और
जो वो खो जाए तो हीरा है,
मन न लगे तो पीड़ा है।
विकल, विछिन्न, विरहिणी-सी,
कभी राधा,
तो कभी मीरा है।
निःशब्द-सी व्यथा समाई,
अश्रु-धारा मन को भिगोती,
साँस-साँस में कृष्ण बसे हैं,
फिर भी अक्षि राह ताकती
लोक-लाज, कुल-रीति छोड़ी,
प्रीत की चादर ओढ़ चली,
जग ने समझा पागल मुझको,
मैं हर पीड़ा श्याम से जोड़ चली।
न मिलन माँगा, न प्रतिफल,
बस विरह में ही रस समाया,
मीरा का तो यही सौभाग्य—
पीड़ा में भी गिरधर को पाया
जब शब्द थक कर मौन हुए,
जब नेत्रों ने प्रश्न त्यागा,
तब विरह ही मेरा मंदिर बना,
और मीरा ने जाना—
यह जगत कितना अभागा।
ArUu ✍️