उफ़्फ़!!!
जाने कितनी उम्मीदें...
जाने कितने सपने...
जाने कितनी ख़्वाहिशें...
साल-दर-साल
टूटती चली गयीं...
छूटती चली गयीं...
ज़िन्दगी भी
ख्वाहिशों को पूरा होने
से बदल कर
ख़्वाहिशें पूरा करने में
करवट ले चुकी है...
कुछ चाहतें...
कुछ सपनें...
कुछ उम्मीदें...
आज भी टांग देता हूँ
खिड़की पर...
लिख कर...
इसी उम्मीद में
कभी तो होंगी पूरी
कभी तो होंगी अपनी...
© रविश 'रवि'