उपन्यास : जीवन एक संघर्ष
उपन्यासकार : किशोर शर्मा 'सारस्वत'
कुल भाग : 42, कुल पृष्ठ : 940
आज समीक्षा : भाग 22 की
कथानक : इस भाग में भोर के सुन्दर चित्रण के साथ ही सरपंच केहर सिंह के घर सुबह-सुबह पुलिस जीप उसके गिरफ्तारी वारंट लेकर पहुँच गई तो शराब पीकर सोए सरपंच का नशा उतर गया।
पत्नी के शब्दिक आक्रमण के बावजूद उसे जीप में बिठाकर ले जाया गया।
यह खबर देखते-देखते पूरे गाँव में फैल गई जिससे उसके विरोधी खुश होकर रमन के घर इकट्ठा हो गए और इसका श्रेय रमन को देने लगे लेकिन रमन ने इसके लिए एसडीएम मैडम को धन्यवाद कहा। सब लोगों की चाहत पर न चाहते हुए भी रमन को मैडम के नाम आभार पत्र लेकर कविता के घर जाना पड़ा।
रमन कविता से अभी मिलना नहीं चाहता था लेकिन कविता ने उसे बाहर आकर जाने से रोक दिया।
दोनों को यह तो ज्ञात ही था कि अब स्थानान्तरण होना तय था। इसी विषय पर बात करते हुए कविता ने कहा कि वह मेहनती और ईमानदार होने के साथ-साथ इज्जतदार भी है अत: वह इज्जत के साथ समझौता नहीं करेगी। इससे तो बेहतर है कि वह यह सर्विस छोड़कर शिक्षा के क्षेत्र में चली जाए।
रमन अनुरोध करता है कि वे ऐसा न करें बल्कि सरकारी तंत्र के मध्य रहकर संघर्ष करें और वह समाज में रह कर सामाजिक बुराइयों से लड़ेगा।
कविता के पूछने पर कि क्या वह हम दोनों के बीच की दूरी में यह सामंजस्य बनाए रखना संभव होगा? रमन भावुक होकर बोला कि वह तो क्षितिज के उस पार तक भी साथ निभाने को तैयार है।
इस दौरान एक फोन आता है तो पता चलता है कि कविता को सुबह इसी जगह कार्यग्रहण करना है क्योंकि सरकार गिर गई है।
उपन्यासकार ने इस अंक के आरम्भ व अंत में अप्रत्याशित मोड़ देकर पाठकों को लंबी मुस्कान बिखेरने का अवसर प्रदान किया है...लगता है, अब दुष्टों की शामत आने वाली है!
कुछ महत्वपूर्ण अंश द्रष्टव्य बन पड़े हैं:
- 'हम कोई चोर, डाकू, लुटेरे नहीं हैं, जो थारे खाखी कपड़े देखकर भाग जाएँगे। चोरों की तरह तो तुम आए हो। हिम्मत है तो दिन के समय आकर दिखाओ, फिर देखती हूँ तुम इसे कैसे लेकर जाते हो?' (पृष्ठ 355)
- 'भाई, यह तो एक दिन होना ही था। आखिर पाप का घड़ा भर कर फूटता ही है। लोगों का पैसा लूट कर खूब ऐश-परस्ती कर ली है। अब थोड़े दिन जेल में सरकारी मेहमान नवाजी का मजा भी लेने दो, ताकि तोंद अपने सही ठिकाने पर आ जाए।' (पृष्ठ 356)
- 'मैं रणभूमि से नहीं भाग रही हूँ और भाग कर जाऊँगी भी कहाँ? यहाँ पर तो पूरा देश ही कुरुक्षेत्र का मैदान बना पड़ा है। कदम-कदम पर दुर्योधन और शकुनि जैसे घमंडी और धूर्त लोग दूसरों का अहित करने के लिए घातक लगाए बैठे हैं। उनसे लड़ने के लिए किसी का सहारा चाहिए। अर्जुन के साथ तो स्वयं भगवान श्रीकृष्ण थे, परन्तु मेरा साथ देने वाला तो यहाँ पर कोई भी नहीं है।' (पृष्ठ 361)
- 'रमन, अगर यह शब्द सच्चे मन की परिभाषा है तो फिर मैडम और कविता के बीच का अंतर मिटा दो। मैं आपके लिए आज भी वही कविता हूँ जो प्रोफेसर अमलेन्दू घोष जी के सम्मुख आपसे मिली थी।आदमी कर्म से चाहे कितना भी बड़ा बन जाए, इंसान के रूप में तो वह एक इंसान ही है। मेरे अंदर भी इंसान का दिल है। शायद आप न जानते हो, परन्तु उसने आपको बहुत पहले से ही पहचान लिया था। रमन, हम दोनों मिल कर वास्तव में बहुत कुछ बदल सकते हैं।' (पृष्ठ 361)
लगता है, कविता और रमन मिलकर कुछ बड़े-बड़े काम करने वाले हैं और अब भ्रष्टाचारियों की खैर नहीं है।
सम्पूर्ण उपन्यास में अब तक जिसकी आधी कड़ियाँ समाप्त हो चुकी हैं, रोचकता व संवादों के माध्यम से पात्रों का चरित्र-चित्रण बहुत अच्छे से अभिव्यक्त हुआ है। निस्संदेह लेखक इसके लिए बधाई के पात्र हैं।
समीक्षक : डाॅ.अखिलेश पालरिया, अजमेर
23.12.202