अनुभूति 'अनु' के चित्र पर कल्पना मनोरमा की कविता
स्त्री जब जन्म देती है स्त्री को
कहलाती हैं वे माँ-बेटी
बेटी के बहाने से करती रहती है माँ
अपनी ही इच्छाओं की
मरम्मत करीने से
और माँ की छाँव और ममता के
बहाने से बेटी
सीखती रहती है अपनी
जिंदगी के लिहाफ़ में
बखिया सीधा डालना
हर दिन
जब माँ जलाती है खुद को
तब मिलता है उजास बेटी को
और उसी दीपदीपाने में
सीखती है अबोध बेटी
अपना नन्हा दीया जलाना
समझ की बाती कभी घटती है
तो कभी बढ़ती है
बस उसी को
सम्हालने का नाम हैं परंपरा
इसी सहेजने और सहजवाने में
खप जाती हैं दोनों
समूची स्त्रियाँ
लेकिन फिर भी मुस्कुराती हैं वे
एक -दूसरे को देखकर
अपने-अपने उम्र के
आख़िरी मोड़ तक ।
-कल्पना मनोरमा