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JUGAL KISHORE SHARMA

JUGAL KISHORE SHARMA Matrubharti Verified

@jugalkishoresharma
(16.2k)

तख़्त-ए-जुनूँ के सिपाही

रौशनी उठी दुआ थी किसी इकरार के लिए।
ज़ख़्म-ए-वक़्त जाना था किरदार के लिए।
--
सर-ए-सफ़र थी हिज्र की तारीखी यु़ मंज़िलें,
सिलते रहे तक़दीर की सुई से, दीदार के लिए।
--
क़ल्ब-ए-ख़राब उम्मीद बरक्स जम न सका,
हर सांस थी सद्र-ए-जुनूँ इनकार के लिए।
--
कूचा-ए-फ़ना में वजूद रक़्स करता रहा ताउम्र,
अनजानी चीख़ किसी सब्र के इज़हार के लिए।
-
महरूम-ए-वक़्त थे मगर दिल में शुहूद बाकी,
जज्बा हर आँच में जलते रहे इख़लास के लिए।
--
सुल्तान-ए-दर्द ने जब तक़दीर लिख डाली,
हमने कलम कबकी उठाई वकाऱ के लिए।
--
रौज़-ए-जज़ा की दहलीज़ पर भी साया न था,
बेवजह क़दम रखा गया इस्तिग़फ़ार के लिए।

ख़ुर्शीद-ए-दिल ने बुझा दी हसरतों की लौ,
अब रौशनी बाकी है बस इज़्तरार के लिए।
--
रंग-ए-वजूद में ख़ामोशी की तहज़ीब बसी,
खामोष लफ़्ज़ था मानो इक ऐतबार के लिए।
--
मर्ज़-ए-हयात का इलाज तर्क-ए-हवा में मिला,
हर दर्द था बस तस्लीम-ए-राजदार के लिए।
--
तख़्त-ए-जुनूँ पे बैठा वो दीवाना मुसाफ़िर,
क़िस्मत से लड़ पड़ा इख़्तियार के लिए।
--
रूह-ए-वक़्त ने कहा, “अब सफ़र मुकम्मल है”,
बहरहाल दिल ठहर न सका इज़हार के लिए।
--
मुतलक़-सुकून की चाह में मिट गए सब नक़्श,
हुकूमती मतबल रहा नाम एक अशआर के लिए।
--
लौटा न कोई भी उस पार से अब तक मगर,
रूक रूक जान गई थी किसी अस्रार के लिए।
--
फ़ितरत ने हुक्म दिया तल्ख कर इस आलम को,
शख़्स जी उठा रूठे तेवर इन्क़िसार के लिए।
--
और चाँद ने देखा कि फ़लक भी ख़ामोश है,
तारों ने रौशनी सजादीह इस्तिक़बाल के लिए।
--
गल” ने लिखा,मैं शहीद-ए-दिलोजान के लिए,
दर्द क़ुबूल है दे ठोकर निजामी बदकार के लिए।
--
’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’
When tables of governance and toilets of arrogance emit the same stench, every thought becomes foul, every word corrupt, and every action leaves behind the spoor of ignorance; the world itself becomes a visible hell
जुगल किशोर शर्मा, बीकानेर राजस्थान दिनांक 02नवम्बर, 2025

