मैं नहीं डरती उस अंधेरे से
मैं रहती ही नहीं अंधेरे में
मैं हूँ नारी जिसने पुरुषो को
मान सम्मान और जन्म दिया
उन्हीं पुरुषो से भयभीत
नहीं निकलती अंधेरे में
बरसो से केवल सजा यौवन
ना किया किसी से आलिंग्न
जब मैं किशोरी से युवती हुई
दिखने लगे सबको निज स्वार्थ
एक पुरुष ने ऋण समझ
दूजे पुरुष से ब्याह दिया
कौन पिता है पति कौन
सब है तो केवल पुरुष
नारी सदा ही होती बोझ
एक दूसरे से करते मोल
मैं डरती हूँ उन पुरुषो से
जो आ जाते हैं अंधेरे में
मैं नहीं डरती अंधेरे से
मैं रहती ही नहीं अंधेर में