......द्वंद गीत.........
आकाश के विस्तार में,
जाला सा बुना क्युं है
गर्म हवा में रेत कण,
ठहरा हुआ सा क्यूं है
कांपता सा असमान,
उलझा हुआ सा क्यूं है
दोपहर की धूप में
धुंआ सा क्यूं है
पीले पत्तों के ढेर में
बे अर्थ जिंदगी सा
नींद में डूबा सा सूरज
बुझा सा क्यूं है ...
जीवन के उन्माद का......
अवसान सा क्यूं है
महाभारत की शाम का
सूनसान सा क्यूं है
अस्तित्व ढुढने का
द्वंद गान सा क्यूं है
भ्रम भरे जगत में
अनुसन्धान सा क्यूं है
सभ्य मानव त्रस्त है
प्रोग्राम है रोबोट का
कोमल भाव..आधुनिक
विज्ञान सा क्यूं है
भोर की रक्तिम- रश्मि में
चंहचंहाते उत्सवों का
युद्ध में फटते ड्रोन का
उडान सा क्यूं है...
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