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ग़ज़ल
“ दुनिया के आईने“
जां बहुत देखे ख़ूबसूरत मरे कुत्ते देखे,
क्या खूब नेक नक़ाबों में कमीने देखे।
इंसानियत का दावा लिए फिरते हैं यहाँ,
उन्हीं में हमने ख़ंजर संगी छुपाये देखे।
अजीब है, हर शख़्स तराजू-ए-वफ़ा में,
मगर जीभ में झूठ ही झूठ के महीने देखे।
तमाशा-ए-जमाना भी क्या चीज़ है यारो,
गिरा हुआ भी यहाँ ख़ुद को अमीने देखे।
अदब की चौखट पे बैठे हैं जो फ़क़ीराना,
उन्हीं की आँखों में हमने करिष्में देखे।
वफ़ा की तख़्तगाह पर, ज़हर बिकता है,
मुहब्बत के बाज़ार में दाम गिने देखे।
जो कल तक कहते थे, “हमी रहनुमा हैं”,
वही अब रोज हऱ किसी का तलवे देखे।
कमीनाई ये सब लफ़्ज़ तो नाम हैं बस,
असल में हर आईना यहाँ घीसेपिटे देखे।
बहोत देखे ख़ूबसूरत जुमा मरे कुत्ते देखे,
मगर इंसान की हिकारत में ना गिने देखे।
“गल” के फ़न में भी देखी है ये रिंंजशे,
जो सच्चे लगे, वही सबसे कमीने देखे।
जुगल किशोर शर्मा बीकानेर ।
#EaseToDoBusinessOrDieTrying
#MakeInIndiaButPayFirst
#GSTGyanUnlimited
#TaxedToExistence
#ComplianceComedy
#GovernmentOfForms
#DigitalSlavery
#BusinessAsPunishment
#EntrepreneurshipInHell
#EaseOfDoingBurden

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📜 **ग़ज़ल का संक्षिप्त परिचय (Short Note):
यह ग़ज़ल इश्क़, दर्द, वफ़ा, और रूहानी सफ़र की जटिलताओं को बेहद गहराई से उकेरती है। इसमें वह भाव है जो प्रेम में मिले ज़ख्मों को भी एक रहमत की तरह देखता है, और इश्क़ की राह को ऐसा रूहानी अनुभव मानता है जहाँ हर सज़ा भी एक इनायत लगती है। ग़ज़ल यह भी दिखाती है कि इश्क़ की राह आसान नहीं होती — उसमें ग़म, तश्नगी (प्यास), इनकार, मौत, और तन्हाई सब शामिल होते हैं, फिर भी सच्चा आशिक़ इन सबको चुपचाप सहकर आगे बढ़ता है।
ग़ज़ल का शीर्षक:
🌹 "इश्क़ की सल्तनत में गुनाहगार भी महफ़ूज़ है"
-
गुनाहगार भी रहम से महफ़ूज़ हो बजार करे,
रस्क ख़ुशनसीब है जिस पर नज़र-ए-यार करे।
 
जहमत ने जबसे दस्तक दी दिल के वीराने में,
सगाली जुर्रत लगीह हर बंदा बंदे से प्यार करे।
 
तिश्नगी में भी लज़्ज़त मिली है रोज़-ओ-शब,
सिराह बख्त सहर भी हो फिर भी दीदार करे।
 
क़दम थमे तो मदफ़न साया भी साथ छोड़ गया,
रोशन राह-ए-इश्क़ है, कौन किसका इन्तज़ार करे?
 
विसाल-ओ-हिज्र की सज़ा जब मुक़र्रर हो हरबज़्म ,
जनाह से दामने आग़ाज़ हो, जहां दिल इनकार करे।
 
जालिम हमको फना मिली है तअल्लुक़ की शाख़ से,
हस्ती ए शायर मौत आई, मगर इश्क़ इनकार करे।
 
दुआओ से ज़्यादा दर्द ने माँगी है राज़ मिलकीयते,
मिज़ाज अच्छा है ग़मज़दा जिस्म दिलपे ग़ौर करे।
 
सरकशी वुसअ'तें पूछते की खैर रज़ा ढूँढ ली हमने,
मुरक़्क़ा-ए-ग़म-ए-यार भी सुकून का यू इज़हार करे।
 
सल्तनते क़यामतों से गुज़री है ये इश्क़ की उमर,
तमीज़-ए-हक़-ओ-बातिल सादगी से गुज़रगार करे?
 
