मेरा दिल हर लम्हा जाता है सू-ए-दिगर की तरफ़,
क्यों ये फ़िराक़ ही रहा क़ाबिल-ए-शिफर की तरफ़?
नज़र आती थी जो दूरी, वो भी क्या कम थी मगर,
अचानक युकें मौसम बदला रुख़-ए-मिगर की तरफ़।
वो भी फ़साना था फ़लक की दस्तकों का सदियों से,
वो उतर आया अब दर-ओ-दीवार-ए-तिगर की तरफ़।
बंदा या सलामत, रहमत है ये कि ये फ़ासले टूट गए,
नहीं तो हम भी थे मुतमईन इन्तज़ार-ए-दिगर की तरफ़।
मनफ़रीद, ये कैसा नशेब है कि जो मंज़िल थी बहुत दूर,
वहीं पे ख़त्म हुआ सफ़र-ए-गुमान-ए-जिगर की तरफ़।
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उसके शगल ने छीन ली महफ़िल की रौनक़ भी,
वो इक लम्हा था जिसे उम्र भर का सोज मिला।
तवानद ताउम्र देखा है उसकी नज़रों का जादू,
मीकसद इसे ’शगल’ कहे है क्या इबादत कहते हैं!
जुगल किशोर शर्मा बीकानेर
ग़ज़ल एक गहरी भावनात्मक और दार्शनिक यात्रा को प्रस्तुत करती है। दूरियों, इंतज़ार, और अचानक बदलती परिस्थितियों का चित्रण किया गया है। प्रेम को ईश्वर की पूजा के रूप में देखते हैं, जो उन्हें शांति और संतोष प्रदान करता है।
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