उपन्यास : जीवन एक संघर्ष
उपन्यासकार : किशोर शर्मा 'सारस्वत'
कुल भाग : 42, कुल पृष्ठ : 940
आज समीक्षा : भाग 23 की
कथानक : इस अंक के प्रारम्भ में रमन व कविता का आत्मीय वार्तालाप मन को गुदगुदाता है।
उधर, केहर सिंह जमानत पर छूट कर घर आ तो जाता है लेकिन सरकार गिरने से तथा जिंदगी में पहली बार पराजय का मुँह देखकर वह अत्यधिक व्यथित है, उसकी रातों की नींद भी उड़ी हुई है। लेकिन उसकी पत्नी का परामर्श कि एसडीएम की बड़े अधिकारी से शिकायत कर दो, सुनकर जैसे उसे संजीवनी मिल जाती है और वह दूसरे दिन चुपचाप शहर में एक सेवानिवृत्त पटवारी के घर पर जाता है जो शिकायती प्रार्थना पत्र लिखने का ही कार्य करता है। पटवारी उसकी बात सुनकर उसके लिए एक प्रार्थना पत्र उपाचार्य को व दूसरा मुख्यमंत्री के नाम सुपुर्द करता है जिसमें जगपाल का शिकायती केस एसडीएम कविता के बजाय किसी अन्य को सुपुर्द कर दिए जाने की माँग की गई है। प्रार्थना पत्र में वह अपने कुछ गुर्गों से हस्ताक्षर करवाकर उन्हें रजिस्टर्ड डाक से भेज देता है।
उपन्यासकार ने इस अंक की शुरुआत दो एक समान वैचारिक पृष्ठभूमि के सच्चरित्र आत्मीयजनों- कविता व रमन के इन संवादों से की है:
- 'किन ख्यालों में खो गए थे?'
- 'कुछ नहीं, बस यूँ ही समय की चाल देख कर उस सृष्टि नायक का स्मरण हो आया था। देखो न, वह कितना महान है? इंसान क्या सोचता है और होता क्या है। वे लोग, जो आपको नीचा दिखाना चाहते थे, आज स्वयं अपने ही लोगों के कारण धरातल पर पहुँच गए हैं। किसी ने सच ही कहा है कि इंसान चाहे जितना भी बड़ा बन जाए, उसे अपने पाँव जमीन पर ही रखने चाहिए। पता नहीं, समय की चाल कब बदल जाए। ' (पृष्ठ 365)
बाद में दो दुर्जन चरित्र केहर सिंह और उसकी पत्नी की कुटिल चालें आरम्भ हो गईं जो निम्न स्वरूप में उभरीं:
- केहर सिंह सरपंच जमानत पर छूट कर गाँव वापस आ चुका था...उसके भीतर का विष जो पहले उसका सामना करने वाले किसी भी व्यक्ति को चित किए बिना नहीं छोड़ता था, आज उसे ही अचेत किए जा रहा था। जिस बिस्तर पर लेट कर वह दूसरों की नींद हराम करने के सपने लिया करता था, वह स्वयं की नींद हराम कर रहा था। (पृष्ठ 367)
- उसकी पत्नी उसे सान्त्वना देते हुए बोली, 'आप उसकी (एसडीएम) शिकायत बड़े अधिकारियों से क्यों नहीं कर देते कि वह इन लोगों से मिली हुई है। कम से कम इस बला से तो छुटकारा मिलेगा।' (पृष्ठ 368)
लेखक इस बात को प्रमाणित कर देते हैं कि जीवन में संघर्ष चलता ही रहता है, कभी कम नहीं होता। इस दृष्टि से पुस्तक का शीर्षक इस अंक में भी मुखर हो रहा है।
समीक्षक : डाॅ.अखिलेश पालरिया, अजमेर
24.12 2024