हम तो गुनाह लिखते रहे प्यारे अपनी ही रगों से,
जोश-ए-वहशत मे मुजमंत बस तमाशा-ए-बेकरार करे।
 
फिर भी यक़ीं है कोई फ़ज़्ल नक़्श ओ निगार करे,
रहीन-ए-दर्द में गिरा हो, नशेमन वही दुआगार करे।
 
“Beyond I and not-I, beyond being and non-being—there shines the ever-free Turiya.” The Radiant Void Beyond Solar Opposites
Jugal Kishore Sharma Bikaner
                      Monday, 19 May 2025
यह काव्य न केवल इश्क़ की गहराइयों में उतरता है, बल्कि उसमें छिपी सूफ़ियाना मिठास और आत्मा की खोज को भी व्यक्त करता है।


🕯️ प्रमुख विषय-वस्तु:
गुनाह और रहमत का द्वंद्व
इश्क़ की सूफियाना परिभाषा
दर्द और तिश्नगी की सुंदरता
वफ़ा और इनकार का टकराव
आत्मा और शरीर के बीच संघर्ष
इश्क़ के रास्ते की तन्हा रूहानी यात्रा



🖋️ ग़ैर-हिंदी (उर्दू/फ़ारसी) शब्दों के अर्थ:
शब्द (Word)
हिन्दी अर्थ
English Meaning
गुनाहगार
पापी
Sinner
रहम
करुणा, दया
Mercy
रस्क
ईर्ष्या
Envy
नज़र-ए-यार
प्रेमी की दृष्टि
Lover’s gaze
जहमत
परेशानी, कठिनाई
Hardship
सगाली
मित्रता
Companionship
जुर्रत
साहस
Courage
तिश्नगी
प्यास
Thirst
लज़्ज़त
सुख, आनंद
Pleasure
सिराह
किनारा, अंत
Edge/Limit
बख्त
भाग्य
Fate
दीदार
दर्शन
Glimpse/Meeting
मदफ़न
कब्र, अंत
Burial/Grave
विसाल
मिलन
Union
हिज्र
वियोग
Separation
हरबज़्म
हर सभा या मंच
Every assembly
जनाह
पंख, उड़ान
Wing
दामने आग़ाज़
आरंभ का आँचल
Hem of beginning
तअल्लुक़
संबंध
Relationship
हस्ती
अस्तित्व
Existence
फना
नाश, अंत
Annihilation
मिलकीयत
स्वामित्व
Ownership
मिज़ाज
स्वभाव
Temperament
सरकशी
विद्रोह
Rebellion
वुसअ'तें
विस्तार
Vastness
रज़ा
इच्छा, मंज़ूरी
Consent/Will
मुरक़्क़ा
संग्रह, दस्तावेज़
Compiled book
तमीज़
पहचान, समझ
Discernment
हक़-ओ-बातिल
सत्य और असत्य
Truth and falsehood
गुज़रगार
गुजरने वाला
One who passes through
रहीन-ए-दर्द
दर्द का बंधक
Imprisoned in pain
नशेमन
आशियाना
Nest/Abode
दुआगार
प्रार्थना करने वाला
One who prays
यक़ीं
विश्वास
Faith
फ़ज़्ल
कृपा, इनायत
Grace
नक़्श ओ निगार
चित्र और साज-सज्जा
Ornaments/Decorations
जोश-ए-वहशत
उन्माद की तीव्रता
Rage of frenzy
मुजमंत
ठहरा हुआ, स्थिर
Frozen/Still
तमाशा-ए-बेकरार
व्याकुलता का दृश्य
Scene of restlessness



✨ भावार्थ का सारांश:
यह ग़ज़ल हमें सिखाती है कि सच्चा प्रेम केवल भौतिक मिलन नहीं, आत्मिक यात्रा है। यहाँ इश्क़ एक अध्यात्मिक तपस्या बन जाता है जहाँ तकलीफ़ें भी रहमत हैं, और इनकार भी एक दया है। शायर ने न केवल प्रेम की वेदना बल्कि उसमें छुपे हुए गहरे रहस्य को भी बड़ी खूबसूरती से अभिव्यक्त किया है

