कुछ ज़ुल्म-ओ-सितम सहने की बेसक आदत भी है हम को,
तुफान ए हवादिश गर्दन कटे तो बस राहत भी है हम को।
इंसाफ़ का सूरज महकूम यहाँ डूबा हुआ देखा,
बेईमानी का क़ाफ़िला बस फुलाया हुआ देखा।
लहू से रोशन हुई थीं कूचा-ए-अदालत बे मुकामा,
हर मगरूर हाकिम ने चिराग़ को ठोकर ये बुझाया।
असीरान-ए-क़फ़स को दिया सब्र का यो पयग़ाम,
सय्याद ने हँसकर कहा, “अब तो परों को क़लाम“।
अदालत के दर पर लगा है मुनाफ़िक़ों का मेला,
वहाँ हक़ बिकता है और झूठ का बजता है रेला।
जो नज़रों में खटकते थे, वो मंसूब हो गए,
दरबार में सच्चे लोग अक्सर मंसूख हो गए।
हुक्मरानों की महफ़िल में सच कहने की गुंजाइश नहीं,
बस चाटुकारों के लिए दरबार खुला खैर नुमाइश वहीं,
कल तक जो नायक थे, गुनहगार कहे गए,
और जो डाकू थे, तबीअत सरकार कहे गए।
अदालत में हाकिम से पूछा, “इंसाफ़ कहाँ?“
उसने जवाब दिया, “अभी नीलाम ह यहॉं’’
सियासत के धंधे में सबसे बड़ा सौदा बखूब या खिंचता
हाय री ग़रीब का पेट ये अमीर की दौलत का रिश्ता।
मैं ख़ून से लिखता रहा सदा-ए-हक़, भुलाते रहे ।
और हाकिम उसे मिटाने के लिए दरिया बुलाते रहे।
इंसाफ़ की गली में कोई सच्चा नहीं,
और झूठ के बाज़ार में कोई भूखा नहीं।
मेरा हक़ लिख दिया गया हुक्मरानों की गुत्थी बही में,
ठोकरों मेरा सर झुका दिया गया जुल्म की गली में।
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सहज समझ में कुछ पढे कुछ अनगढे ना कहे तो ठीक कहे तो ठीक यु ही कुछ लिखा मन बेमन से । अल्हड़ या मस्ती, या सरपरस्ती अनथक अविराम! मंच को सहज भाव से सादर समर्पित ।
जुगल किशोर शर्मा बीकानेर।
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