मगर कभी न हुई
चिराग जलते रहे, रोशनी मगर कभी न हुई।
शोंख पहली ज़िया, सुकू मगर कभी न हुई।
हवाएँ बज्म कहती रहीं, चमन में बहार है,
मस्ती-ए-सबा सदॉए, मगर कभी न हुई।
दरीचों से झाँकती, वो चाँदनी की रात,
लम्हों मेहरबान अदा, मगर कभी न हुई।
बहार आई कई बार, घुले रंग बिखरे यहाँ,
सबे खुशबू-ए-वफ़ा, मगर कभी न हुई।
नज़र नज़र में जमी रही दास्तान-ए-हिज्र,
किसरा हर्फ़-ए-मुद्दआ, मगर कभी न हुई।
बरा हयात जीती रही, दर्द के धुएँ मगर,
मर्हबा लम्हा-ए-शिफ़ा, मगर कभी न हुई।
ख़्वाब आँख में आए थे पलक़ों की छाँव में,
शिर्क ऐलाने सूरतें सजी, मगर कभी न हुई।
जलवा हज़ार बार सुना, कि वक़्त मदावा करे,
रूखसत राहत-ए-सिला, मगर कभी न हुई।
कोई तो आए रूह संभालने, मगर कभी न हुई।
मुदाखिल दस्त-ए-मेहरबाँ, मगर कभी न हुई।
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ज्ञस्य केवलमज्ञस्य न भवत्येव बोधजा । अनानन्दसमानन्दमुग्धमुग्धमुखद्युतिः ॥
सविनय सप्रेम और सहज भाव से
जुगल किशोर शर्मा, बीकानेर ।