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📜 **ग़ज़ल का संक्षिप्त परिचय (Short Note):
यह ग़ज़ल इश्क़, दर्द, वफ़ा, और रूहानी सफ़र की जटिलताओं को बेहद गहराई से उकेरती है। इसमें वह भाव है जो प्रेम में मिले ज़ख्मों को भी एक रहमत की तरह देखता है, और इश्क़ की राह को ऐसा रूहानी अनुभव मानता है जहाँ हर सज़ा भी एक इनायत लगती है। ग़ज़ल यह भी दिखाती है कि इश्क़ की राह आसान नहीं होती — उसमें ग़म, तश्नगी (प्यास), इनकार, मौत, और तन्हाई सब शामिल होते हैं, फिर भी सच्चा आशिक़ इन सबको चुपचाप सहकर आगे बढ़ता है।
ग़ज़ल का शीर्षक:
🌹 "इश्क़ की सल्तनत में गुनाहगार भी महफ़ूज़ है"
-
गुनाहगार भी रहम से महफ़ूज़ हो बजार करे,
रस्क ख़ुशनसीब है जिस पर नज़र-ए-यार करे।
 
जहमत ने जबसे दस्तक दी दिल के वीराने में,
सगाली जुर्रत लगीह हर बंदा बंदे से प्यार करे।
 
तिश्नगी में भी लज़्ज़त मिली है रोज़-ओ-शब,
सिराह बख्त सहर भी हो फिर भी दीदार करे।
 
क़दम थमे तो मदफ़न साया भी साथ छोड़ गया,
रोशन राह-ए-इश्क़ है, कौन किसका इन्तज़ार करे?
 
विसाल-ओ-हिज्र की सज़ा जब मुक़र्रर हो हरबज़्म ,
जनाह से दामने आग़ाज़ हो, जहां दिल इनकार करे।
 
जालिम हमको फना मिली है तअल्लुक़ की शाख़ से,
हस्ती ए शायर मौत आई, मगर इश्क़ इनकार करे।
 
दुआओ से ज़्यादा दर्द ने माँगी है राज़ मिलकीयते,
मिज़ाज अच्छा है ग़मज़दा जिस्म दिलपे ग़ौर करे।
 
सरकशी वुसअ'तें पूछते की खैर रज़ा ढूँढ ली हमने,
मुरक़्क़ा-ए-ग़म-ए-यार भी सुकून का यू इज़हार करे।
 
सल्तनते क़यामतों से गुज़री है ये इश्क़ की उमर,
तमीज़-ए-हक़-ओ-बातिल सादगी से गुज़रगार करे?
 
हम तो गुनाह लिखते रहे प्यारे अपनी ही रगों से,
जोश-ए-वहशत मे मुजमंत बस तमाशा-ए-बेकरार करे।
 
फिर भी यक़ीं है कोई फ़ज़्ल नक़्श ओ निगार करे,
रहीन-ए-दर्द में गिरा हो, नशेमन वही दुआगार करे।
 
“Beyond I and not-I, beyond being and non-being—there shines the ever-free Turiya.” The Radiant Void Beyond Solar Opposites
Jugal Kishore Sharma Bikaner
                      Monday, 19 May 2025
यह काव्य न केवल इश्क़ की गहराइयों में उतरता है, बल्कि उसमें छिपी सूफ़ियाना मिठास और आत्मा की खोज को भी व्यक्त करता है।


🕯️ प्रमुख विषय-वस्तु:
गुनाह और रहमत का द्वंद्व
इश्क़ की सूफियाना परिभाषा
दर्द और तिश्नगी की सुंदरता
वफ़ा और इनकार का टकराव
आत्मा और शरीर के बीच संघर्ष
इश्क़ के रास्ते की तन्हा रूहानी यात्रा



