"यामिनी"
रात थी
तरल अहसास सी
ठंड हवा जंगली सुगंध
को समाये
पत्थर से टकराती छिछली
नदी पर दौडती........
पहाड़ियाँ
काली रेखाओं-सी
क्षितिज पर उभरी
जैसे किसी पुराने चित्र की याद
अम्रितांश की शुभ्र
चादर ओढे
मैं था
एक पेड़ की जड़ में,
मिट्टी की गंध में घुला,
घास की नमी में लिपटा।
ऊपर,
चाँद था
ना पूरा, ना अधूरा,
बस वहाँ था।
शब्दहीन,
उस पतली धार में
खुद को निहारता......
चारों ओर
सन्नाटा फैला था,
लेकिन सन्नाटा नहीं था
वह बहती थी
नीचे, कहीं पास ही,
एक पतली धारा,
जिसकी ‘कल-कल’
किसी प्राचीन लोरी-सी
कानों में उतरती थी।
मैंने कुछ नहीं कहा,
उसने कुछ नहीं पूछा।
फिर भी
एक संवाद था
उस हवा का
उस सरसराते
लहराते जंगल का
शायद
यही होती है शांति
जब तुम प्रकृति में
ना दर्शक होते हो,
ना कथाकार—
बस एक बिंदु,
जो खो चुका है
हर दिशा में।
-पवन कुमार शुक्ल