स्त्री का घर
कहते हैं कि शादी दो दिलों का मेल है,
पर एक दिल की दास्तान यहीं खत्म हो जाती है.
उसे एक नया घर तो मिला,
पर उसका अपना घर कहीं पीछे छूट गया.
उसे रानी तो कह दिया गया,
पर राज करने का अधिकार न मिला,
उसकी पहचान को एक नया नाम दिया गया,
पर उसका अपना नाम कहीं खो गया.
यहाँ हर खुशी एक शर्त पर मिली है,
हर हँसी के पीछे एक आँसू छुपा है,
औरतों का अपना कोई घर नहीं होता,
कहते हैं कि वो बाबुल के घर मेहमान होती है,
पर क्या पता था कि ससुराल में भी पराई ही रहती है.
उसने अपने एक घर को छोड़ दिया,
पर दूसरा घर उसे अपना न सका,
उसके दिल में एक अजीब सा सूनापन है,
कि दो-दो घरों में रहकर भी वो बेघर है.
उसे घर तो दिया गया,
पर घर में अपनापन कभी न मिला,
उसने अपनी पहचान खो दी है,
दो घरों के बीच भटकते-भटकते.
उसे मेहमान कहकर तो सबने बुलाया,
पर उसकी उदासी का दर्द कोई समझ न पाया,
उसने घर तो बहुतों के सजाए,
पर उसका अपना घर कहीं बन न पाया.
उसे घर की चाबी तो थमा दी गई,
पर किसी दिल में जगह न मिली,
वह चलती रही दो घरों के बीच,
पर उसकी रूह को कहीं ठिकाना न मिला.
उसका अपना घर बस एक ख़्वाब था,
जो सिर्फ़ सपनों में ही पूरा होता था.
©Meenakshi Mini
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