🖋️ ग़ैर-हिंदी (उर्दू/फ़ारसी) शब्दों के अर्थ:
शब्द (Word)
हिन्दी अर्थ
English Meaning
गुनाहगार
पापी
Sinner
रहम
करुणा, दया
Mercy
रस्क
ईर्ष्या
Envy
नज़र-ए-यार
प्रेमी की दृष्टि
Lover’s gaze
जहमत
परेशानी, कठिनाई
Hardship
सगाली
मित्रता
Companionship
जुर्रत
साहस
Courage
तिश्नगी
प्यास
Thirst
लज़्ज़त
सुख, आनंद
Pleasure
सिराह
किनारा, अंत
Edge/Limit
बख्त
भाग्य
Fate
दीदार
दर्शन
Glimpse/Meeting
मदफ़न
कब्र, अंत
Burial/Grave
विसाल
मिलन
Union
हिज्र
वियोग
Separation
हरबज़्म
हर सभा या मंच
Every assembly
जनाह
पंख, उड़ान
Wing
दामने आग़ाज़
आरंभ का आँचल
Hem of beginning
तअल्लुक़
संबंध
Relationship
हस्ती
अस्तित्व
Existence
फना
नाश, अंत
Annihilation
मिलकीयत
स्वामित्व
Ownership
मिज़ाज
स्वभाव
Temperament
सरकशी
विद्रोह
Rebellion
वुसअ'तें
विस्तार
Vastness
रज़ा
इच्छा, मंज़ूरी
Consent/Will
मुरक़्क़ा
संग्रह, दस्तावेज़
Compiled book
तमीज़
पहचान, समझ
Discernment
हक़-ओ-बातिल
सत्य और असत्य
Truth and falsehood
गुज़रगार
गुजरने वाला
One who passes through
रहीन-ए-दर्द
दर्द का बंधक
Imprisoned in pain
नशेमन
आशियाना
Nest/Abode
दुआगार
प्रार्थना करने वाला
One who prays
यक़ीं
विश्वास
Faith
फ़ज़्ल
कृपा, इनायत
Grace
नक़्श ओ निगार
चित्र और साज-सज्जा
Ornaments/Decorations
जोश-ए-वहशत
उन्माद की तीव्रता
Rage of frenzy
मुजमंत
ठहरा हुआ, स्थिर
Frozen/Still
तमाशा-ए-बेकरार
व्याकुलता का दृश्य
Scene of restlessness



✨ भावार्थ का सारांश:
यह ग़ज़ल हमें सिखाती है कि सच्चा प्रेम केवल भौतिक मिलन नहीं, आत्मिक यात्रा है। यहाँ इश्क़ एक अध्यात्मिक तपस्या बन जाता है जहाँ तकलीफ़ें भी रहमत हैं, और इनकार भी एक दया है। शायर ने न केवल प्रेम की वेदना बल्कि उसमें छुपे हुए गहरे रहस्य को भी बड़ी खूबसूरती से अभिव्यक्त किया है

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ग़ज़ल: “वो जो लफ़्ज़ों से परे है…” तजल्ली-ए-हक़, फ़ना, तस्लीम, सूफ़ी मिज़ाज रग़ / -सग़...से परे है
--
वुजूद ओ साया, हर इक इशारा जिससे परे है,
हिज्र में भी महज़ूर है, हादसा निगाहसे परे है।
--
न हसरतों की कसक, न आरज़ू की सदा सहर है,
जरा सरमदी है मग़रूर, इश्तियाक़ दिलसे परे है।
--
न कर्म का असर, न सवाब की तवक्को के राज है,
मुक़ाम-ए-तस्लीम का, इब्तिदा ताजुब्बसे भरे है।
--
बेगानगी वो सज्दे में भी है, और तजल्ली में भी,
जो अर्श से नहीं, अर्श का सदा इबादतसे परे है।
--
हिजाब ओ जल्वा, तमाशा-ए-दिल के फ़रेब से है,
बसीरत-ए-नूर में जो है, वो रज़ा तस्लीमसे परे है।
--
जदह क़ज़ा की निगाह में, न खबर नियत की राह,
जो लमहों में नहीं ठहरा, वो सिला हयातसे परे है।
--
कारगर इज़्ज़त, ना ज़िल्लत, ना ‘मक़्बूल’ की प्यास,
मुतमइन जो है, उसका हर फ़ैसला नियतसे परे है।
--
शबनम ना ख़्वाजा है, ना बंदा, ना आरज़ू का सानी,
हर्फ़-ए-हक़ीक़त में है गुम, तमन्ना दुआहसे परे है।
--
तलाश-ए-वफा में जो दरेदिवार से भी रू-ब-रू हो,
वो इश्क़-ए-बे-नाम का दरिया, वफ़ा वसीले परे है।
--
नुमायॉं शीरी दर सवाल में है, ख़ामोशी का जवाब,
दास्तॉं लफ़्ज़ों से नहीं गिला, सदा इब्तदासे परे है।
--
दम ए यार कहे कौन जाने फ़ना की ताबिरसे परे है,
ऐहसां ख़ालिक़-ए-रूह में है, बंदा इंतेजामसे परे है।

