सभ्यता बनाम सत्य
1. सभ्यता एक मुखौटा है।
– हर मनुष्य भीतर से नग्न है, लेकिन ऊपर से "सभ्य" दिखता है।
– सभ्यता का अर्थ है अपनी असली प्रकृति को ढँककर एक सामाजिक चेहरा पहन लेना।
2. बच्चे सत्य हैं।
– उनका रोना, हँसना, क्रोध सब स्वाभाविक है।
– बच्चे कभी सभ्य नहीं होते, इसलिए उन्हें भगवान का रूप कहा जाता है।
– वे भीतर और बाहर दोनों से एक ही होते हैं।
3. सभ्य मनुष्य झूठा है।
– बाहर से वह सत्य जैसा दिखता है, लेकिन भीतर असत्य का खजाना छुपा होता है।
– यही पाखंड है — जो धर्म, राजनीति और समाज सबमें फैला है।
4. जो कुछ हो रहा है वही होना चाहिए।
– अच्छा या बुरा, सब अतीत में बोए गए बीज का फल है।
– गुलाब का बीज बोओगे तो गुलाब खिलेगा, बबूल बोओगे तो काँटे ही आएँगे।
– सुधार का कोई प्रश्न ही नहीं।
5. सुधार का झूठा व्यापार।
– धर्म, गुरु और प्रवचनकर्ता "सुधार", "मोक्ष" और "सिद्धि" के स्वप्न बेचते हैं।
– लेकिन किसी को सुधारना असंभव है।
6. केवल एक ही संभव है — जागरण।
– मनुष्य को जगाया जा सकता है—"होश रखो!"
– यह वैसा ही है जैसे राह चलते मुसाफिर को ठोकर से सावधान कर देना।
– वह संभले या न संभले, यह उसका चुनाव है।
7. जगा हुआ मनुष्य सभ्यता का नहीं, प्रकृति का अनुसरण करता है।
– उसके लिए पाप और पुण्य का कोई अर्थ नहीं रहता।
– नियम और धर्म का बोझ नहीं रहता।
– वह नदी की तरह बहते हुए सागर को खोज लेता है।
8. होश ही धर्म है।
– बाकी सब धर्म अंधविश्वास और बेहोशी का जाल है।
– होश जागा, तो सब कुछ स्पष्ट है।
– होश नहीं है, तो धर्म भी पाखंड है।
✍🏻 🙏🌸 — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