेन से मैं अपने शहर निकल आया।
अब उसे भुलाने की कोशिश कर रहा था।
मन दुखी था। एक अजीब-सी आत्मग्लानि से ग्रस्त कि मैंने उसे धोखा दिया है...। फिर कई-कई बार सोचता कि यही ठीक था। इसी से उसका खालीपन भर सकता था।
यह तो औरत-मर्द की एक नैसर्गिक जरूरत है। गाय, जिसे माता कहते हैं, देवताओं का वास-स्थान; वह भी आवश्यकता अनुसार अपने पिता, भाई और बेटे से संबंध बनाने में नहीं हिचकती। यह जो रिश्ते हैं, हमने खुद बनाए हैं। मर्यादा हमारी खींची हुई लकीर है। नैतिकता हमारा बनाया गया नियम और विवाह संबंध तो इसीलिए ताकि एक स्त्री का एक पुरुष पर और एक पुरुष का एक स्त्री पर कब्जा बना रहे।
इस तरह अपने मन को समझा-समझा कर मैंने एक डेढ़ महीने से ऊपर का समय निकाल लिया। अगले अंक के लिए रचनाएं आना शुरू हो गई थीं। मैं नियमित अपना मेल चेक करता था। तभी अचानक मेरी नजर छमा के मेल पर पड़ी। उसने लिखा था :
संपादक महोदय, आपकी पत्रिका के लिए मैं एक मौलिक, अप्रकाशित और अप्रसारित रचना भेज रही हूं। कृपया स्थान देने का कष्ट करें।
पढ़कर, मेरे दिल की धड़कन बढ़ गई। मैं फोल्डर खोल कविता पढ़ने लगा :
शादीशुदा स्त्री अक्सर कर बैठती है इश्क
मांग में सिंदूर होने के बाबजूद,
जुड़ जाती है किसी के अहसासों से,
कह देती है उससे कुछ अनकही बातें।
ऐसा नहीं कि वो बदचलन है,
या उसके चरित्र पर दाग है...
तो फिर वो क्या है जो वो खोजती है!
सोचा कभी स्त्री क्या सोचती है?
तन से वो हो जाती है शादीशुदा,
पर मन कुंवारा ही रह जाता है।
किसी ने मन को छुआ ही नहीं,
कोई मन तक पहुंचा ही नहीं,
बस वो रीती सी रह जाती है।
और जब कोई मिलता है उसके जैसा,
जो उसके मन को पढ़ने लगता है,
तो वो खुली किताब बन जाती है;
खोल देती है अपनी सारी गिरहें,
और बिछ जाती है उसके आगे।
स्त्री अपना सबकुछ न्यौछावर कर देती है,
जहां वो बोल सके खुद की बोली,
जी सके सुख के दो पल,
बता सके बिना रोक टोक अपनी बातें,
हँस सके एक बेखौफ हँसी,
हां लोग इसे ही इश्क कहते हैं!
पर स्त्री तो दूर करती है,
अपने मन का कुंवारापन!
-क्षमा
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