Though engaging outwardly in worship and society, the enlightened one does not truly experience joy or sorrow. These appear to him like reflections – unreal and distant.
Jugal Kishore Sharma Bikaner
Saturday, 17 May 2025

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ग़ज़ल: “वो जो लफ़्ज़ों से परे है…” तजल्ली-ए-हक़, फ़ना, तस्लीम, सूफ़ी मिज़ाज रग़ / -सग़...से परे है
--
वुजूद ओ साया, हर इक इशारा जिससे परे है,
हिज्र में भी महज़ूर है, हादसा निगाहसे परे है।
--
न हसरतों की कसक, न आरज़ू की सदा सहर है,
जरा सरमदी है मग़रूर, इश्तियाक़ दिलसे परे है।
--
न कर्म का असर, न सवाब की तवक्को के राज है,
मुक़ाम-ए-तस्लीम का, इब्तिदा ताजुब्बसे भरे है।
--
बेगानगी वो सज्दे में भी है, और तजल्ली में भी,
जो अर्श से नहीं, अर्श का सदा इबादतसे परे है।
--
हिजाब ओ जल्वा, तमाशा-ए-दिल के फ़रेब से है,
बसीरत-ए-नूर में जो है, वो रज़ा तस्लीमसे परे है।
--
जदह क़ज़ा की निगाह में, न खबर नियत की राह,
जो लमहों में नहीं ठहरा, वो सिला हयातसे परे है।
--
कारगर इज़्ज़त, ना ज़िल्लत, ना ‘मक़्बूल’ की प्यास,
मुतमइन जो है, उसका हर फ़ैसला नियतसे परे है।
--
शबनम ना ख़्वाजा है, ना बंदा, ना आरज़ू का सानी,
हर्फ़-ए-हक़ीक़त में है गुम, तमन्ना दुआहसे परे है।
--
तलाश-ए-वफा में जो दरेदिवार से भी रू-ब-रू हो,
वो इश्क़-ए-बे-नाम का दरिया, वफ़ा वसीले परे है।
--
नुमायॉं शीरी दर सवाल में है, ख़ामोशी का जवाब,
दास्तॉं लफ़्ज़ों से नहीं गिला, सदा इब्तदासे परे है।
--
दम ए यार कहे कौन जाने फ़ना की ताबिरसे परे है,
ऐहसां ख़ालिक़-ए-रूह में है, बंदा इंतेजामसे परे है।

Though engaging outwardly in worship and society, the enlightened one does not truly experience joy or sorrow. These appear to him like reflections – unreal and distant.
Jugal Kishore Sharma Bikaner
Saturday, 17 May 2025

