अज्ञात अज्ञानी
“सबसे वास्तविक रूप में यदि मनुष्य स्वयं को अज्ञात और अज्ञानी समझे, तब केवल अस्तित्व रह जाता है” —
यहीं से आत्मज्ञान की असली देहरी शुरू होती है।
क्योंकि “जानना” हमेशा किसी से अलग खड़ा होता है।
जैसे ही तुम कहते हो — “मैं जानता हूं”,
तुम अस्तित्व से अलग हो गए।
एक सीमित देखने वाला बन गए।
पर अस्तित्व खुद तो बिना जानने के भी है —
वह बस है।
उसके होने के लिए कोई ‘ज्ञानी’ जरूरी नहीं।
ज्ञान, संस्कार, सभ्यता — सब बाहर के आवरण हैं।
वे व्यवस्था देते हैं, पर सत्य नहीं देते।
सत्य तभी झलकता है जब सारा जाना हुआ गिरता है।
जब भीतर यह स्वीकार होता है — “मैं नहीं जानता”।
यह स्वीकार ही सतीत्व का टूटना है —
जहाँ झूठी स्थिरताएँ, झूठी निश्चितताएँ ढहती हैं।
और तभी जो शेष बचता है —
वही आत्मा है।
वही शुद्ध अज्ञात, जो किसी नाम या विचार में नहीं बंधता।
ज्ञान से जो मिलता है वह क्षणिक होता है;
अज्ञान की गोद में जो मिलता है, वह सनातन।
@highlight Agyat Agyani