*रिटायर पापा* (कविता)। © अभिषेक चतुर्वेदी 'अभि'
कितने ज्यादा बदल गए हैं,
जब से हुए रिटायर पापा
भीतर-भीतर बिख़र गए हैं,
सधे हुए हैं बाहर पापा।
कड़कदार आवाज़ रही जो,
अब धीमी हो गयी अचानक
अभि समझौतों की लाचारी अब
जीवन का लिख रही कथानक
घर के न्यायाधीश कभी थे,
न्याय माँगते कातर पापा।
बेटे - बहुएँ आँख परखते
थे, लेकिन अब आँख दिखाते
चले पकड़ कर जो उँगली को,
वे उँगली पर आज नचाते।
बच्चों की रफ़्तार तेज है,
घिसे हुए से टायर पापा।
माँ अब पहले से भी ज्यादा
देख-रेख पापा की करतीं
नहीं किसी से कभी डरी माँ,
लेकिन अब बच्चों से डरती।
घर में रहकर भी लगते हैं
जैसे हों यायावर पापा।
पापा को आनन्दित करतीं
नाती - पोतों की मुस्कानें
मन मयूर भी लगें थिरकने,
मिल जाते जब मित्र पुराने।
कहाँ गया परिवार, प्रेम अब,
जिस पर रहे निछावर पापा।
कितने ज्यादा बदल गए हैं,
जब से हुए रिटायर पापा।
भीतर-भीतर बिखर गए हैं,
सधे हुए हैं बाहर पापा
© अभिषेक चतुर्वेदी 'अभि'