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ग़ज़ल: “वो जो लफ़्ज़ों से परे है…” तजल्ली-ए-हक़, फ़ना, तस्लीम, सूफ़ी मिज़ाज रग़ / -सग़...से परे है
--
वुजूद ओ साया, हर इक इशारा जिससे परे है,
हिज्र में भी महज़ूर है, हादसा निगाहसे परे है।
--
न हसरतों की कसक, न आरज़ू की सदा सहर है,
जरा सरमदी है मग़रूर, इश्तियाक़ दिलसे परे है।
--
न कर्म का असर, न सवाब की तवक्को के राज है,
मुक़ाम-ए-तस्लीम का, इब्तिदा ताजुब्बसे भरे है।
--
बेगानगी वो सज्दे में भी है, और तजल्ली में भी,
जो अर्श से नहीं, अर्श का सदा इबादतसे परे है।
--
हिजाब ओ जल्वा, तमाशा-ए-दिल के फ़रेब से है,
बसीरत-ए-नूर में जो है, वो रज़ा तस्लीमसे परे है।
--
जदह क़ज़ा की निगाह में, न खबर नियत की राह,
जो लमहों में नहीं ठहरा, वो सिला हयातसे परे है।
--
कारगर इज़्ज़त, ना ज़िल्लत, ना ‘मक़्बूल’ की प्यास,
मुतमइन जो है, उसका हर फ़ैसला नियतसे परे है।
--
शबनम ना ख़्वाजा है, ना बंदा, ना आरज़ू का सानी,
हर्फ़-ए-हक़ीक़त में है गुम, तमन्ना दुआहसे परे है।
--
तलाश-ए-वफा में जो दरेदिवार से भी रू-ब-रू हो,
वो इश्क़-ए-बे-नाम का दरिया, वफ़ा वसीले परे है।
--
नुमायॉं शीरी दर सवाल में है, ख़ामोशी का जवाब,
दास्तॉं लफ़्ज़ों से नहीं गिला, सदा इब्तदासे परे है।
--
दम ए यार कहे कौन जाने फ़ना की ताबिरसे परे है,
ऐहसां ख़ालिक़-ए-रूह में है, बंदा इंतेजामसे परे है।

Though engaging outwardly in worship and society, the enlightened one does not truly experience joy or sorrow. These appear to him like reflections – unreal and distant.
Jugal Kishore Sharma Bikaner
Saturday, 17 May 2025

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ग़ज़ल: “वो जो लफ़्ज़ों से परे है…” तजल्ली-ए-हक़, फ़ना, तस्लीम, सूफ़ी मिज़ाज रग़ / -सग़...से परे है
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वुजूद ओ साया, हर इक इशारा जिससे परे है,
हिज्र में भी महज़ूर है, हादसा निगाहसे परे है।
--
न हसरतों की कसक, न आरज़ू की सदा सहर है,
जरा सरमदी है मग़रूर, इश्तियाक़ दिलसे परे है।
--
न कर्म का असर, न सवाब की तवक्को के राज है,
मुक़ाम-ए-तस्लीम का, इब्तिदा ताजुब्बसे भरे है।
--
बेगानगी वो सज्दे में भी है, और तजल्ली में भी,
जो अर्श से नहीं, अर्श का सदा इबादतसे परे है।
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हिजाब ओ जल्वा, तमाशा-ए-दिल के फ़रेब से है,
बसीरत-ए-नूर में जो है, वो रज़ा तस्लीमसे परे है।
--
जदह क़ज़ा की निगाह में, न खबर नियत की राह,
जो लमहों में नहीं ठहरा, वो सिला हयातसे परे है।
--
कारगर इज़्ज़त, ना ज़िल्लत, ना ‘मक़्बूल’ की प्यास,
मुतमइन जो है, उसका हर फ़ैसला नियतसे परे है।
--
शबनम ना ख़्वाजा है, ना बंदा, ना आरज़ू का सानी,
हर्फ़-ए-हक़ीक़त में है गुम, तमन्ना दुआहसे परे है।
--
तलाश-ए-वफा में जो दरेदिवार से भी रू-ब-रू हो,
वो इश्क़-ए-बे-नाम का दरिया, वफ़ा वसीले परे है।
--
नुमायॉं शीरी दर सवाल में है, ख़ामोशी का जवाब,
दास्तॉं लफ़्ज़ों से नहीं गिला, सदा इब्तदासे परे है।
--
दम ए यार कहे कौन जाने फ़ना की ताबिरसे परे है,
ऐहसां ख़ालिक़-ए-रूह में है, बंदा इंतेजामसे परे है।

