#दस्तूर (प्रथा)
#poetry
शायद खुदाका दस्तूर ही कुछ और था,
मंज़िले किसी औऱ के साथ तैय की ,
पर तकदीर में कोई औऱ था!
जिंदगीका भी वो आशियाना था,
तेरी नज़रोमे हम यू खो गए,
क्योंकि तेरी आंखोमें नूर कुछ और था!
तेरी उन बेहिसाब बातों में उलझे रहना भी पसंद था,
बेशक़,बेफिकर उसे सुनते रहना भी पसंद था,
क्योंकि तेरी बातों का मुझे गुरूर ही कुछ और था!
फिर वो आज़ाद परिंदे से हो गए हम,
जो ऊँचे आसमानमे जा पहुँचे,
क्योंकि उनके इश्क का फितूर ही कुछ और था!
हम भी उसी राहों पर चल पड़े,
जहाँ काँटो के जाल बिछाये गये,
पर उन काँटों में भी तेरे साथ चलने का जुनून कुछ और था!
पता था कि महौब्बत करना यूँ फ़िज़ूल नही ,
पर किसे पता उस हकीकत का था,
की इस मतलबी दुनियां का हुसूल ही कुछ और था!
हम भी उसी दलदल में जा पहुँचे,
जिसके किचड़ में हम यूँ फसे,
की वो दलदल को भी हमारा फसे रहना मंजूर था!
कितनी गुँजाइसे की थी खुदासे तेरे साथ रहने की,
पर शायद खुदा भी यूँ बेकसुर था,
क्योंकि हमारी जिंदगीं का दस्तूर ही कुछ और था!