बेटियाँ
यूँ ही जलती रहीं,
यूँ ही मरती रहीं...
कभी चूल्हे की आग में,
कभी दहेज़ के सवालों में,
कभी "घर की इज़्ज़त" बचाने के नाम पर,
कभी माँ-बाप की चुप्पी के जालों में।
लड़कों ने कहा—
"माँ, ये तुम्हारी पसंद की लड़की है,
ले आओ अपने लिए सेवा करने को,
मैं तो बाहर कहीं और दिल बहला लूँगा।"
घरवालों को तो चाहिए थी बस—
रोटी बनाने वाली हथेलियाँ,
पानी भरने वाली थकान,
और नोटों से सजी बहू,
जिसके संग दौलत के सपने पूरे हों।
नई नवेली दुल्हन...
सपनों की चूड़ियाँ पहने
जब आई उस घर में,
तो उसके हिस्से आई
बस आँसुओं की चूड़ियाँ।
कहते हैं लोग—
"संगर्ष में प्रेम साथ देता है..."
पर यहाँ पत्नी दोषी ठहराई जाती है,
क्योंकि वह कभी सास की ‘ना’ से ऊपर नहीं हो पाती,
क्योंकि उसका प्रेम बंधन से बाँधा ही नहीं जाता...