Though engaging outwardly in worship and society, the enlightened one does not truly experience joy or sorrow. These appear to him like reflections – unreal and distant.
Jugal Kishore Sharma Bikaner
Saturday, 17 May 2025

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ग़ज़लः “जो है वही बस नज़र आता है“

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न हर एक साया यहाँ इकसा नजर आता है,
जो देखता हूँ वही दर्दमंद ए सबर आता है।
..
शीशा ए वजूद मेरा मिटा है जहाँ चूर चूर से,
मिस्ल ए आह से रौशन कोई असर आता है।
..
दुआ भी करता नहीं अब दिलों का यदा कदा,
नफ़स की चालों से चश्म, बस ख़बर आता है।
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मैं क्या हूँ, कौन हूँ, किस टसर में छुपा के लुफत,
फिरदोस हर आईने में वही अगर मगर आता है।
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बरू कर्द फ़क़त ख़मोशी में मिलती है मंज़िल मुझे,
रूबाब न साँसें हों, वो ही बाब ए असर आता है।
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दामन ए यार मिटे हैं नाम, मिटे हैं निशाँ सब मगर,
बहुत अजीब, जो रह गया, वो ही दरअसर आता है।
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खाक गुज़र गया अश्क, मैं मोड़ भी लचर आता है
बाचश्म ए इनाया से भी कम जहाँ नज़र आता है।
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"The wise see no distinction between 'this' and 'that,' for in the light of Brahman, all duality dissolves."
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Jugal Kishore Sharma Bikaner    
Saturday, May 10, 2025

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सादगी के मारे

"When the mind is silent, the Self shines forth"

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पुरसुकून मुरशिद ब-मजाज़ सादगी के मारे हैं,

पा-ए-दिलकश सज-धज के रोशनी उत्तारे हैं।



छाँव की तरह थी दुआएँ, जो लम्हों से उतरीं,

हाए क्या परोस दियाह, वो आँचल के तारे हैं।



दुनिया मतला समझ जाएँ, पराए अपने होते हैं,

बेश-तयार महफ़िल में बैठे किरदार फूंके गुबारे हैं।



ग़म की चौखट पे चिराग़ों ने सजाया सब्र का रंग,

जुनूँ की राहों में इक उम्र से बाद-ए-सबा हारे हैं।



नूर-ए-हक़ बन के जो आये, वो थे सच्चे लोग,

ज़िल्लत ये रेत में जो सच सौदा-ज़दः सहारे हैं।



तर्बियत्न माँ के पाँव छुए, फ़क़त वो ही जानें,

जन्नतें क्यों बनाई क़दमों से बेशुमार नजारे हैं।



ज़िक्र जिनका करते हैं हम हर सज्दे के बाद ,

वो सादगी ओढ़े फ़कीर अब भी वारे-न्यारे हैं।



आँख नम, दिल हरा, और लब पे सब्र का गीत,

दीदः-ए-शहला तस्वीरें तो दिल में उजियारे हैं।



ब-ताबीद हवेली से नहीं मिलती है मिट्टी की महक,

पस-ए-मर्ग टूटे हुए घरों में जुदा रिश्ते संवारे हैं।



‘नूर’ कहता है, फ़क़ीरी में भी इक शान प्यारे है,

जो न माँगे कुछ ज़माने से, वही धुर सितारे हैं।

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The world, a mere reflection, an apparition, void of substance and might, neither existent nor non-existent. The wise ones know this truth and let go of all mental constructs.

सप्रेम सविनय, जुगल किशोर शर्मा, बीकानेर ।

04.05.2025

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