मूर्ति, शास्त्र और पूजा की सीमा ✧
शास्त्र की पूजा करो, मूर्ति की पूजा करो – पर क्या शास्त्र बोल उठते हैं?
क्या मूर्ति तुम्हारा दुख हर लेती है?
मुझे कोई बाहर का भगवान, देवी-देवता दिखाई नहीं देता।
हाँ, एक तरंग है – उच्च कोटि की ऊर्जा।
जैसे विज्ञान की तरंगें (waves) यंत्र से यंत्र तक पहुँचती हैं,
वैसे ही ये दिव्य तरंगें भी पहुँचती हैं।
परंतु उन्हें पकड़ने के लिए पात्रता चाहिए।
सिर्फ़ साधना, पूजा या विधि-विधान नहीं;
पात्रता बनती है — तुम्हारे कर्म से,
तुम्हारे जीवन की शुद्धता से,
तुम्हारी समता और संतुलन से।
जब कर्म श्रेष्ठ होते हैं, विचार उच्च होते हैं,
तो तुम स्वयं यंत्र बन जाते हो —
और तभी राम, कृष्ण, बुद्ध, शिव की तरंगें
तुम्हें छूने लगती हैं।
केवल मूर्ति की पूजा से कुछ नहीं होगा।
मूर्ति की सेवा करना ऐसे ही है जैसे
कीमती रत्न को सोने-चाँदी में रखकर सुरक्षित करना।
लेकिन असली रत्न तो तब है जब
वो दिव्यता तुम्हारे हृदय में जन्म ले।
मूर्ति तब तक सहारा है —
जैसे गर्भ में पलता बच्चा।
पर जब बच्चा जन्म ले लेता है,
तो गर्भ की अवस्था छोड़ दी जाती है।
इसी तरह, मूर्ति और पूजा ठीक है
जब तक भीतर भगवान का बीज गर्भित नहीं हुआ है।
पर अगर जीवनभर केवल मूर्ति के गर्भ में पड़े रहे,
तो वह धर्म नहीं — एक पाखंड है।
धर्म वही है जहाँ भीतर जन्म होता है,
जहाँ पूजा बाहर से भीतर की ओर मुड़ती है।
संभोग तभी सार्थक है जब उससे जन्म हो।
पूजा तभी सार्थक है जब उससे भीतर भगवान जन्मे।
मूर्ति, शास्त्र, मंदिर – ये सब साधन हैं,
सत्य नहीं।
सत्य तो वही है जब तुम
भीतर की तरंगों को पकड़ लो,
और प्रकृति से प्रेम में जी उठो।