“जब पहाड़ रो पड़े” — एक किताब नहीं, एक पुकार है।
यह किताब उन वीरान दरवाज़ों, सूनी गलियों और अकेली माताओं की कहानी है, जिनके बेटे अब लौटते नहीं। यह उन बेजान खेतों की आहट है, जिनकी मिट्टी अब सिर्फ़ यादें समेटे है।
उत्तराखंड के उन 734 गाँवों की पीड़ा को शब्द देना आसान नहीं था, जहाँ कभी चूल्हा जलता था, स्कूलों में घंटियाँ बजती थीं, चौपालों में किस्से गूंजते थे — आज वहाँ बस सन्नाटा है।
📚 “जब पहाड़ रो पड़े” पलायन की त्रासदी नहीं, एक सामाजिक और भावनात्मक दस्तावेज़ है।
यह पुस्तक बताती है कि कैसे रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य और मूलभूत सुविधाओं के अभाव ने हजारों लोगों को अपनी जड़ों से काट दिया।
बेटा इंजीनियर बन गया, लेकिन अब माँ की आँखें उसे हर त्योहार पर ढूँढती हैं।
बापू अब भी हल थामे खेत तक जाता है, शायद बेटा एक बार पूछ ले — “बाबू, खेत दिखाओ…”
इस किताब में आँकड़े भी हैं, आँसू भी। हकीकत भी है, उम्मीद भी।
यह उन लोगों की आवाज़ है जो कभी नहीं कह पाए कि वे क्या महसूस करते हैं।
📝 लेखक: धीरेंद्र सिंह बिष्ट
🎯 अगर आपकी जड़ें किसी पहाड़ से जुड़ी हैं, या कोई गाँव अब भी आपकी यादों में बसता है — तो यह किताब आपके लिए है।
📖 “जब पहाड़ रो पड़े” — एक कोशिश, एक संकल्प… पहाड़ को फिर से जीने की उम्मीद देने की।