खुद को तलाश करते लोग
घने कोहरे में धुंधला होता सूरज,
जैसे किसी की पहचान धुंधली पड़ जाए,
हर चेहरे पर हज़ार कहानियाँ,
और हर कहानी अधूरी,
एक ख़्वाहिश,
खुद को पूरी करने की।
रात के सन्नाटे में चलते वो कदम,
जैसे हर कदम पर एक नई पहचान खोज रहे हों।
हर मोड़ पर एक नया सवाल,
"क्या मैं वही हूं, जिसे मैं ढूंढ़ रहा हूं?"
सवालों के जंगल में खो जाते इंसान,
अकेले, पर अपने-अपने बोझ तले दबे।
गहराई में एक खालीपन,
जैसे समुद्र का पानी हो,
पर पानी के अंदर का सूनापन हर लहर में।
हर सांस में उम्मीद का एक तिनका,
पर हर तिनका टूटता हुआ,
फिर भी अडिग, फिर भी अटल।
सपनों की धुंध से गुजरते हुए,
हकीकत की रोशनी की खोज,
पर क्या हकीकत और सपना अलग हैं?
क्या खुद को ढूंढ़ते हुए हम
उससे और दूर जा रहे हैं?
वो आंखें जो दर्पण में देखती हैं,
क्या केवल सतह को देखती हैं
या भीतर के तूफान को भी पहचानती हैं?
भीतर का वो शोर, जो सन्नाटे में छिपा है,
क्या वो भी कोई कहानी कहता है?
पर शायद यही तलाश, यही सफर
खुद को जानने का असली मतलब है।
हर गिरावट, हर चोट,
हर मुस्कान और हर आंसू
हमें खुद के और करीब ले जाते हैं।
खुद को पाना मंजिल नहीं,
यह तो सफर है,
जो हर दिन चलता रहता है,
हमारी सोच, हमारी कल्पनाओं,
और हमारी इंसानियत के साथ।
क्या यह आपको भी किसी गहरी सोच में ले जाता है?