खुला गुड़
मुझे तेरी ना बर्दाश्त नहीं।
चाहे किसी भी धर्म- जात से हो
मेरे लिए तृष्णा तृप्त करने का साधन हो
तुम्हारी मर्ज़ी हो ना हो मैंने मान लिया है बस तुम मेरी हो
गर मान गई तो उपभोग होगा, नहीं मानी तो सीधे चिता से संजोग होगा।
तेरा जीवन गुलामी और शरीर बाज़ार में बिकता खुला गुड़ है
तेरी जान की कीमत उतनी ही है जितनी कसाई घर में बिकती मुर्गी की।
तेरा हक नहीं तुझपे, मौत भी अपनी तू चुन नहीं सकती
क्योंकि तू बाज़ार में बिकता खुला गुड़ है।
तुझे हक नहीं आज़ादी का, आज़ाद होकर भी मिलना वही है जो गुलामी में भोगा है।
तू जी नहीं सकती क्योंकि तू बाज़ार में बिकता खुला गुड़ है।
रो रही है घर की चार दिवारी, काश तू जाती ही ना कॉलेज
सारा दोष पढ़ाई का है।
रास्ता भी आज हैरान है मासूम के खून से सराबोर है।
तेरी सहेली भी आज सहमी है उसने देखा है साहस का नतीजा।
सांसे थमीं हैं जिस्म ठंडा है क्योंकि सुना है मर्द ठंड में अलाव नहीं जलाते।
ख़ैर अब रूह जाने दो करने दो वहां भी अर्जी, क्योंकि यहां तो नहीं चल रही भगवान की मर्जी।
बस इतनी ही गलती है कि मैं लड़की नहीं बल्कि बाज़ार में बिकता खुला गुड़ हूं।
(ना जाने और कितने साल है आज़ादी को, किसी को समझ आए तो बता देना और जब वो समय आए तो कृपया मुझे नींद से जगा देना।)