दुनिया को “धार्मिक” लोग चाहिए — ताकि वह अपनी असुरक्षा को पवित्रता की शक्ल दे सके।
इसलिए उसने मंदिर बनाए, ग्रंथ लिखे, कर्मकांड गढ़े।
पर इन सबके भीतर एक डर छिपा है —
कि कहीं भीतर की रिक्तता उजागर न हो जाए।
धार्मिक व्यक्ति वही है जो भीतर धर्महीन है —
क्योंकि जिसे सत्य मिल गया, उसे धर्म की घोषणा की ज़रूरत नहीं।
जो भीतर मौन है, उसे नाम का सहारा नहीं चाहिए।
जो भीतर जागा है, उसे ग्रंथ नहीं चाहिए।
जब तक मनुष्य “धार्मिक” बनने की कोशिश करता है,
वह धर्म से दूर भाग रहा है।
क्योंकि हर कोशिश किसी न किसी भय की संतान है।
धर्म कर्म नहीं — दृष्टि है।
वह भीतर की साधारणता है, जो किसी पहचान से बंधी नहीं।
जब तू बस मनुष्य रह जाता है — न हिंदू, न मुसलमान, न पंडित, न भिक्षु —
तभी धर्म जन्म लेता है।