होलिका दहन
सोचा इस बार ,

मैं भी जलाऊँ होली

मैंने झांका हृदय में अपने,,

देखा एक बड़ा सा,

स्तम्भ था अहं का,

उसे घसीट कर लाई,

और गाड़ दिया,

बीच में,

फिर गई, देखा,

कुछ ईर्ष्या,द्वैष के

‘उपले’ पड़े हैं,

ले आई उन्हें ढोकर,

और अहं के लकड़ॆ के,

आसपास जमा दिया।

फिर टटोला मन को,

लालच के मीठे-मीठे बताशे,

बिखरे हुए थे इधर-उधर ,

उन्हें किया एकत्र और

बना ली उनकी माला

उसे भी लगा दिया,

होली के डंडे पर ।

एक डिबिया मिली ,

जिसमें रखी थीं ,

कई तीलियाँ क्रोध की ,

उन्हें ले आई और ,

रगड़ कर उन्हें

कर दी प्रज्जवलित

अग्नि

धूँ-धूँ धूँ..धूँ

जलने लगी होली ।

मन में छुपी कुछ धारणाओं के

नारियल को भी किया

समर्पित ।

भावनाओं के शीतल जल

से परिक्रमा कर,

देखती रही,

उठती चिनगारियों को।

अपने विकारों की अग्नि में,

जल कर भी जब

प्रह्लाद की भाँति

सत्य का नारियल

बाहर निकल आया तो,

खेलने का मन हुआ होली।

अब लोगों के सब तरह के

रंग देखकर भी,

मन चहकता रहता है।

लोगों की तीखी और पैनी

पिचकारियाँ झेलकर भी मन

गुदगुदाता रहता है।

अब होली बन गई है

एक उत्सव

मन का भी।

© मंजु महिमा भटनागर

Hindi Poem by Manju Mahima : 111792814
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