वो जो मेरा कभी था ही नहीं
मैं चाहती थी उसे…
पूरे दिल से, पूरे यकीन से।
सीधा ना कह सका वो,
पर किसी और से कहलवाया
जैसे मेरा दिल कोई कागज़ हो
जो यूँ ही किसी के हाथ में थमा दिया।
मैं टूटी… मगर कुछ कहा नहीं,
बस आँसू चुपचाप गालों से फिसलते रहे।
उसकी बेरुख़ी ने
मेरे अंदर की हर उम्मीद को जला दिया।
फिर एक दिन,
उससे दूर जाने के लिए,
मैं किसी और की दुल्हन बन गई।
न चाह थी, न प्यार था,
बस एक समझौता था…
अपने आप से, समाज से —
और उस अधूरे अफ़साने से।
पर आज भी जब
उसका नाम दिल में दस्तक देता है,
आँखें भर आती हैं,
और मैं खुद से पूछती हूँ —
"क्यों अब भी वो याद आता है,
जब वो कभी मेरा था ही नहीं?"
MB