ज़ंजीर से बंधा रिश्ता एक हद तक चलता है
जब दिल का दर्द ज़्यादा पकड़ कम हो जाती है
तो रिश्ता नही ज़ंजीर बच जाती है
वो कहते है की भूल हुई हो हुई अब तो
पर उनको मालूम नही वो तो एक झलक के लिए तरस जाती हाँ
समुन्द जैसे दर्द ले के वो बूँद जैसे बया करती है
कहने पर आये तो हर ज़स्बत लफ़्ज़ों मे बया कर दे
पर वो तो आँखों से बया करती है
ये तो क़िस्मत ने खेला है खेल
जो वो आज रेगिस्तान जैसे ज़िंदगी मे
ख़ुशयो जैसे बारिश के लिए तड़पती है
ये ज़िंदगी का सिलसिला है जो इस कदर चल रहा है की आपने खुशियों का कातिल ख़ुद को ही बता रहा है