“मैं और दुनिया”
मैं चुप था,
दुनिया ने कहा — “तू कुछ नहीं जानता।”
जब बोला,
तो उसने कहा — “तू अलग बोलता है।”
मैंने सोचा —
शायद सत्य को शब्दों की नहीं,
सहन की ज़रूरत होती है।
लोग पूजा में झुके,
मैं मौन में झुका।
वे खोजते रहे स्वर्ग बाहर,
मैं ढूँढता रहा शांति भीतर।
किसी ने पूछा — “तेरा गुरु कौन?”
मैंने कहा — “मेरी असफलताएँ।”
किसी ने कहा — “तेरा धर्म क्या है?”
मैंने कहा — “सत्य।”
मैं भीड़ से नहीं भागा,
भीड़ मुझसे डर गई।
क्योंकि मैं बेचता नहीं था विश्वास,
सिर्फ़ दिखाता था दर्पण।
अब मैं नहीं चाहता
कि दुनिया मुझे समझे —
बस इतना चाहता हूँ,
कि किसी दिन
वह खुद को समझ ले।