शीर्षक: दो जून की रोटी
दो जून की रोटी अब कोई बड़ा ख्याल नहीं है
जिंदा रहे आदमी, अब ये कोई सवाल नहीं है
इंसानी बस्ती में आजकल इंसान को खोजना पड़ता है
हैरत की बात, खुद में इंसानियत को तलाशना पड़ता है
दो पैर के इंसान को दो पथ पर ही चलना होता है
विश्वास के लिए सिर्फ सच या झूठ कहना पड़ता है
आजकल इंसान सिर्फ खुद के जिस्म को ढोता रहता है
ख्वाइशों के बोझ तले मृत्यु के कारणों को ढूंढता रहता है
मायने जिंदगी के, चेहरे की झुरियों की उलझन बन रहे है
दो जून की रोटी में, विलासिता के सितारे टिमटिमा रहे है
कहते थे कभी परिश्रम की रोटी का मजा अलग होता है
इंसान अब बिन बादल की बरसात में ही नहाना चाहता है
दो जून में पसीने की रोटी अब नसीब वाले को मिलती है
क्योंकि, जिंदगी अब जरूरत से ज्यादा दिमाग में रहती है
✍️ कमल भंसाली